लगभग 10 साल के लगातार संघर्षों के बाद कोर्ट ने मानेसर के मारुति सुजुकी विवाद में उम्र कैद की सजा काट रहे 13 में से अधिकांश मजदूर नेताओं को जमानत दे दी है। कम्पनी ने 2006 में अपना नया प्लांट मानेसर में लगाया और उसमें 23 साल से कम आयु के मजदूरों की ही भर्ती की जिससे कम्पनी का उत्पादन अधिक से अधिक हो। इस प्लांट में आधुनिक मशीनें और रोबोट का इस्तेमाल किया गया और जिन मजदूरों से मशीनों के साथ 1 सेकंड भी तालमेल बैठाने में चूक हो जाती, उन्हें काम से निकाल दिया जाता था। इस प्लांट में कुशल मजदूरों को भी 3 साल की ट्रेनिंग पर रखा गया था और बहुत कम वेतन दिया जाता था। यहाँ तक कि वे चाय या खाने के समय के अलावा न टॉयलेट जा सकते थे और न ही पानी पी सकते थे। इन सब परेशानियों को देखते हुए मजदूरों ने यूनियन बनाने की कोशिश शुरू की, ताकि उन्हें बेहतर सुविधाएँ मिल सके, लेकिन कम्पनी ने मजदूरों से सादे कागज पर साइन करवा कर उन्हें ब्लैकमेल करना शुरू कर दिया। मजदूरों ने इसके विरोध में प्लांट में ही बैठकर हड़ताल शुरू कर दी। आगामी वर्षों में मजदूरों ने हड़ताल और विरोध प्रदर्शन के दम पर यूनियन बना ली। इसके बाद यूनियन ने ठेका प्रथा को खत्म करने और समान काम का समान वेतन लागू करने की मांग उठानी शुरू कर दी जिसे कम्पनी ने नामंजूर कर दिया और यूनियन को खत्म करने के लिए तरह–तरह के हथकण्डे अपनाने लगी।

कम्पनी ने 18 जुलाई 2012 को षड्यंत्र रचकर प्लांट के अन्दर झगड़ा करवाया जिसमें कम्पनी के एक मैनेजर की मौत हो गयी। इस घटना के बाद यूनियन के नेतृत्वकारी मजदूरों सहित 148 मजदूरों को जेल में डाल दिया गया और लगभग ढाई हजार मजदूरों को बर्खास्त कर दिया गया। ये मजदूर 4 सालों तक बिना किसी जमानत के जेल की सजा काटते रहे और बर्खास्त मजदूर पुलिसिया दमन के शिकार होते रहे, लेकिन प्रोविजनल वर्किंग कमेटी बनाकर मजदूरों ने आन्दोलन जारी रखा। मजदूर अपने साथियों को रिहा करवाने के लिए लगातार संघर्ष करते रहे, लेकिन 4 साल तक किसी भी मजदूर की जमानत नहीं हुई। एक तरफ कम्पनी और सरकार का गठजोड़ मजदूरों पर कहर ढा रहा था और दूसरी तरफ जेल में बन्द मजदूरों को न्यायालय से जमानत नहीं मिल रही थी। चंडीगढ़ हाई कोर्ट ने जमानत देने से साफ इनकार करते हुए कहा था कि मारुति मजदूरों को जमानत देने से विदेशी निवेश प्रभावित होगा। मार्च 2017 में गुड़गाँव कोर्ट ने मैनेजर की हत्या के आरोप में 13 मजदूरों को उम्र कैद की सजा सुना दी। जिस मैनेजर ने यूनियन बनवाने में मजदूरों की मदद की थी, उसकी षड्यंत्रबद्ध तरीके से हत्या करवाकर इसका आरोप मजदूरों के सिर पर मढ़ दिया गया। देश की सर्वाेच्च अदालत के दो सदस्य पीठ के जजों ने भी कोई दलील सुने बिना ही मजदूरों को अपराधी घोषित करते हुए जमानत याचिका खारिज कर दी। इन सभी घटनाओं से मजदूरों को अब यह बात समझ में आ गयी थी कि मुनाफे पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था में सरकार मजदूरों की नहीं, बल्कि पूँजीपतियों की होती है।

बर्बर दमन और अपने साथियों को जेल में सड़ता देखकर भी मजदूर पस्त हिम्मत नहीं हुए। वे लगातार संघर्ष करते रहे, तब जाकर लगभग 10 साल बाद अधिकांश मजदूरों को जमानत मिली जबकि उम्र कैद की सजा काटते हुए दो मजदूरों की स्वास्थ्य सम्बन्धी कारणों से मौत हो गयी। अभी कुछ मजदूरों को जमानत नहीं मिली है। मारुति मजदूरों के साथ ही देश भर की अलग–अलग कम्पनियों के मजदूर अपने हक की लड़ाई लड़ रहे हैं और पुलिस के लाठी–डंडे खा रहे हैं। उनका संघर्ष अभी जारी है।