अमरीका के राष्ट्रपति ट्रम्प ने तालिबान के साथ कैम्प डेविड में 9 सितम्बर को होने वाली शान्ति वार्ता को रद्द कर दिया था। डोनाल्ड ट्रम्प ने यह फैसला काबुल में होने वाले हमले के बाद लिया था जिसमें एक अमरीकी सैनिक सहित कुल 12 लोग मारे गये थे। 9 सितम्बर को होने वाली इस शान्ति वार्ता के तहत अमरीका अपने 5 हजार से अधिक सैनिकों को अफगनिस्तान से वापस बुुलाने वाला था। अफगनिस्तान में अभी भी अमरीका के 14 हजार सैनिक मौजूद हैं। 

गौरतलब है कि अफगानिस्तान में पिछले दो दशकों से यु़द्ध चल रहा है जिसमें एक ओर अमरीका और उसके सहयोगी संगठन नाटो की सेनाएँ हैं और दूसरी ओर तालिबानी लड़ाके हैं। तालिबान का मानना है कि अफगानिस्तान की मौजूदा सरकार अमरीका की कठपुतली है। तालिबान की माँग यह है कि अमरीका जितनी जल्दी हो सके अपने सैनिकों को वापस बुला ले। अमरीका और तालिबान के बीच समझौते को लेकर कतर की राजधानी दोहा में बातचीत चल रही थी। इसी समझौते के तहत 9 सितम्बर को कैम्प डेविड में अमरीका, अफगनिस्तान सरकार और तालिबान की बैठक होने वाली थी लेकिन ऐन मौके पर डोनाल्ड ट्रम्प ने बैैठक को निरस्त कर दिया। तालिबान के प्रवक्ता जबीउल्लाह मुजाहिद ने वार्ता को रद्द करने पर अमरीका को चेतावनी देते हुए कहा कि इससे अमरीका को और नुकसान होगा। अमरीका की विश्वसनीयता कम होगी और उसका शान्ति विरोधी रुख दुनिया के सामने आ जायेगा। 

नवम्बर 2018 में रूस की राजधानी मास्को में अफगानिस्तान के मुद्दे पर भारत


अमरीका ने ही तालिबान को पैसे और हथियार मुहैया करा कर खड़ा किया था जो आज खुद उसी के गले की हड्डी बन गया है जो न उगला जा रहा है और न ही निगला जा रहा  है। 1989 से पहले अफगनिस्तान में सोवियत संघ समर्थित सरकार थी लेकिन 1989 में सोवियत सेनाएँ वापस लौट गयीं। इसके बाद  मुजाहीदीनों के छोटे–छोटे कई गुट उभर कर आये और अफगनिस्तान की सत्ता के लिए संघर्ष छिड़ गया। इन्हीं में अलकायदा और तालिबान दो सबसे प्रभावशाली गुट थे।
1996 में तालिबान ने अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पर कब्जा कर लिया। 11 सितम्बर 2001 के अमरीकी के वर्ल्ड ट्रेड टावर पर हमले के बाद अमरीका ने अफगानिस्तान में नाटो सेनाएँ के साथ सेना उतार दी। 2001 में ही अमरीका समर्थित अफगानिस्तान सरकार ने तालिबान को सत्ता से बाहर कर दिया था। अमरीका की कठपुतली सरकार के राष्ट्रपति हामिद करजाई 2001 से 2014 तक सत्ता में बने रहे। तालिबान ने सरकार और अमरीकी सेना से लड़ाई जारी रखी। अब तक अमरीका और नाटो देशों के 4 हजार से अधिक सैनिक मारे जा चुके हैं, जबकि अमरीकी सेना के हमले में तालिबान लड़ाकों के साथ अफगानिस्तान के लाखों आम नागरिक मारे गये। अमरीका अफगानिस्तान में बुरी तरह फँस गया है और अमरीका की जनता भी युद्ध नहीं चाहती। इसलिए वहाँ से बाइज्जत निकलना चाहता है। अमरीका में अगले साल होने वाले राष्ट्रपति चुनाव को ध्यान में रखते हुए डोनाल्ड ट्रम्प ने तालिबान से शान्तिवार्ता शुरू की लेकिन उसका कोई ठोस हल नहीं निकला।
नवम्बर 2018 में रूस की राजधानी मास्को में अफगानिस्तान के मुद्दे पर भारत, अमरीका, चीन और पाकिस्तान सहित 12 देशों की बैठक हुई थी, जिसमें तालिबान के नेता भी शामिल हुए थे। हालाँकि, तालिबान अफगानिस्तान की सरकार से बात करने से मना करता आ रहा है क्योंकि अफगानिस्तान सरकार को तालिबान अमरीका की कठपुतली सरकार मानता है। लेकिन रूस अफगानिस्तान सरकार और तालिबान के बीच बैठक करवाने में कामयाब हो गया। रूस इस बैठक के लिए काफी लम्बे समय से प्रयास कर रहा था। सवाल यह भी है कि युद्ध से तबाह हो चुके अफगनिस्तान में रूस क्यों इतनी दिलचस्पी ले रहा है। इसके पीछे मुख्य कारण अफगानिस्तान में इस्लामिक स्टेट (आईएस) का पैर जमाना है। रूस आईएस की बढ़ रही सक्रियता से काफी परेशान है। 2015 में मिश्र में आईएस द्वारा रूसी एयर लाइन का जहाज गिराने और 2016 में पीटर्सबर्ग मेट्रो में आतंकी हमले के बाद रूस की चिन्ताएँ लगातार बढ़ती गयीं। 9 सितम्बर को कैम्प डेविड में होने वाली वार्ता की एक शर्त यह भी थी कि तालिबान अफगानिस्तान में आईएस को पैर जमाने नहीं देगा। 
तालिबान को पाकिस्तान का सीधा समर्थन प्राप्त है। इसलिए अमरीका ने पाकिस्तान को मदद देना बन्द कर दिया था क्योंकि उसका मानना था कि पाकिस्तान आतंकवाद को खत्म करने के लिए कुछ नहीं कर रहा है। लेकिन पिछले कुछ महीने पहले अमरीका ने पाकिस्तान की इसलिए सराहना की थी कि पाकिस्तान अमरीका को अफगानिस्तान में उबरने के लिए मदद कर रहा है और साथ ही पाकिस्तान में अमरीकी निवेश को 10 से 20 प्रतिशत बढ़ाने की भी बात कही गयी। उधर चीन ने भी पाकिस्तान को यह आश्वासन दिया है कि अन्तरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय बदलावों से चीन और पाकिस्तान की मित्रता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा और उनकी मित्रता अटूट और चट्टान जैसी मजबूत बनी रहेगी। 
अमरीका और चीन का पाकिस्तान की तरफ रुख दक्षिण एशिया में भारत की शाख को कमजोर करता हुआ नजर आ रहा है। अमरीका में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव को लेकर डोनाल्ड ट्रम्प तालिबान के साथ शान्तिवार्ता करने और अपनी सेना को वापस बुलाने की बात सोच रहे हैं जबकि भारत यह कभी नहीं चाहेगा कि अमरीका अफगानिस्तान में तालिबान से लड़े। यदि अमरीका अफगानिस्तान से हटता है तो तालिबान का दबदबा बढ़ेगा। यदि ऐसा होता है तो अफगानिस्तान में चलने वाली भारतीय विकास परियोजनाओं पर गहरा असर पड़ेगा क्योंकि तालिबान को पाकिस्तान का समर्थन प्राप्त है। अफगानिस्तानी संसद भवन भारत ने बनाया और सलमा डैम और चाबाहार पोर्ट का निर्माण भी भारत ही करवा रहा है। ऐसी ही अन्य परियोजनाओं पर भी भारत ने अफगानिस्तान में करोड़ों रुपये का निवेश किया है। भारत ने अब तक पाकिस्तान को लगभग 3 अरब डॉलर की सहायता भी दी है। तालिबान के सत्ता में आने से भारत–अफगानिस्तान व्यापार पर भी प्रभाव पड़ सकता है। इसलिए 9 सितम्बर को होने वाली शान्तिवार्ता सफल हो जाती तो इसका सीधे फायदा पाकिस्तान को मिलता।
कश्मीर को लेकर चल रहे भारत–पाकिस्तान विवाद में भी ट्रम्प ने कहा था कि भारत के प्रधान मन्त्री नरेन्द्र मोदी ने उनसे मध्यस्थता करने की बात कही है लेकिन भारत सरकार ने तुरन्त ही इस बात का खण्डन कर दिया। अगर अमरीका कश्मीर मुद्दे को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता करता भी है तो इससे दोनों देशों के बीच तनाव घटने के बजाय बढ़ेगा क्योंकि अमरीका बिना किसी लाभ के कभी भी मध्यस्थता करने को तैयार नहीं होगा। हाल ही में भारत द्वारा रूस के साथ किये जा रहे मिसाइल सौदे को लेकर भी अमरीका ने नाराजगी जाहिर की थी क्योंकि अमरीका चाहता है कि भारत हथियारों का आयात उसी से करे। भारत अब शंघाई सहकार संगठन का सदस्य भी बन गया है। अमरीका–चीन व्यापार यु़द्ध के साथ भारत की चीन के साथ निकटता अमरीका के साथ चली आ रही रणनीतिक साझेदारी को भी कमजोर कर सकती है।
मध्य–पूर्व और दक्षिण एशिया में मिल रही लगातार असफलता के बाद बौखलाये ट्रम्प तरह–तरह के अमानवीय और युद्ध भड़काऊ बयान दे रहे हैं। उन्होंने कहा था कि वे अफगानिस्तान को 10 दिन के भीतर दुनिया के नक्शे से मिटा देंगे। गौरतलब है कि क्या पिछले दो दशकों में अमरीका और नाटो सेनाओं ने अफगानिस्तान के लाखों निर्दोष लोगों की जानें ले ली हैं। बीबीसी की एक रिर्पोट के अनुसार अगस्त महीने में हर दिन अफगानिस्तान में औसतन 74 लोगों की मौत हुई है। ट्रम्प द्वारा कहे गए ऐसे अमानवीय वक्तव्य पर अफगानिस्तान की कठपुतली सरकार ने भी विरोध दर्ज कराया। अमरीका द्वारा अपने साम्राज्यवादी दबदबे को कायम रखने के लिए ऐसा भड़काऊ बयान देना लाजमी है। लेकिन अब दुनिया के दबे कुचले देश भी अमरीका की इस साम्राज्यवादी नीति को समझने लगे है और उसके सामने घुटने टेकने से इनकार कर रहे हैं। वेनेजुएला में भी तमाम आर्थिक–राजनीतिक दाँव–पेंच के बावजूद अमरीका वहाँ की सरकार को झुकाने में असमर्थ रहा है। 
अब यदि अमरीका पाकिस्तान में निवेश बढ़ाता है तो इसका सीधा प्रभाव चीन–पाकिस्तान व्यापार सम्बन्धों पर पड़ेगा। भारत भी चीन–पाकिस्तान आर्थिक गलियारे के बहाने चीन–पाकिस्तान व्यापार सम्बन्धों का विरोध करता रहा है क्योंकि यह गलियारा पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर से होकर गुजरेगा। अमरीका का दुनिया पर वर्चस्व कमजोर हो रहा है।