विश्वव्यापी महामन्दी के 10 साल
राजनीतिक अर्थशास्त्र अनुराग मौर्यआज लेहमन ब्रदर्स की दुकान बन्द हुए 10 साल हो गये हैं। 2008 में अमरीका का गृह निर्माण बुलबुला फूट जाने से बाजार धड़ाम से गिर गया था। इस हादसे में 30 लाख अमरीकी बेरोजगार हो गये थे और 50 लाख अमरीकियों ने अपने घर खो दिये थे। बड़े बैंकों के पास खुद के काम करने के लिए डॉलर की कमी हो गयी थी और दूसरों को कर्ज देने के लिए पैसा नहीं बचा था। बैंकों का पूँजी भण्डार गायब हो गया था। वित्तीय गतिविधियाँ लगभग शून्य की तरफ पहुँच गयी थीं। कुल मिलाकर कहें तो अमरीकी अर्थव्यवस्था दिवालिया हो चुकी थी। अमरीका से निकली मन्दी के इस ज्वार से दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाएँ संकट में आ गयी थीं। दुनिया भर के शेयर बाजार भहराकर गिर गये, जिसके चलते 2008 में दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं से अरबों–खरबों की राशि गायब हो गयी थी। इन सबको बीते 10 साल हो गये हैं।
विश्व बैंक समूह और अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे अमरीकी वर्चस्व वाले अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों द्वारा उनके खड़ा करने के लिए कर्ज दिया गया और उसमें भी भारी छूट दी गयी। 2001 के बाद मनमाने तरीके से अर्थव्यवस्था का गुब्बारा फुलाया गया जो 2008 में फूटकर सबके सामने आ गया।
वर्ष 2008 की वैश्विक महामन्दी से निपटने के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण कदम उठाये गये, लेकिन अभी तक सारे उपाय व्यर्थ ही साबित हुए हैं। दुनिया के शीर्ष देशों की स्थिति के बारे में बात करें तो ज्यादातर अर्थव्यवस्थाएँ 2008 की महामन्दी के संकट से अभी नहीं उबर पायी हैं।
अमरीका आज भी तीन तिकड़म के सहारे अपनी वैतरणी पार लगाना चाहता है। अमरीका आर्थिक मजबूती कुछ और नहीं बल्कि महामन्दी के समय फेडरल रिजर्व द्वारा बैलेंस शीट का (ज्यादा डॉलर छाप कर) 2008 से 2016 तक 800 अरब डॉलर से 4.5 खरब डॉलर तक कर लिया जाना है। जबकि 2008 में फेडरल रिजर्व के पास बैलेंस शीट कुल जीडीपी का 7 प्रतिशत (1 खरब डॉलर) से कम थी।
एक दशक पहले चीन को औद्योगिक विकास का इंजन कहा जाता था और उबरते देशों की कतार में सबसे अग्रिम पंक्ति में था। लेकिन आज चीन की अर्थव्यवस्था भी संकटग्रस्त है। इससे निपटने के लिए चीन उदारवादी राजकोषीय नीतियों को लागू कर रहा है और छोटे–मझोले उद्योगों को उबारने के लिए क्रेडिट नीतियों (कूपन काटने वाली व्यवस्था) को अपना रहा है। यूरोप आज भी महामन्दी की भरपाई में ही लगा हुआ है।
बाजारों में निवेश और नये उत्पादों को खरीदने के लिए आवश्यक पूँजी का प्रवाह अभी भी पर्याप्त नहीं है और न ही 2008 की विश्वव्यापी महामन्दी के बाद बेरोजगार हुए लोगों को ही रोजगार दिया जा सका है। एक अनुमान के मुताबिक वर्ष 2018 में पूरी दुनिया में 1.4 अरब से ज्यादा लोग बेरोजगार हैं।
सोवियत संघ के टूट जाने के बाद दुनिया भर के देशों ने अमरीकी नवउदारवादी नीतियाँ लागू की हैं। उदारीकरण वैश्वीकरण के जरिये पूँजी वैश्विक रूप से (लगभग) सभी देशों से नत्थी हो गयी। दुनिया भर की पूँजी को मिलाकर वैश्विक पूँजी का निर्माण किया गया। विकसित देशों ने अपने अतिरिक्त उत्पादन और अतिरिक्त मुनाफे की समस्या को वैश्विक बन जाने दिया। इसके साथ ही विकसित देशों ने अपने अतिरिक्त उत्पादन और अतिरिक्त मुनाफे की समस्या (मन्दी) को हल करने के लिए विकासशील देशों को अपना अगुआ मान लिया।
भारत वैश्विक पूँजी से 1994 में डंकल प्रस्ताव आधारित विश्वव्यापार संगठन से नत्थी हुआ। स्वावलम्बी विकास का रास्ता छोड़कर भारत ने अमरीकी नवउदरवादी नीतियों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। व्यापक जन–विरोधों और देश–काल की विपरीत परिस्थितियों के चलते भारत में डंकल प्रस्ताव को खुलकर लागू नहीं किया जा सका। वर्ष 2008 तक भारतीय अर्थव्यवस्था वैश्विक अर्थव्यवस्था से जुड़ी तो थी लेकिन अभी भी अर्थव्यवस्था के ज्यादातर क्षेत्र विश्व व्यापार संगठन के प्रस्ताव के प्रभाव से अछूते रह गये थे। इसके चलते 2008 में आयी वैश्विक मन्दी का भारतीय अर्थव्यवस्था पर बहुत व्यापक प्रभाव नहीं पड़ा। लेकिन फिर भी विकास का सबसे बड़ा पैमाना शेयर बाजार जनवरी से अक्टूबर तक 21,206 से गिरकर 8,701 पर आ गया था। आनन–फानन में रिजर्व बैंक को रेपो रेट में 3.5 फीसदी और रिवर्स रेपो रेट में 2 फीसदी की कमी करके बैंकिंग प्रणाली में 3,00,000 करोड़ की नकदी उड़ेलनी पड़ी थी। औद्योगिक विकास दर 7 फीसदी से घटकर 1.3 फीसदी तक आ गयी थी। कई कम्पनियों में तालाबन्दी हो गयी थी। कपड़ा और हीरे जवाहरात उद्योग के 20 लाख मजदूर बेरोजगार हो गये थे। ‘द इकोनॉमिक टाइम्स’ के मुताबिक आईटी और बीपीओ में काम करने वाले 23 लाख कर्मचारी बेरोजगार हो गये थे।
भारत के मौजूदा हालात को देखें तो पाते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था गम्भीर और असाध्य बीमारी से पीड़ित है। जिसका एक–एक अंग सड़ांध की तरफ बढ़ रहा है। सरकार एक सेक्टर का इलाज करती है तो दूसरे सेक्टर का कोढ़ फूटने लगता है। पिछले कुछ सालों से भारतीय अर्थव्यवस्था के ज्यादातर क्षेत्रों का रोग सतह पर आने लगा है–– भारत 2015 से ही अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों में अपने को सबसे तेज उभरती अर्थव्यवस्था कहता आ रहा है। जबकि भारत का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 2015–16 में 7.9 फीसदी था जो 2017–18 में गिरकर करीब 6.6 फीसदी पर आ गया है।
एशियाई मुद्राओं में भारतीय रुपये की हालत सबसे खराब है। वैश्विक स्तर पर बढ़ते पेट्रोलियम के दाम, अर्थव्यवस्था से भारी मात्रा में पूँजी निकासी (अमरीकी संरक्षणवाद), भारतीय निर्यात का गिरना और चालू खाता घाटा (1.9 फीसदी तक) बढ़ने के चलते रुपये में बड़ी गिरावट हुई। एक डॉलर 73.34 रुपये का हो गया।
इस वित्तीय वर्ष में भारत का व्यापार घाटा कई वर्षों के निम्नतम स्तर पर जा पहुंचा। वित्त वर्ष 2018 में विदेशी संस्थागत निवेश (एफआईआई) पूरी तरह से नगण्य रहा है। सरकार की लाख कोशिशों के बावजूद निजी निवेश की हालत खस्ताहाल रही है। सार्वजनिक निवेश की भी हालत नदारद है।
10 अक्टूबर 2018 को सेंसेक्स 1,000 अंक गिर गया जिसके चलते भारतीय अर्थव्यवस्था से 5 मिनट में ही 4 लाख करोड़ रुपये डूबे गये। सेंसेक्स का उतार–चढ़ाव एक ऐसा जुआ है जिसमें अरबों–खरबों रुपया एक ही झटके में रसातल में चला जाता है। ऐसी स्थिति में सटोरिया पूँजी को किसी देश के विकास का पैमाना मानना बेहद खतरनाक है।
भारतीय बैंक बुरी तरह से घाटे की चपेट में हैं। “मार्च 2018 को समाप्त तिमाही में सार्वजनिक क्षेत्र के 21 बैंकों का कुल घाटा 62,681.27 करोड़ रुपये था”। “जुलाई–सितम्बर तिमाही में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का कुल घाटा पिछले साल की तुलना में साढ़े तीन गुना बढ़कर 14,716.20 करोड़ रुपये तक पहुँच गया है”। इसका बड़ा कारण सरकार के चहेते पूँजीपतियों का देश से पैसा लेकर भाग जाना और गैर निष्पादित सम्पत्ति (एनपीए) का लगातार बढ़ते जाना है।
सरकार ने नोटबन्दी और जीएसटी लागू करके भारतीय अर्थव्यवस्था के लघु और मध्यम उद्योग से पैसा खींचकर बड़े पूँजीपतियों (इजारेदारी) की तरफ मोड़ दिया। दूरगामी तौर पर देखें तो यह भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बहुत ही बड़ा झटका साबित हुआ। छोटे–मझोले उद्योग तबाह हो गये हैं। इससे बड़ी संख्या में कामगार आबादी बेरोजगारी के कगार पर खड़ी हो गयी है।
वर्ष 2008 के बाद से 2012–13 तक भारतीय अर्थव्यवस्था के कुछ क्षेत्र मन्दी के भवर से निकलने लगे थे। फिर भी ज्यादातर क्षेत्र पूँजी की कमी से जूझ रहे थे। इसके बावजूद सरकारों ने पूँजी का केन्द्रीकरण लगातार तेज किया है, जिससे छोटी अर्थव्यवस्थाएँ तबाही के कगार पर पहुँच गयीं। जिसने पूरी अर्थव्यवस्था के लिए गम्भीर खतरे पैदा कर दिया। 2008 के एक दशक बाद तेजी से किये गये नवउदारवादी सुधारों की वजह से आज भारतीय अर्थव्यवस्था बहुत ही डाँवाडोल स्थिति में है और मन्दी के भवर में डूबती जा रही है।
दूसरी तरफ, पिछले कुछ सालों में भारतीय अर्थव्यवस्था धीरे–धीरे तबाह होती गयी है फिर भी सरकारों ने पूँजी का केन्द्रीकरण करके इजारेदारी को और बढ़ाया है। भारत के एक फीसदी अमीर लोगों के पास कुल पूँजी का संकेन्द्रण 49 फीसदी (वर्ष 2014) से 73 प्रतिशत तक (वर्ष 2017) पहुँच गया है।
यह सब उदारीकरण और अनियमित आर्थिक गतिविधियों के चलते है। उदारीकरण के बाद 2008 में अर्थव्यवस्था के कुछ क्षेत्र जो वैश्विक पूँजी से नत्थी नहीं हो पाये थे वे तत्कालीन रूप से 2008 की मन्दी से बचे रह गये थे। लेकिन 2008 के महामन्दी के बाद से पूँजीपतियों और कारोबारियों का उद्धार करने के लिए पिछले एक दशक में सरकार ने उदारीकरणए निजीकरण और वैश्वीकरण को तेजी से अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में लागू किया है।
भारत की आर्थिक गतिविधियों के वैश्विक व्यवस्थाओं से नत्थी हो जाने का मतलब यह है कि वैश्विक बाजार में होने वाली उथल–पुथल से हम अछूते नहीं रह गये हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था पर गौर किया जाये तो 2008 और 2018 के परिदृश्य कुछ अलग नहीं हैं–– महँगाई अपने चरम पर है। लेन–देन की गतिविधियों को पूरा करने के लिए बाजार में पर्याप्त पैसा नहीं है। छोटे–मझोले उद्योग नकदी की कमी से जूझ रहे हैं। विकास का फर्जी पैमाना शेयर सूचकांक भी अधर में लटक रहा है। कृषि में लगी आबादी आत्महत्या करने को मजबूर है। रोजगार सृजन दर लगभग शून्य है, उलटे नौकरियों में लगे लोग अपनी नौकरियाँ खोते जा रहे हैं। अर्थव्यवस्था को चलाने वाले बड़े पहिये थमने लगे हैं जिसके चलते आर्थिक गतिविधियाँ धीरे–धीरे करके दम तोड़ रही हैं।
देशी पूँजी और वैश्विक पूँजी की लूट से भारतीय मेहनतकश वर्ग की स्थिति नारकीय हो गयी है। अमीरी–गरीबी के बीच की खाई चैड़ी हुई है। 1991 की नयी आर्थिक नीतियों के तहत जनता के कल्याण के लिए सरकार की तरफ से दी जाने वाली सभी आर्थिक सहायताएँ (सब्सिडी) एक–एक करके खत्म की जा रही हैं।
इसके साथ ही तात्कालिक वैश्विक परिघटनाएँ भी भारतीय अर्थव्यवस्था पर फौरी और दूरगामी असर डाल रही हैं। आज सभी अर्थव्यवस्थाएँ अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संरक्षणवाद की नीतियों को बढ़–चढ़कर लागू कर रही हैं–– अमरीका पिछले 2 सालों से संरक्षणवादी नीतियों को अपना रहा है जिसके तहत अमरीकी फेडरल रिजर्व ने ब्याज दरें बढ़ाकर दुनिया भर से डॉलर का प्रवाह अपनी तरफ वापस मोड़ा है। साथ ही अमरीका ने चीन सहित अन्य देशों (जर्मनी, जापान, ईरान, यूरोपीयन संघ) के साथ व्यापार युद्ध शुरू किया है जिससे वैश्विक स्तर पर मुद्रा के प्रवाह, वैश्विक व्यापार और उत्पादन में भारी कमी आ सकती है।
औद्योगीकरण के बाद से ही पूँजीवादी अर्थतंत्र में मन्दी का जन्म हुआ। इससे पहले की व्यवस्थाओं में व्यापार और उत्पादन ऊपर–नीचे तो होता था लेकिन आर्थिक मन्दियाँ नहीं आती थीं और न ही इतने बड़े पैमाने पर लोग तबाह और बर्बाद ही होते थे। इस व्यवस्था के चालकों के पास इसका कोई कारगर इलाज नहीं है। आर्थिक मन्दी जो पहले 10 से 15 साल के अन्तराल पर आती थी। अब इसका अन्तराल छोटा और चिरन्तन हो गया है अर्थशास्त्री इसे ठहराव या ठहरावयुक्त मन्दी के रूप में परिभाषित करते हैं।
मन्दी का यह संकट हर बार पिछले से बड़ी विपत्तियों को जन्म देता है। मन्दी की समस्या को सरकारें और पार्टियाँ बदलकर हल नहीं किया जा सकता। सरकारें और सत्तासीन पार्टियाँ तो हर पाँच साल में बदलती रही हैं। लेकिन पिछले 10 साल से वैश्विक मन्दी का संकट दिनों–दिन विकट होता गया। ढाँचागत संकट होने के चलते इस समस्या का समाधान सिर्फ ढाँचागत बदलाव से ही सम्भव है।
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