अखबारों में आये दिन यह खबर आती है कि भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था है, जबकि भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन और कई अन्य अर्थशास्त्रियों ने भारत की आर्थिक विकास दर की विश्वसनीयता पर सवाल उठाया है। 28 जनवरी 2016 को इंदिरा गाँधी इंस्टिट्यूट ऑफ डेवलपमेंट रिसर्च के 13वें दीक्षान्त समारोह में रघुराम राजन ने कहा था कि सकल घरेलू उत्पाद के आकलन करने के तरीके में समस्याएँ हैं, जिसके कारण हमें विकास दर के बारे में बात करने में सावधानी बरतनी चाहिए।

किसी भी देश का आर्थिक विकास सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वृद्धि दर से तय किया जाता है। जीडीपी का निर्धारण एक जटिल अर्थशास्त्रीय प्रक्रिया है, जिसमें अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र के उपलब्ध आँकड़ों, मुद्रास्फीती तथा किसी निश्चित वर्ष को आधार मानकर आँकड़ों के समायोजन से कुल उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य तय किये जाते हैं।

भाजपा सरकार द्वारा जीडीपी के आकलन की प्रक्रिया में बदलाव के कारण जीडीपी में आया उछाल उद्योग जगत, अर्थशास्त्रियों और नीति निर्धारकों में बहस का विषय बना हुआ है। भाजपा सरकारों से पहले जीडीपी आकलन का जो तरीका इस्तेमाल किया जाता था उसमें फैक्टर कॉस्ट के आधार पर विकास दर तय की जाती थी, जिसे बदलकर सकल मूल्य वर्धिन (जीवीए) विधि के आधार पर कर दिया गया है। इसके साथ ही जीडीपी आकलन के आधार वर्ष को 2004–05 से बदल कर 2011–12 कर दिया गया है। वित्त वर्ष 2015–16 के लिए जीडीपी आकलन की इस नयी विधि ने देश की जीडीपी वृद्धि दर को 5.2 फीसदी से 7.4 फीसदी बढ़ा दिया। आधार वर्ष बदलने से वित्त वर्ष 2013–14 में जीडीपी वृद्धि दर 6.5 फीसदी  पर आ गयी जबकि यह आधार वर्ष 2004–05 के अनुसार 4.7 फीसदी ही थी। इन आँकड़ों से हमें पता चलता है कि जीडीपी आकलन की इस नयी विधि ने जीडीपी में लगभग 2 फीसदी की कागजी वृद्धि कर दी है, जो पूरी तरह फर्जी है।

अर्थव्यवस्था की वास्तविक वृद्धि दर पर सवाल उठाये जाने पर सरकार ने अपना बचाव करते हुए जीडीपी के आकलन की नयी विधि को अन्तर्राष्ट्रीय पद्धति के अनुरूप बताया है। पूर्व गवर्नर रघुराम राजन द्वारा उठाये गये सवाल वास्तव में काफी गम्भीर हैं क्योंकि जमीन पर कोई विकास होता नहीं दिख रहा है। गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी जैसे तमाम अन्य कारण बताते हैं कि देश की उच्च आर्थिक विकास दर वास्तव में सच नहीं है।

विश्व की सबसे तेज बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था बताये जाने के बावजूद देश में बेरोजगारी दर बढ़कर 3.6 फीसदी  हो गयी है। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 1 प्रतिशत जीडीपी वृद्धि दर पर 7.5 लाख नयी नौकरियों का सृजन होना चाहिए। अगर जीडीपी वृद्धि दर को 7 से 7.5 फीसदी मान भी लें तो प्रतिवर्ष 55 से 60 लाख नयी नौकरियों का सृजन होना चाहिए था। रोजगार सृजन तो दूर देश के विभिन्न क्षेत्रों में छँटनी के जरिए हजारों लोगों को बेरोजगार किया जा रहा है। सीआईईएल की रिपोर्ट के अनुसार 2017 में आईटी सेक्टर से चालीस हजार लोगों की छँटनी की गयी थी और 2018 में भी नब्बे हजार लोगों की छँटनी किये जाने की सम्भावना है।

भारत में लगभग 90 फीसदी लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। सरकार के नोटबन्दी और जीएसटी जैसे घातक फैसले ने देश के असंगठित क्षेत्र तथा लघु और मध्यम उद्योगों को बर्बाद कर दिया, जिससे लाखों लोग बेरोजगार हो गये हैं। 2015 में कपड़ा उद्योग में काम करने वाले लोगों की संख्या लगभग 25 लाख थी जो घटकर केवल 15 लाख रह गयी है। देश की सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनी कोल इण्डिया लिमिटेड में भी 2002.03 में लगभग पाँच लाख लोग काम करते थे, जिनकी संख्या 2017–18 में घटकर लगभग तीन लाख रह गयी है। नोटबन्दी के तत्काल बाद की तिमाही में जीडीपी की वृद्धि दर घटकर 6.1 फीसदी रह गयी थी जो 2015–16 में 7.9 फीसदी थी। हालाँकि सरकार जीडीपी में इस गिरावट को स्वीकार करने को तैयार नहीं थी। दूसरी तरफ वित्तमंत्री ने इस गिरावट के लिए विश्व में जारी आर्थिक मन्दी और यूपीए सरकार को जिम्मेदार ठहराया था।

सरकार ने डींग हाँकी है कि भारत फ्रांस को पीछे छोड़ कर दुनिया की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। लेकिन यह कोई गर्व की बात नहीं है क्योंकि भारत की यह अर्थव्यवस्था फ्रांस की तुलना में अपनी विशाल जनसंख्या और क्षेत्रफल के कारण है। यदि जनता के जीवन स्तर के आधार पर देखें तो आज हमारा देश फ्रांस से बहुत पीछे है। फ्रांस की प्रति व्यक्ति आय 25 लाख रुपये है जबकि भारत की 17 हजार रुपये।

अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की रिपोर्ट के अनुसार प्रतिव्यक्ति औसत जीडीपी के मामले में भारत का विश्व में 126वाँ स्थान है। भारत में प्रतिव्यक्ति आय अमरीका से 30 गुना और चीन से लगभग 5 गुना कम है। इस मामले में बहुत पिछड़े देश भी आज हमारे देश से बेहतर स्थिति में हैं। औसत प्रतिव्यक्ति आय कम होने के साथ–साथ भारत में आर्थिक विषमता बहुत अधिक है। एक रिपोर्ट के अनुसार भारत के एक फीसदी लोगों के पास देश की 73 फीसदी सम्पत्ति है। भारत की विकास दर का दूसरा पहलू यह भी है कि ग्रामीण क्षेत्रों का विकास 2 फीसदी की दर से ही हो रहा है जबकि शहरी अर्थव्यवस्था बहुत तेजी से बढ़ रही है। जिसके कारण भारत में गरीबों और अमीरों के बीच की खाई दिन–प्रतिदिन गहरी होती जा रही है।

केन्द्रीय सांख्यिकी कार्यालय के आँकड़ों के अनुसार 2017–18 में कृषि, वन और मत्स्य पालन क्षेत्र की विकास दर 2.1 फीसदी रहने का अनुमान था जो 2016–17 में 4.9 फीसदी थी। 2017–18 के आर्थिक सर्वे के अनुसार कृषि क्षेत्र का भारत की जीडीपी में केवल 17–18 फीसदी योगदान है जो देश में 50 प्रतिशत लोगों को रोजगार देता है। आर्थिक सर्वे के इन आँकड़ों से देश में किसानों की हालत का अन्दाजा लगाया जा सकता है। आँकड़ों के दर्पण में देश की अर्थव्यवस्था भले ही मजबूत होती नजर आ रही हो लेकिन कृषि पर निर्भरता के मामले में भारत की अर्थव्यवस्था खोखली होती जा रही है। 

2017–18 के आर्थिक सर्वे के अनुसार सरकार हर साल शिक्षा और स्वास्थ्य बजट में कटौती कर रही है। 2012–13 में शिक्षा पर कुल खर्च जीडीपी का 3.1 फीसदी था जो 2014–15 में घट कर 2.8 फीसदी रह गया। 2015–16 में शिक्षा बजट में और कटौती की गयी और यह घटकर 2.4 फीसदी रह गयी। एक ओर सरकार शिक्षा बजट में कटौती कर रही है और दूसरी ओर स्कूल और कॉलेजों की फीस आसमान छू रही है।

भारत स्वास्थ्य सेवाओं पर सबसे कम खर्च करने वाले देशों में शुमार है। आँकड़ों के अनुसार भारत स्वास्थ्य सेवाओं पर जीडीपी का 1.3 फीसदी ही खर्च करता है। भारत के पड़ोसी देश नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान भी स्वास्थ्य सेवाओं पर भारत से अधिक खर्च करते हैं। स्वास्थ्य सेवाओं पर अफगानिस्तान अपनी जीडीपी का 8.2 फीसदी, दक्षिण अफ्रीका 8.8 फीसदी, ब्राजील 8.3 फीसदी और रूस 7.1 फीसदी  खर्च करता है। इन आँकड़ों से स्पष्ट हो जाता है कि भारत की आर्थिक विकास दर का जनता पर कितना प्रभाव पड़ता है। विकास दर को बढ़ा–चढ़ा कर दिखाने के लिए सरकार अधिक से अधिक कर संग्रह करती है जिसका बोझ जनता पर प्रत्यक्ष–अप्रत्यक्ष कर के रूप थोप देती है। 

सच्चाई तो यह है कि सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर की गणना में कृषि, उद्योग और आवश्यक सेवाओं के अतिरिक्त वित्त, सट्टेबाजी, रियलस्टेट सहित किसी भी अनुत्पादक क्षेत्र को शामिल करना एक धोखाधड़ी है, आँकड़ों की बाजीगरी है। हमारे देश में अगर अनुत्पादक क्षेत्र वास्तविक उत्पादन के क्षेत्र से आगे निकल गया है, वहाँ फिर भी अगर कोई मूल्य योगदान फिर भी कोई रोजगार सृजन, कोई सामाजिक उत्पादन नहीं होता तो जाहिर है कि मौजूदा विकास दर के आँकड़े पैसे से पैसा कमाकर अरबपति–खरबपति बनाने वालों के विकास के सूचक हैं।