–– अनुराग मौर्य 
असम में राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनआरसी) का सर्मथन करनेवाले दो पत्रकार भाइयों ने लिखा कि हमें खुद नहीं पता था कि हम क्या करने जा रहे हैं। हमने शुरू में इसकी कठिनाइयों का अनुमान नहीं लगाया था और बिना यह जाने राज्य के सवा तीन करोड़़ लोगों को उनकी जिन्दगी की सामान्य दिनचर्या, कारोबार और नौकरी से हटाकर नागरिकता की लम्बी लाइन में धक्के खाने के लिए लगा दिया। इसका अहसास हमें बाद में हुआ। वे कहते हैं कि हम नहीं चाहते कि एनआरसी देश के किसी भी हिस्से में लागू किया जाये। क्या वाकई एनआरसी और सीएए इतना पीड़ादायी है? 
असम देश का पहला राज्य है जहाँ एनआरसी लागू की जा चुकी है। राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) की सूची में नाम नहीं होने का मतलब यह है कि आप भारत के नागरिक नहीं हैं। 1951 के बाद वहाँ 2011 से इसका नवीनीकरण शुरू किया गया जिसका मुख्य उद्देश्य राज्य में रह रहे अवैध नागरिकों की पहचान करना था। असम में हुई एनआरसी की प्रक्रिया में कुल 1600 करोड़़ रुपये का सरकारी खर्च आया है। इस खर्च में एनआरसी में लगे 52,000 कर्मचारियों का वेतन–भत्ता शामिल नहीं है। इस हिसाब से पूरे देश में इसे करने में लगभग 3 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का खर्च आयेगा। कुछ संस्थाओं की रिपोर्ट के मुताबिक इसमें असम की जनता का 8000 करोड़ रुपया लगा। यह राशि प्रति व्यक्ति 2 से 2–5 हजार रुपये तक बैठती है। मजदूरों और निचले तबके के लिए यह प्रक्रिया कतई आसान नहीं रही, उन्हंे कई दिन दफ्तरों के चक्कर काटने पड़े, कितने ही अधिकारियों की जेबंे गर्म करनी पड़ीं और सिफारिशंे अलग से। 
असम की पृष्ठभूमि, चाहे वह भाषा हो, संस्कृति और विरासत हो, शुरू से ही अलग रही है। असम 1950 में भारत का हिस्सा बना था। यहाँ बहुत पहले से ही बिहार, बंगाल और आस–पास के प्रदेशों से लोग काम की तलाश में आते रहे हैं, जिसे यहाँ के लोगों ने कभी स्वीकार नहीं किया। आसामी अपनी संस्कृति में किसी का दखल नहीं चाहते थे। नागरिकता संशोधन कानून बनने के बाद इस इलाके में व्यापक पैमाने पर विरोध प्रदर्शन के पीछे भी यही कारण काम कर रहा है। 
सत्तर के दशक में बांग्लादेश के स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान जब पूर्वाेत्तर राज्यों में जनसंख्या समीकरण लगातार बदलने लगा तो 1978 में ऑल असम स्टूडेण्ट यूनियन (आसू) और ऑल असम गण परिषद (एजीपी) संगठनों ने असम में एनआरसी लागू करवाने के लिए जबरदस्त आन्दोलन खड़ा किया था। 1979 से 1985 तक चले इस आन्दोलन ने कई मोड़ लिये, जो आज इतिहास का विषय बन गया है। आन्दोलनों के दबाव में केन्द्र की तत्कालीन कांग्रेस सरकार और आन्दोलन के नेताओं ने मिलकर एक दस्तावेज तैयार किया। इसे ही “असम समझौता” के नाम से जाना जाता है। इस समझौते के तीन मुख्य बिन्दु थे। पहला, 1951 से 1961 के बीच आये नागरिकों को पूर्ण नागरिकता और वोट देने का अधिकार दिया जायेगा। दूसरा, 1961 से 71 के बीच आये नागरिकों को नागरिकता का अधिकार तो होगा लेकिन वोट का अधिकार नहीं दिया जायेगा। तीसरा, 1971 के बाद राज्य में आये लोगों को अवैध नागरिक माना जायेगा और उन्हें वापस भेजा जायेगा। हालाँकि बाद में यह “असम समझौता” ठण्डे बस्ते में चला गया। 
असम में यह मुद्दा 2012 में राजनीतिक पार्टियों द्वारा फिर से गरमाया गया। साम्प्रदायिक नफरत को हवा दी गयी। दंगे का माहौल बनाया गया। इसी दौरान कोकराझार में बंगाली मुस्लिम और बोड़ो आदिवासी समुदाय के बीच साम्प्रदायिक हिंसा में 77 लोग मारे गये। इलाके में कर्फ्यू भी लगा। मामला सुप्रीम कोर्ट में चला गया। लेकिन चुनावी पार्टियों ने इसका दोष अवैध प्रवासियों पर मढ़कर नागरिकता को मुद्दा बना दिया। लोकसभा चुनाव से पहले असम में एक जनसभा को सम्बोधित करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि 16 मई के परिणाम के बाद अवैध प्रवासियों को अपना बोरिया–बिस्तर बाँध लेना चाहिए। 
असम में एनआरसी से क्या मिला? बीजेपी सरकार का दावा था कि असम में एक करोड़़ घुसपैठिये हैं। एक करोड़़ घुसपैठियों का जुमला फेंककर सरकार ने असम सहित पूरे देश में एनआरसी को जायज ठहराया था। जनता की गाढ़ी कमाई को एनआरसी में खपाकर आखिर क्या हासिल हुआ? हम देख सकते हैं कि फाइनल ड्राफ्ट के बाद सिर्फ 19 लाख लोगों का नाम आया, जो अपनी नागरिकता साबित नहीं कर पाये। इनमें लगभग दो तिहाई हिन्दू हैं। यह आँकड़ा खुद सरकार के लिए परेशानी का सबब बन गया। हिन्दुओं का मसीहा बनने वाली मोदी सरकार कैसे लाखों हिन्दुओं को डिटेंशन कैम्प में डाल सकती है? यह सवाल महत्त्वपूर्ण हो गया। सीएए कानून लाने के पीछे कहीं न कहीं असम एनआरसी की भी भूमिका है, ताकि किसी तरह हिन्दुओं को यकीन दिलाया जा सके कि उन्हें देश की नागरिकता से वंचित नहीं किया जायेगा।
इसके अलावा असम एनआरसी में दूसरी ढेरों कमियाँ हैं। इसमें कई परिवार ऐसे हैं जिनके पिता का नाम और बच्चों का नाम तो सूची में है। लेकिन माँ का नाम नहीं है, तो किसी में दादी का नाम नहीं तो कहीं परिवार के मुखिया का नाम ही नहीं है। चाय के बगान में कई पीढ़ियाँ गुजार देने वालों के नाम इस सूची में नहीं हैं लेकिन उनका घर–बार और खेत–खलिहान सब असम में ही है। अब वे कहाँ जायेंगे? 
नागरिकता को साम्प्रदायिक रंग देने से मामला और बिगड़ गया। असम एनआरसी के बाद नागरिकता के मानदण्डों को बदलकर उसे साम्प्रदायिक रंग दे दिया गया। नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 में किये गये बदलाव के मुताबिक अफगानिस्तान, पकिस्तान और बांग्लादेश के हिन्दू, सिख, बुद्ध, जैन, पारसी, ईसाई धर्म के लोगों को तो नागरिकता दी जायेगी लेकिन इस सूची से मुस्लिम समुदाय को अलग कर दिया गया। अगर सवाल वैध या अवैध का है तो उन सभी धर्म के शरणार्थियों के लिए एक समान होना चाहिए जो हमारे देश के नहीं हैं। 
नागरिकता संशोधन अधिनियम–2019 जो अब कानून बन गया है, उसके खिलाफ पूरे देश में आन्दोलन और विरोध प्रदर्शन हो रहा है। लेकिन पूर्वाेत्तर राज्य के विरोध का मुख्य मुद्दा देश के अन्य हिस्सों से अलग है। वहाँ लोग विरोध इसलिए कर रहे हैं कि किसी भी गैर–असमियाँ या गैर–पूर्वाेत्तर राज्य के नागरिक को नागरिकता नहीं दी जानी चाहिए चाहे वह किसी भी धर्म या समुदाय का क्यों न हो। पूर्वाेत्तर राज्य अपनी भाषा–संस्कृति में किसी भी दूसरे समुदाय का दखल नहीं चाहते हैं। 
नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के तहत साल 2014 को सीमा रेखा माना गया है जिसके पहले आये सभी विदेशी हिन्दुओं को नागरिकता दे दी जायेगी। लेकिन असम का मतभेद यहीं से जन्म लेता है। “असम समझौता” के अनुसार सीमा रेखा 1971 तय थी, जिसके अनुसार 71 के बाद आये सभी नागरिकों को अवैध घोषित किया जाना था। नागरिकता के लिए की गयी असम एनआरसी की सारी कवायद बेकार चली गयी है। 2011 से असम की जनता लाइनों में लगकर, दफ्तरों का चक्कर लगाकर, सिफारिश करके, रिश्वत देकर, नौकरी छोड़कर और तमाम दु:ख–तकलीफों को झेलते हुए जिस नागरिकता को प्रमाणित कर रही थी, सीएए लागू होने के बाद वह सब बेकार हो गया। पूर्वाेत्तर के राज्यों की जनता ठगी सी रह गयी। यही वजह है कि असम, मेघालय और त्रिपुरा में आन्दोलन ने बहुत तीखा रूप ले लिया है और शान्त होने का नाम नहीं ले रहा है। असम में पाँच लोगों की मौत हुर्ई, जबकि कुल 144 लोग घायल हुए। इनमें से चार लोगों की मौत पुलिस की गोली से हुई और एक व्यक्ति की अन्य घटना में हुई। सरकार ने विरोध को दबाने के लिए असम और त्रिपुरा के कुछ कस्बों में अनिश्चितकालीन कर्फ्यू लगा दिया और इण्टरनेट सेवाएँ भी बन्द कर दी। ऐसा सिर्फ असम में ही नहीं हो रहा है, यह पूरे भारत में चल रहा है। लेकिन गृहमंत्री कहते हैं कि हम एक इंच भी पीछे नहीं हटेंगे। 
सरकार सीएए, एनआरसी और डिटेंशन सेण्टर को लेकर कई भ्रामक खबरें फैलाती रही है। बीबीसी ने असम के डिटेंशन सेण्टर पर कई वीडियो बनाकर खुलासे किये हैं। ये वीडियो आज भी बीबीसी की वेबसाइट पर उपलब्ध हैं। दरअसल जो लोग अपनी नागरिकता साबित नहीं कर सकते, उन्हें बन्दी बनाकर रखने के लिए ही डिटेंशन सेण्टर बनाये गये हैं। असम का डिटेंशन सेण्टर भयावह है, यह हिटलर के नाजी कन्सेंट्रेशन कैम्प की याद दिलाता है, जहाँ यहूदियों के खिलाफ निर्मम व्यवहार किया जाता था। अब तक असम के डिटेंशन सेण्टरों में लगभग 1000 लोगों को डाला जा चुका हैं, जिसमें से 29 लोगों की मौत हो चुकी है। यह घिनौना और अपमानजनक है।
प्रधानमंत्री मोदी की ऐसी क्या मजबूरियाँ हैं कि उन्हें डिटेंशन सेण्टर के बारे में झूठ बोलना पड़ा? देश में डिटेंशन सेण्टर होने से इनकार करके जनता को क्या सन्देश देना चाहते हैं। कहीं वे देश की जनता को गुमराह तो नहीं कर रहे हैं। दरअसल सभी जानते हैं कि हिटलर के समय डिटेंशन सेण्टर फासीवादियों और बर्बरों का हथियार था और यह इनसानियत को शर्मसार करने वाला है। आज दुनिया जहाँ पहुँच गयी है, ऐसे समय दुनिया की कोई भी सरकार डिटेंशन सेण्टर चलाये, इससे गन्दी और भयावह चीज नहीं मानी जा सकती। लोग डिटेंशन सेण्टर का नाम सुनते ही इसकी तुलना हिटलर के शासन से करने लगते हैं, अपने को इस दाग से बचाने के लिए झूठ बोलना लाजिमी है ताकि देश की जनता को धोखा दिया जा सके और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी छवि साफ की जा सके। सच्चाई यह है कि 2018 में ही मोदी सरकार ने गोलपाड़ा जिले में लगभग 3000 लोगों की क्षमता वाले डिटेंशन कैम्प के लिए 46 करोड़़ रुपये का फण्ड मंजूर किया था। 
देश में एनआरसी और सीएए विवाद शुरू होने से पहले भी सरकार की आर्थिक और सामाजिक नीतियों के खिलाफ विरोध के स्वर उठ रहे थे। सरकार के समर्थक भी इन मुद्दों पर सरकार की आलोचना करने लगे थे। किसान, मजदूर बेरोजगार नौजवान और छात्र अलग–अलग जगहों पर सरकार की नीतियों के खिलाफ खड़े हो रहे थे। लेकिन सरकार ने संविधान विरोधी साम्प्रदायिक विभाजनकारी एनआरसी और सीएए लाकर लोगों के मन में क्षोभ और आक्रोश को भड़का दिया है। असम में एनआरसी की प्रक्रिया पूरी हो चुकी है और पूरे देश में एनआरसी और सीसीए लागू करने की तैयारी जोरों पर है। असम सहित देश भर में जारी जन–आक्रोश और व्याापक जन आन्दोलनों का यही कारण है।