भाजपा सरकार रिसर्च एण्ड डेवलपमेंट (आरएण्डडी) को प्रोत्साहित नहीं कर रही है। उच्च शैक्षणिक और अनुसंधान संस्थानों की फंडिंग में लगातार कटौती हो रही है। स्कॉलरशिप न मिलने के चलते शोधकर्मी आन्दोलन करने पर मजबूर हो रहे हैं। भारत में पहले से ही शोध–अनुसंधान के लिए मूलभूत ढाँचे और संसाधनों का अभाव है जिसके चलते देश के उच्च शिक्षण और शोध संस्थानों के शोधकर्मी अमरीका और यूरोप के देशों का रुख कर लेते हैं। इन सबके बावजूद इन संस्थाओं की फंडिंग और स्कॉलरशिप में कटौती करके सरकार इनके अस्तित्व पर संकट खड़ा कर रही है। साथ ही अनुकूल माहौल के अभाव, काम के दबाव, भविष्य की कोई स्पष्ट योजना न होने और समय पर स्कॉलरशिप न मिलने के चलते पिछले 10 सालों में आईआईटी, एनआईटी और केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के 100 से अधिक छात्रों ने आत्महत्या की है। इसके अलावा शोध–कार्य में लगे अधिकतर शोधकर्मी भी मनोवैज्ञानिक विकृति, अलगाव और अवसाद के शिकार हो रहे हैं। यह सब शिक्षा और शोध के क्षेत्र में गहरे संकट का सूचक है जो हमारे देश–समाज की संरचना से नाभिनाल बद्ध है। चूँकि शोध संस्थान देश, समाज और जनता से अलग–थलग अंतरिक्ष में स्थापित कोई व्यवस्था नहीं है, इसलिए इस पर समाज व्यवस्था के संकट और शासन–सत्ता के चरित्र का बहुत गहरा असर पड़ता है।

पिछले कुछ दशकों में दुनिया के अलग–अलग देशों के साथ–साथ भारत में भी सत्ता पर ऐसे लोग काबिज हुए हैं जो वैज्ञानिक नजरिया, साक्ष्य–आधारित तार्किकता और वैज्ञानिक स्वभाव के विकास को बढ़ावा नहीं देना चाहते हैं, बल्कि इन पर अंकुश लगाना चाहते हैं। अमरीका का लठैत इजराइल का शासक वर्ग उच्च शिक्षण संस्थानों और लोकतांत्रिक संस्थाओं पर हमला कर रहा है जिसके चलते पिछले साल विश्वविद्यालय, शिक्षाविद और छात्रों ने “कोई लोकतंत्र नहीं, कोई शिक्षा नहीं” के बैनर तले विरोध–प्रदर्शन किया था। पश्चिमी देशों में धुर दक्षिणपंथी पार्टियों के सत्ता में आने के चलते वैज्ञानिक सोच और लोकतांत्रिक संस्थाओं पर हमले बढ़े हैं।

आज भारत भी इससे अछूता नहीं है। यहाँ वैज्ञानिक सोच और लोकतांत्रिक मूल्य मान्यताओं पर हमले खुलेआम होने लगे हैं। दुनिया का सबसे बड़े लोकतंत्र होने का राग अलापने के साथ ही देश के प्रधानमंत्री और सत्ताधारी पार्टी के नेता अवैज्ञानिक और प्राचीन भारत के काल्पनिक तकनीकी उपलब्धियों के दावे करके जनता के एक बड़े हिस्से को गुमराह कर रहे हैं। इन दावों में तथ्य नाम की कोई चीज नहीं होती है। इन पर धार्मिक आवरण चढ़कर पेश किया जाता है, ताकि अधिकतर लोग सवाल न उठायें और असहमति रखने वाले लोगों के विचारों को दबाया जा सके। ऐसे दावों के आलोचकों को राष्ट्र विरोधी घोषित किया जाना आम बात हो गयी है।

चिन्ता की बात तो यह है कि अवैज्ञानिकता और छद्म विज्ञान को स्कूलों और महाविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में शामिल किया जाने लगा है और महत्वपूर्ण वैज्ञानिक खोजों को पाठ्यक्रमों से हटाया जा रहा है। 2023 में दसवीं की एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तक से डार्विन के विकासवाद के सिद्धान्त को हटा दिया गया। 2018 में तत्कालीन उच्च शिक्षा मंत्री सतपाल सिंह ने संसद में बयान दिया था कि डार्विन का विकासवाद का सिद्धान्त वैज्ञानिक रूप से गलत है। डार्विन के विकासवाद के सिद्धान्त को पाठ्यक्रम से हटाये जाने के पीछे का कारण बच्चों पर पढ़ाई के बोझ को कम करना बताया गया। डार्विन के विकासवाद के सिद्धान्त को जानबूझकर पाठ्यक्रमों से हटाया जा रहा है ताकि मनुष्य की उत्पत्ति क्रमिक विकास से नहीं, बल्कि ब्रह्मा के मुख, पेट, भुजा और पैर से बताया जा सके। स्कूल और महाविद्यालय के पाठ्यक्रमों में प्राचीन भारत के ज्ञान को सर्वश्रेष्ठ मानने और अन्य सभ्यताओं के योगदान को कमतर समझने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देने वाले अध्याय या पाठ्यपुस्तकें शामिल की जा रही हैं। साथ ही छद्म वैज्ञानिक दावों के जरिये एक धर्म को सर्वश्रेष्ठ और अन्य धर्मों को कमतर बताया जा रहा है और लोगों के दिल–ओ–दिमाग में साम्प्रदायिकता और जातिवाद का जहर बोया जा रहा है। धार्मिक संगठनों साम्प्रदायिकता और उन्मादी लोगों ने विज्ञान और वैज्ञानिक नजरिये के प्रचारकों–– जैसे नरेन्द्र दाभोलकर, गोविन्द पानसरे, एम एम कलबुर्गी और गौरी लंकेश को मौत के घाट उतार चुके हैं।

भाजपा सरकार और धार्मिक संगठनों के गठजोड़ और उसके प्रभाव के चलते कई नये बाबा उभर कर सामने आये हैं जिनके लाखों अनुयायी हैं। वे दिन–रात लोगों को अंधविश्वास की ओर धकेलकर उनको लूटने का काम करते रहते हैं। बाबा और मौलवी सत्ता के दलाल (पावर ब्रोकर) बन गये हैं। आज राजनेताओं, बाबाओं और पूँजीपतियों का नापाक गठजोड़ समाज को गर्त में ले जा रहा है और इनके साथ मीडिया की संगत कोढ़ में खाज बन गयी है। ये नहीं चाहते कि जनता में वैज्ञानिक सोच और तर्क–वितर्क करने की क्षमता पैदा हो, ताकि वे जो कह दें, जनता उस पर आँख मूँद कर यकीन कर ले, कोई सवाल न उठाये। आज सरकार या धर्म पर सवाल उठाना सबसे बड़ा गुनाह बना दिया गया है। ऐसा करनेवाले को तुरन्त देशद्रोही घोषित कर दिया जाता है।

कोरोना काल के दौरान आधुनिक चिकित्सा को धता बताते हुए दिया–बाती जलाकर और घंटा बजाकर कोरोना को दूर भगाने के अवैज्ञानिक दावे किये गये जिसको प्रधानमंत्री मोदी जैसी देश की प्रतिष्ठित हस्तियों और झूठे नायकों ने अपनाकर एक बड़ी आबादी की चेतना को कुन्द करने का काम किया। कुछ नेताओं और धार्मिक संगठनों ने गाय के गोबर लगाने और मूत्र पीने को कोरोना का इलाज बताया। कमाल की बात तो यह है कि इन अवैज्ञानिक विचारों के प्रचार–प्रसार के लिए उच्च तकनीक और सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया जा रहा है। साथ ही शिक्षा व्यवस्था में बदलाव करके भी इस एजेण्डे को आगे बढ़ाया जा रहा है। सोचिए, ऐसे अन्धविश्वासी लोगों के हाथ में शोध संस्थाओं की बागडोर होगी तो उनका क्या हश्र होगा या ऐसे लोग इन संस्थाओं में चले जायें तो उसका तो राम ही भला कर सकते हैं।

उच्च शैक्षणिक और शोध संस्थानों के प्रमुख पदों पर आसीन पदाधिकारी भी समाज में प्रचलित धार्मिक–पूँजीवादी विचारधाराओं, सरकार की चाटुकारिता और सरकारी नीतियों के प्रति प्रतिबद्ध नजर आ रहे हैं। उच्च शैक्षणिक संस्थानों में भी बहस–मुबाहसों और सरकारी नीतियों की आलोचना पर लगातार हमले हो रहे हैं जिसके चलते आलोचनात्मक सोच और वैज्ञानिक नजरिये के प्रचार–प्रसार में भारी बाधा उत्पन्न हो रही है। शिक्षा और अनुसंधान क्षेत्र अपनी गुणवत्ता तभी कायम रख सकते हैं जब अनुचित बाहरी हस्तक्षेप के बिना स्वतंत्र रूप से संचालित हों। सरकार का अवैज्ञानिक रवैया और कूपमण्डूक अन्धविश्वासी नेताओं द्वारा हस्तक्षेप इसके विकास को बाधित और सीमित कर रहा है। आज की सरकारें अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा से अपना पीछा छुड़ाना चाह रही हैं और निजीकरण के तहत पूरी शिक्षा व्यवस्था को निजी हाथों में सौंप रही हैं जिसके चलते शिक्षा वैज्ञानिक सोच और जिन्दगी जीने के तौर–तरीकों को सिखाने के बजाय मुनाफा कमाने का साधन बनकर रह गयी है।

नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा 2020 में लायी गयी नयी शिक्षा नीति राजीव गाँधी सरकार की 1986 की नयी शिक्षा नीति की ही निरन्तरता है जो शिक्षा क्षेत्र के निजीकरण का समर्थन और शिक्षा बजट में कटौती की वकालत करती है। सरकार की नयी शिक्षा नीति इनसान को मशीन में रूपान्तरित करके गुलाम बनाने का काम कर रही है। तीन–चार दशकों से जारी वैज्ञानिक शिक्षा और वैज्ञानिक नजरिये पर हमला आज अभूतपूर्व ऊँचाई पर पहुँच गया है। आज सरकार वैज्ञानिक नजरिये और लोकतांत्रिक मूल्य मान्यताओं के प्रति छात्रों को गुमराह कर रही है। द प्रिंट वेबसाइट की एक रिपोर्ट के अनुसार ऑल इंडिया काउंसिल फॉर टेक्निकल एजुकेशन ने एक नये पाठ्यपुस्तक का प्रस्ताव रखा है जो प्राचीन भारत के कथित आविष्कारों और खोजों के बारे में छद्म वैज्ञानिक दावों के जरिये ‘भारतीय ज्ञान प्रणाली’ पर चर्चा करेगी। यह पाठ्यपुस्तक आईआईटी और एनआईटी सहित 3000 से अधिक इंजीनियरिंग कॉलेजों में पढ़ायी जायेगी।

आजादी के बाद देश की उत्पादन शक्ति को बढ़ाने के लिए भारी संख्या में इंजीनियरों, वैज्ञानिकों और बुद्धिजीवियों की आवश्यकता थी जिसके लिए आईआईटी, एम्स और अन्य विश्वविद्यालयों और संस्थानों की स्थापना की गयी। वैज्ञानिक शोध के लिए सीएसआईआर, आईआईटी, इसरो और डीआरडीओ जैसे शोध संस्थानों की स्थापना की गयी। आजादी के बाद कुछ दशकों तक सरकार ने वैज्ञानिकों और वैज्ञानिक संस्थाओं को बढ़ावा दिया और उनको पर्याप्त स्वायत्तता हासिल थी। धार्मिक प्रचार–प्रसार सरकारों की प्राथमिकता नहीं थी। वैज्ञानिकता के प्रचार–प्रसार में बाधा के तौर पर धर्म को सरकारी समर्थन प्राप्त नहीं था। सरकार वैज्ञानिक नीति निर्माण में वैज्ञानिकों, शिक्षाविदों और उस क्षेत्र के जानकार लोगों से राय लेती थी। 1958 में देश की संसद में “विज्ञान नीति प्रस्ताव” पारित किया गया था जो आधुनिक विज्ञान के प्रति प्रतिबद्ध था। 1976 में भी एक संवैधानिक संशोधन के जरिये अनुच्छेद 51ए में सरकार ने ‘विज्ञान संस्कृति’ को बढ़ावा देने पर जोर दिया था। वह एक ऐसा समय था जब देश के प्रधानमंत्री ने संसद में खड़े होकर “विज्ञान नीति प्रस्ताव” पेश किया था और पढ़कर सुनाया था। भारतीय संविधान के अनुसार वैज्ञानिक प्रवृत्ति, मानवता और सवाल और सुधार की भावना का विकास करना हर नागरिक का दायित्व है।

आज कट्टर धार्मिक संगठनों के साथ–साथ सरकारी नीतियाँ भी वैज्ञानिक नजरिये के प्रचार–प्रसार में बाधक हैं और यह चुनौती रोज–ब–रोज बढ़ती जा रही है। आज देश का प्रधानमंत्री नामचीन वैज्ञानिकों के सामने ही प्राचीन काल में गणेश की प्लास्टिक सर्जरी जैसी अवैज्ञानिक और बेतुकी बात करता है और नामचीन वैज्ञानिक चुप रहकर इसका मौन समर्थन करते हैं। वे विरोध की हिम्मत भी नहीं जुटा पाते। ऐसे रीढ़ विहीन और सत्ता के चाकर वैज्ञानिकों से क्या कोई उम्मीद की जा सकती है? इसी तरह सत्ताधारी पार्टी के तमाम नेता प्राचीन भारत में छद्म वैज्ञानिक उपलब्धियों का बेतुका और हास्यास्पद दावा करते रहते हैं। कोई महाभारत के समय में कंप्यूटर–इंटरनेट होने का दावा कर रहा है तो कोई रामायण युग में पुष्पक विमान होने का दावा कर रहा है। यहाँ तक कि एक अदालत का न्यायाधीश यह बयान देता है कि मोर आँसुओं से प्रजनन करते हैं, लेकिन इन दावों का कोई भी तथ्यात्मक प्रमाण नहीं है। शासक वर्ग पौराणिक कथाओं को इतिहास तथा धर्मशास्त्र को विज्ञान और दर्शन के रूप में प्रचारित–प्रसारित कर रहा है।

सरकार ने “विज्ञान प्रसार” संस्था को पिछले साल अगस्त तक बन्द करने का प्रस्ताव किया था। 1989 में इसकी स्थापना की गयी थी। विज्ञान का प्रसार, संचार और वैज्ञानिक स्वभाव का विकास इसका उद्देश्य है। लेकिन मौजूदा सरकारों को आधुनिक वैज्ञानिक चेतना के प्रचार–प्रसार की कोई आवश्यकता नहीं है। उनके हिसाब से सारा ज्ञान–विज्ञान वेद–पुराण में है। आजकल यह नारा प्रचलित है कि “वेद ही विज्ञान है और ऋषि–मुनि ही वैज्ञानिक हैं”। प्रमुख वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकीविद लगातार यह चिन्ता व्यक्त कर रहे हैं कि आजादी के बाद पहली बार ऐसा हो रहा है कि जब वैज्ञानिक नीति निर्माण के लिए उनसे सलाह नहीं ली जा रही है।

1990 तक आते–आते देश आर्थिक संकट में फँस गया जिससे उबरने के लिए देश के शासकों ने साम्राज्यवादी देशों के वर्चस्व वाले वर्ल्ड बैंक, विश्व व्यापार संगठन और अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की साम्राज्यवादी नीतियों के आगे घुटने टेक दिये। इसके बाद देश के शासकों को देश को आत्मनिर्भर बनाने की कोई चिन्ता नहीं रह गयी। अब सरकारों को भी यह चिन्ता नहीं रह गयी है कि नये शोध संस्थान स्थापित करें और पुराने शोध संस्थानों को सुविधाएँ मुहैया करायें, बल्कि वे साम्राज्यवादी देशों से महँगी तकनीकी सामान खरीद रहे हैं जिसके चलते एक कम पढ़ा लिखा आदमी भी धड़ल्ले से स्मार्टफोन, कंप्यूटर और तमाम मशीनें चलाना सीख लेता है, लेकिन उसमें वैज्ञानिक नजरिये का विकास नहीं हो पाता।

1990 के बाद से वैज्ञानिकों और वैज्ञानिक संस्थानों पर नौकरशाही के हावी हो जाने से भी वैज्ञानिक शिक्षा और नजरिये के प्रचार–प्रसार पर अंकुश लग गया है। साथ ही पेटेंट कानून के चलते अधिकतर शोधकार्य पर साम्राज्यवादी देशों का कब्ज हो चुका है। वे नहीं चाहते कि पिछड़े देश भी ज्ञान–विज्ञान और तकनीक में तरक्की करके उनकी बराबरी करें। अगर पिछड़े देश भी तरक्की कर जायेंगे तो साम्राज्यवादी देशों का बाजार सिमट जायेगा। वे पिछड़े देशों को महँगी तकनीकी उत्पाद और हथियार नहीं बेच पायेगे। कोई भी समानान्तर तकनीक विकसित करने के लिए पिछड़े देशों की सरकारों को साम्राज्यवादी पेटेंट कानून के खिलाफ सख्त रूख अपनाना होगा। यदि कोई देश आज के दौर में अपनी खुद की तकनीक विकसित नहीं करता है तो वह आत्मनिर्भर नहीं हो सकता, लेकिन हमारे देश के शासक वर्ग ने यह मान लिया है कि हमें कोई तकनीक विकसित करने की जरूरत नहीं है। अगर देश की जनता विज्ञान और तकनीक का ज्ञान हासिल कर लेगी तो उसे मूर्ख बनाना इतना आसान नहीं रह जायेगा। इसलिए जनता को विज्ञान और तकनीक का ज्ञान देकर सरकार अपने लिए सिर दर्द पैदा नहीं करना चाहती, क्योंकि लोग जितना जानें–समझेंगे, उतना ही सवाल करेंगे जो सरकार को पसन्द नहीं है। सरकार ने भी अपना जमीर साम्राज्यवादी देशों की सरकारों और पूँजीपतियों के हाथों बेच दिया है। यह उन्हीं की बनायी हुई नीतियों पर अमल कर रही है। अगर सरकारें बेलगाम होकर वैज्ञानिक शिक्षा और नजरिये पर हमला करती रहीं तो वह दिन दूर नहीं जब देश मध्ययुगीन अन्धकार में डूब जाये और चारों ओर कूपमण्डूकता, ढोंग–पाखण्ड और अंधविश्वास का बोलबाला हो।

आज भी देश में सैकड़ों शोध संस्थान हैं, लेकिन इनके लिए सरकार के पास कोई नीति नहीं है। विज्ञान और तकनीक में रुचि रखने वाले हजारों नौजवान आज भी शोध करके नयी तकनीक को विकसित करना चाहते हैं, लेकिन सरकार उनको संसाधन मुहैया नहीं करा रही है। साथ ही तकनीकी–शाही (टेक्नोक्रेसी) शोधकर्मियों के सिर पर सवार रहती है। कई बार तो तकनीकी–शाह (टेक्नोक्रेट) शोधकर्मियों का शोध पत्र चुराकर अपने नाम से प्रकाशित करवा लेते हैं। इसके अलावा रिसर्च पत्रिकाओं के सम्पादक समूह भी शोध पत्रों की सामग्री चुराकर अपने नाम से प्रकाशित करवा लेते हैं जिसके चलते नये शोधकर्मियों में निराशा और अवसाद घर कर रहा है और वे आत्महत्या करने पर मजबूर हो रहे हैं। सरकार भी शोधकर्मियों के शोध पत्रों को सुरक्षा प्रदान करने में असफल है।

वैज्ञानिकों के 12 सदस्यीय पैनल ने कहा है कि स्थापित वैज्ञानिक सिद्धान्तों और साक्ष्य आधारित अनुसंधान के बजाय छद्म विज्ञान को बढ़ावा देना और अप्रमाणित प्रथाओं तथा उपायों का संस्थागत समर्थन करना जनता को गुमराह कर सकता है और वास्तविक वैज्ञानिक प्रयासों में विश्वास को कम कर सकता है। पैनल ने कहा है कि युवाओं के बीच नवाचार और आलोचनात्मक सोच की संस्कृति को बढ़ावा देने की देश की क्षमता पर इसका दीर्घकालिक प्रभाव पड़ सकता है। जानबूझकर अज्ञानता और अंधविश्वास को बढ़ावा देना और इस काम में तकनीक के दुरुपयोग के चलते लोगों का विज्ञान में विश्वास कम होता जा रहा है। यहाँ तक कि पर्यावरण संकट के लिए भी विज्ञान और तकनीक को जिम्मेदार ठहराया जाने लगा है और उपाय के तौर पर विज्ञान और तकनीक को अभिशाप मानते हुए इसका बहिष्कार और सैकड़ों साल पुरानी विज्ञान और तकनीक रहित समाज का गुणगान किया जाता है। जबकि विज्ञान और तकनीक के सही इस्तेमाल से पर्यावरण सहित इनसान की तमाम समस्याओं का समाधान किया जा सकता है, लेकिन दुनिया भर के शासक वर्ग विज्ञान और तकनीक का इस्तेमाल केवल और केवल मुनाफा कमाने के लिए ही कर रहे हैं। उन्हें इस बात से रत्ती भर फर्क नहीं पड़ता कि तकनीक के गलत इस्तेमाल से पर्यावरण को कितना बड़ा नुकसान हो रहा है।

दुनिया भर की सरकारें हर साल दुनिया के अलग–अलग देशों में पर्यावरण को लेकर बड़े–बड़े सेमिनार आयोजित करती हैं, लेकिन उनका कोई नतीजा नहीं निकलता। उनके सेमिनार और सम्मेलन उनकी अय्याशी का अड्डा बनकर रह गये हैं। इसलिए विज्ञान और तकनीक को पर्यावरण संकट का जिम्मेदार बताना भी अवैज्ञानिकता को बढ़ावा देना ही है।

स्वार्थपरता, आत्म–केन्द्रीयता और संकीर्णता को छोड़कर समग्रता में सोचने से ही वैज्ञानिक नजरिये का विकास होता है। यदि कोई व्यक्ति या समाज किसी एक जाति, धर्म, नस्ल या देश की परम्परा और संस्कृति को सर्वश्रेष्ठ मानने लगे तो वह संकीर्णता का शिकार हो जाता है। वह दूसरी जाति, धर्म, नस्ल या देश को हीन दृष्टि से देखता है जिसका खामियाजा पूरे समाज को भुगतना पड़ता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण जर्मनी में आर्यन लोगों का खुद को सबसे शुद्ध नस्ल का मानना, जिसका फायदा उठाकर हिटलर जैसा तानाशाह जर्मनी का चांसलर बन बैठा और पूरी दुनिया पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने के इरादे से उसने दुनिया को विश्व युद्ध की आग में झोंक दिया जिसमें कई करोड़ लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। उस युद्ध की भयावहता की कल्पना करके ही किसी भी संवेदनशील इनसान की रूह काँप जाएगी। हमारे देश की जनता को भी इस तरह के किसी भी खतरे के प्रति सचेत रहने की आवश्यकता है। आज की सरकार भी अपने पुराने उन्हीं पुरखों के नक्श–ए–कदम पर चलने पर आमादा है। इससे पहले की बहुत देर हो जाये देश भर में ऐसे कार्यक्रम चलाने बेहद जरूरी हो गये हैं जिनसे लोगों में तर्क–वितर्क करने की क्षमता और आलोचनात्मक विवेक पैदा हो सके और जनता जागरूक और संगठित हो सके ताकि अवैज्ञानिकता और लोकतांत्रिक मूल्य मान्यताओं को खत्म किये जाने के खिलाफ डटकर संघर्ष किया जा सके।