मध्य–पूर्व के दो प्रतिद्वन्द्वी देशों–– सऊदी अरब और ईरान ने लम्बे समय की दुश्मनी के बाद एक–दूसरे की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया है। दोनों देशों ने मार्च में चीन की मध्यस्थता में एक समझौते पर दस्तखत भी किया जिसके तहत वे दो महीने के अन्दर अपने–अपने दूतावास खोल देंगे और राजनयिक, व्यापारिक और सुरक्षा सम्बन्ध स्थापित करेंगे। दोनों देशों ने मध्य पूर्व में स्थिरता और सुरक्षा पर जोर देने का वादा किया है।

इस समझौते पर अलग–अलग देशों और संस्थाओं ने अपनी प्रतिक्रिया दी है। संयुक्त राष्ट्र प्रमुख एण्टोनियो गुटेरेस ने इस समझौते के लिए चीन का शुक्रिया अदा किया है। अमरीका ने भी इस समझौते पर सतर्क टिप्पणी करते हुए कहा है कि वह भी मध्य–पूर्व में शान्ति चाहता है जबकि इजराइल के पूर्व प्रधानमंत्री नफताली बेनेट ने इस फैसले को इजराइल के लिए खतरनाक बताया है क्योंकि ईरान के परमाणु कार्यक्रमों की वजह से वह ईरान पर ज्यादा से ज्यादा दबाव बनाने का समर्थक रहा है जबकि इस समझौते से ईरान की स्थिति बेहतर होती नजर आ रही है।

सऊदी अरब और ईरान के बीच दुश्मनी का लम्बा इतिहास रहा है। मध्य–पूर्व में तुर्कों का प्रभाव कम होने के बाद सऊदी अपने आप को इस्लामिक जगत का नेता मानता था जिसे अमरीका का पूरा समर्थन प्राप्त था, लेकिन 1979 में इस्लामी क्रान्ति के बाद ईरान मध्य–पूर्व में एक नयी ताकत के रूप में उभरा और दोनों देश अपना प्रभाव बनाने के लिए एक दूसरे के खिलाफ संघर्ष में उतर गये। ईरान में इस्लामी क्रान्ति के बाद उसने पूरे मध्य–पूर्व में इस्लामिक क्रान्ति के विस्तार की घोषणा कर दी थी जिसके चलते सऊदी अरब का प्रभाव कम हुआ और ईरान के प्रति उसका दुश्मनाना रवैया और तल्ख हो गया। सद्दाम हुसैन को पकड़ने के लिए 2003 में अमरीका द्वारा इराक पर हमले ने इराक की स्थिति बहुत कमजोर कर दी जिससे ईरान का प्रभाव और बढ़ गया। दोनों देशों के बीच विवाद का एक कारण सऊदी में सुन्नी और ईरान में शिया मुसलमानों की बहुलता भी है।

मध्य–पूर्व में अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए दोनों देशों के बीच होड़ चलती रही। तभी परोक्ष और अपरोक्ष रूप से अमरीका के हस्तक्षेप ने आग में घी डालने का काम किया और मध्य–पूर्व को युद्ध का मैदान बना दिया। धार्मिक विवादों को लेकर उपजी दुश्मनी अमरीका के हस्तक्षेप के कारण धीरे–धीरे राजनीतिक दुश्मनी में बदल गयी। अमरीका ने लेबनान, सीरिया, इराक और यमन सहित मध्य–पूर्व के कई देशों में प्रतिद्वन्दी गुटों को लड़ाना शुरू किया।

सीरिया के मामले को लेकर भी सऊदी अरब और ईरान में टकराव बना रहा। 2011 में सीरिया में गृह–युद्ध शुरू हो गया जिसमें सऊदी ने विद्रोही गुटों को समर्थन दिया और बाद में आईएसआईएस से लड़ाई में अमरीका का साथ देने लगा। 2012 में सऊदी ने सीरिया के दूतावास को बन्द करके वहाँ के राजदूत को निष्कासित कर दिया। दूसरी तरफ ईरान और रूस सीरिया के राष्ट्रपति असद के साथ खड़े रहे।

2011 में ही अरब स्प्रिंग के दौरान बहरीन में सऊदी के शाही परिवार के खिलाफ प्रदर्शन हुए। इसके लिए भी सऊदी अरब ने ईरान को जिम्मेदार ठहराया कि ईरान लोगों को भड़का रहा है। ईरान ने यमन में हुती विद्रोहियों को समर्थन देना शुरू कर दिया और हथियार भी मुहैया कराये जिसके चलते उन्होंने 2015 में सऊदी समर्थक सरकार को सत्ता से बाहर कर दिया। इसके बाद सऊदी ने हुती विद्रोहियों के खिलाफ भीषण हवाई हमला शुरू कर दिया था। सऊदी अरब लगातार आरोप लगाता रहा है कि ईरान के समर्थन से ही हुती विद्रोही उस पर हमला करते हैं। 2019 में हुती विद्रोहियों ने सऊदी के सबसे बड़े तेल संयंत्र अरामको पर ड्रोन और मिसाइलों से हमला कर दिया था जिससे सऊदी को भारी नुकसान हुआ था और तेल उत्पादन भी बाधित हो गया था। इसके लिए भी सऊदी ने ईरान को जिम्मेदार ठहराया, लेकिन ईरान ने इसकी जिम्मेदारी लेने से इनकार कर दिया।

2016 में सऊदी ने शिया नेता निम्र–अल–निम्र को फाँसी दे दी जिसके खिलाफ ईरान की राजधानी तेहरान में जबरदस्त प्रदर्शन हुए और प्रदर्शनकारी सऊदी दूतावास में घुस गये जिससे नाराज होकर सऊदी ने अपना दूतावास बन्द कर दिया और अपने राजनयिकों को वापस बुला लिया।

2018 में जब अमरीका ईरान नाभिकीय समझौते से पीछे हटा तब भी सऊदी अरब अमरीका के साथ खड़ा था और खुशी जाहिर की थी। 2020 में बगदाद में ईरान के मिलिट्री कमांडर कासिम सुलेमानी पर अमरीका ने मिसाइल से हमला कर दिया था जिसमें सुलेमानी मारे गये थे। इस कार्रवाई से ईरान बहुत भड़क गया था, लेकिन सऊदी ने अमरीका की इस कार्रवाई पर खुशी जाहिर की थी। इसके अलावा कई देशों ने ईरान पर रासायनिक हथियारों के इस्तेमाल का आरोप लगाया था जिनमें सऊदी भी शामिल था।

सवाल यह है कि इतनी पुरानी दुश्मनी के बावजूद दोनों देश एक दूसरे से हाथ क्यों मिला रहे हैं?

दोनों देशों के साथ आने के कई कारण नजर आ रहे हैं। दोनों देशों ने अपने अनुभव से यह जान लिया है कि वे सामरिक और राजनीतिक दृष्टि से खतरनाक क्षेत्र में रह रहे हैं और आपसी विवाद उनके लिए खतरनाक साबित हो रहा है। मध्य–पूर्व के देशों में विवाद का सबसे ज्यादा फायदा अमरीका ने उठाया है। लोकतंत्र स्थापित करने और आतंकवाद से लड़ने के नाम पर अमरीका ने इस क्षेत्र के देशों पर वर्चस्व स्थापित करने की पूरी कोशिश की और कई देशों को युद्ध की आग में झोंक दिया। इराक और अफगानिस्तान से अमरीका की वापसी से निश्चित तौर पर उसका प्रभाव कम हुआ है फिर भी उसकी भूमिका को नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता। इसलिए अब ये देश अमरीकी वर्चस्व से मुक्ति चाहते हैं।

इस समझौते से मध्य–पूर्व में दोनों देशों की शाख बढ़ सकती है और मध्य–पूर्व अमरीकी वर्चस्व के दबाव से काफी हद तक मुक्त हो सकता है। लगभग 70 सालों से अमरीका सऊदी अरब का निकट सम्बन्धी रहा है। सऊदी न केवल अमरीकी हथियारों का सबसे बड़ा खरीदार है, बल्कि अमरीका भी सऊदी की सुरक्षा की गारण्टी देता रहा है, लेकिन पिछले कुछ समय से सऊदी का अमरीका की तरफ से झुकाव कम होता दिख रहा है।

यूक्रेन युद्ध के कारण रूस पर आर्थिक प्रतिबन्ध लगाने के बाद अमरीका ने सऊदी को तेल उत्पादन बढ़ाने के लिए कहा था, लेकिन सऊदी ने इस बात को नजरअन्दाज करते हुए तेल उत्पादन में कटौती कर दी जिससे अमरीका बौखला गया। अमरीका ने सऊदी पर यह आरोप लगाया कि सऊदी अमरीका को नुकसान पहुँचाने और रूस की मदद करने के लिए तेल उत्पादन को कम कर रहा है और कीमतों के साथ छेड़छाड़ कर रहा है जिससे नाराज होकर अमरीका ने नोपेक बिल लाने की घोषणा की थी जिसके तहत तेल की कीमतों पर ओपेक के नियंत्रण को कम किया जा सके।

सऊदी अरब की स्थिति पहले की अपेक्षा काफी बेहतर हुई है और वह मध्य पूर्व में एक सक्षम शक्ति बनने की ओर अग्रसर है। अगर अमरीका सऊदी पर दबाव बनाता है तो इसका ज्यादा नुकसान अमरीका को ही हो सकता है क्योंकि अमरीकी हथियारों का सबसे बड़ा खरीदार सऊदी है। अगर सऊदी रूस से हथियार खरीदना शुरू कर देगा तो अमरीकी हथियार उद्योग को भारी नुकसान होगा। अब सऊदी भी नहीं चाहता कि अमरीका उसके सहयोग के बगैर मध्य–पूर्व में कुछ भी करने की स्थिति में रहे। वह मध्य–पूर्व का रिमोट कण्ट्रोल अपने हाथ में रखना चाहता है। इसलिए वह मध्य–पूर्व के अलग–अलग देशों के साथ सम्बन्ध स्थापित करने के लिए हाथ आगे बढ़ा रहा है। तुर्की के साथ भी सऊदी के अच्छे सम्बन्ध नहीं रहे हैं। सऊदी के एक बड़े पत्रकार जमाल खशोगी की इस्ताम्बुल में हत्या के बाद दोनों देशों के बीच तनाव और बढ़ गया था, लेकिन अब यह दोनों देश भी समझौते की बात कर रहे हैं। दूसरी तरफ सऊदी ने सीरिया के साथ भी अपने राजनयिक और व्यापारिक सम्बन्धों को शुरू करने की बात कही है। दूसरी तरफ ईरान भी संयुक्त अरब अमीरात से अपने सम्बन्धों को मजबूत बना रहा है।

इस समझौते में चीन की मध्यस्थता ने पूरी दुनिया का ध्यान इस ओर खींचा है। इसे मध्य–पूर्व में चीन की बढ़ती भूमिका और कूटनीतिक सफलता के तौर पर देखा जा रहा है। वाशिंगटन इंस्टिट्यूट के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर रॉबर्ट सैटलॉफ का मानना है कि अमरीका को चाहिए कि वह सऊदी के चीन की तरफ झुकाव को मध्य–पूर्व में अपने लिए चुनौती की तरह देखे। इस समझौते में चीन की मध्यस्थता अमरीका के मुँह पर एक जोरदार तमाचा है। इसके अलावा, इस क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ाने और आर्थिक पकड़ मजबूत करने के लिए चीन ने ‘सम्मिट ऑफ द ऑल गल्फ कण्ट्रीज’ की मेजबानी करने की इच्छा जाहिर की है। चीन की ‘बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव’ (बीआरआई) के तहत इसने पहले ही इस इलाके में अपनी स्थिति काफी मजबूत कर ली है। इस समझौते के बाद चीन को मध्य–पूर्व से तेल की आपूर्ति में आने वाली अड़चनें भी कम हो सकती हैं और चीन के बाजार का विस्तार भी होता नजर आ रहा है। अमरीका लम्बे समय से सऊदी का सहयोगी रहा है इसलिए सऊदी का चीन की तरफ झुकाव अमरीका के लिए चिन्ता का विषय हो सकता है। मध्य–पूर्व के देशों का चीन की तरफ झुकाव इसके द्वारा चलायी जाने वाली विकास परियोजनाओं और अमरीका की युद्ध नीति के चलते बढ़ी है। सऊदी अरब के साथ–साथ मध्य–पूर्व के अन्य देश भी अमरीका और पश्चिम के अन्य देशों से अलग अपने रिश्ते बनाना चाहते हैं जिसमें उन्हें चीन एक बड़ा साझेदार नजर आ रहा है क्योंकि वह आने वाले समय में आर्थिक तौर पर और ऊर्जा के क्षेत्र में अमरीका को पछाड़ सकता है। सऊदी भी चाहता है कि उसकी पहचान एक क्षेत्रीय शक्ति के रूप में नहीं, बल्कि एक वैश्विक शक्ति के रूप में बने। सऊदी अपनी इस कोशिश में चीन को मुख्य सहायक के रूप में देख रहा है। इसलिए सऊदी अरब का चीन से सम्बन्ध सऊदी की दूरदृष्टि कही जा सकती है।

सऊदी अरब के चीन की तरफ झुकाव के लिए यह कहना शायद उचित नहीं होगा कि वह खेमा बदल रहा है, बल्कि इसे सऊदी अरब के अपनी अर्थव्यवस्था और सुरक्षा के संसाधनों में विविधता लाने के रूप में देखा जा सकता है। मध्य–पूर्व के अन्य देश अब केवल अमरीका पर निर्भर नहीं रह सकते, क्योंकि अमरीका के मुख्य प्रतिद्वन्द्वी के रूप में रूस और चीन के गठबन्धन का मजबूत स्थिति में आना दुनिया को फिर से दो खेमों में बाँट दिया है। ऐसी स्थिति में दोनों खेमों से तटस्थता बनाये रखना मध्य–पूर्व के देशों को फायदा पहुँचा सकता है। दूसरी तरफ इस समझौते ने इजराइल के लिए नयी चुनौतियाँ पैदा कर दी हैं। सऊदी अरब इजरायल–ईरान विवाद में इजराइल पर इसलिए दबाव नहीं बना रहा था, क्योंकि दोनों ही ईरान के दुश्मन थे, लेकिन इस समझौते ने मध्य–पूर्व के समीकरणों को बदल दिया है जिसके चलते इजराइल को अब अपनी विदेश नीति और सुरक्षा इन्तजामों में बदलाव करने की जरूरत पड़ेगी जो उसके लिए चुनौतीपूर्ण मामला है।

इस समझौते से एक तरफ मध्य पूर्व की स्थिति बेहतर होती नजर आ रही है जबकि इससे नयी चुनौतियाँ भी पैदा हो गयी हैं। ईरान पर अमरीका और पश्चिमी देशों के आर्थिक प्रतिबन्धों के चलते सऊदी अरब को ईरान से सहज सम्बन्ध बनाने में अमरीकी दबाव का सामना करना पड़ सकता है। यह समझौता अमरीका–चीन रिश्ते को भी और तल्ख बना सकता है। अब आगे देखना होगा कि दोनों देश आपसी सम्बन्ध को लेकर क्या कदम उठाते हैं?