जनवरी में देश के बड़े पूँजीपतियों ने महाराष्ट्र के नये मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के साथ मीटिंग की, जिसमें इस बात पर जोर दिया कि महाराष्ट्र में निवेश के लिए अनुकूल माहौल तैयार किया जाये। उन्होंने चिन्ता जतायी कि विदेशी निवेशक भारत के बजाय वियतनाम में निवेश करना अधिक पसन्द कर रहे हैं। इससे साफ पता चलता है कि भारत में निवेश के जिस स्वर्ग का दावा किया जा रहा था, वह कहीं दिखायी नहीं दे रहा है। अमरीका–चीन व्यापार युद्ध के चलते कई कम्पनियाँ चीन से अपना उद्योग हटाकर दूसरे देशों में ले जा रही हैं। चीन से व्यापार हटाने वाली 56 कम्पनियों में से केवल 3 कम्पनियाँ ही भारत में अपनी पूँजी लगा रही हैं, जबकि 26 कम्पनियाँ वियतनाम, 11 कम्पनियाँ ताइवान और 8 कम्पनियाँ थाईलैण्ड जा रही हैं। भारत का एकाधिकारी पूँजीपति वर्ग जो आत्मनिर्भर विकास के नारे को कूड़ेदान में फेंककर विदेशी पूँजीपतियों का संश्रयकारी बन चुका है, उसे इस बात से काफी झटका लगा है कि भारत के बजाय विदेशी निवेशक वियतनाम, ताइवान और थाईलैण्ड को पसन्द कर रहे हैं। प्रधानमंत्री द्वारा दुनिया भर में घूम–घूमकर विदेशी पूँजी निवेशकों को रिझाने का कुल मिलाकर यही नतीजा है।
विदेशी निवेशकों के लिए भारत में चुनौतियाँ
भारत और चीन श्रम बल, श्रम कानूनों, मजदूरी के मामले में लगभग एक ही स्तर के हैं, फिर भी निवेशकों ने चीन को अधिक पसन्द किया और अब हालत यह है कि वे भारत आने से कतरा रहे हैं और वियतनाम का रुख कर रहे हैं। भारत से श्रम बल और सकल घरेलू उत्पाद के मामले में निचले पायदान पर खडे़ देश बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को आकर्षित करने में कामयाब हो रहे हैं। ऐसा क्यों हो रहा है?
1) सिकुड़ता आन्तरिक बाजार
2014 में जब से भाजपा सरकार केन्द्र की सत्ता पर काबिज हुई है, उसके दो प्रमुख एजेण्डे हैं––—आर्थिक विकास और हिन्दुत्व। आर्थिक विकास का नतीजा यह है कि बेरोजगारी, मन्दी और महँगाई से जनता बेहाल है। इससे लोगों की क्रयशक्ति गिर रही है। नौकरियाँ छिन जाने और वेतन कम हो जाने के चलते जिन लोगों की पहुँच बाजार तक थी, वे भी धीरे–धीरे बाजार से बाहर धकेल दिये जा रहे हैं। भारत में लगभग 12 करोड़़ लोग मध्यम वर्ग में गिने जाते थे, जिनकी पहुँच बाजार तक थी, लेकिन इनकी संख्या में भी तेजी से गिरावट हो रही है। कोई भी विदेशी कम्पनी, जो किसी देश में पूँजी निवेश करती है, उसका ध्यान वहाँ के स्थानीय बाजार पर होता है, यानी निवेश के लिए कम्पनी ऐसा बड़ा बाजार तलाशती है, जहाँ उसका ज्यादा सामान बिक पाये। अगर वह सामान कहीं और बनायेगी तथा बेचने के लिए उसे दूसरा बाजार तलाशना पड़ेगा तो इस अनिश्चित स्थ्तिि के चलते उसे नुकसान होगा। भारत की जनसंख्या 130 करोड़़ से ऊपर हो रही है, लेकिन गरीबी और भुखमरी के चलते 100 करोड़़ से अधिक लोग बाजार से बाहर कर दिये गये हैं। वे बाजार की चमक–दमक से दूर, हासिये पर पडे़ हैं, जिनके लिए देश की आर्थिक गतिविधियों का कोई मतलब नहीं। ये वही लोग हैं, जो रात–दिन पेट भरने और जिन्दा रहने की जद्दो–जहद में नाममात्र की मजदूरी पर खटतेे रहते हैं। भला वे किस तरह विदेशी कम्पनियों को लुभा पायेंगे? 
2) हिन्दुत्व के एजेण्डे से खराब होता सामाजिक माहौल
हिन्दुत्व का एजेण्डा जिसके चलते सामाजिक ढाँचा चरमरा गया है। फिर भी अभी भी यह एजेण्डा सामाजिक धु्रवीकरण और वोट बैंक के लिए लाभदायक सिद्ध हो रहा है। लेकिन उद्योग के नजरिये से देखा जाये तो यह एजेण्डा भारतीय समाज को लगातार कई सालों से अस्थिर बनाये हुए है। भारत में हिन्दू–मुस्लिम के बीच फूट डालने वाली राजनीति आज अपने चरम पर है। भाजपा हिन्दू–मुस्लिम, राष्ट्रवाद, एनआरसी, गोरक्षा, लव–जेहाद जैसे ढेरों मुद्दों से लोगों के दिलों में नफरत का जहर भरती जा रही है। आखिर यह मामला उद्योग को कैसे प्रभावित करता है? इसका एक नमूना यह है कि पिछले दिनों कुछ इलाकों में कई बार और कई दिनों के लिए इण्टरनेट बन्द कर दिया गया। इसके चलते अमरीकी कम्पनियों ने भारत सरकार को अपने करोड़़ों के घाटे का हवाला देते हुए इण्टरनेट बहाल करने को कहा है। इसके अलावा भारत में रोज ही लोग किसी न किसी इलाके में अपने बुनियादी हकों, आर्थिक, राजीनीतिक और सांस्कृतिक माँगों के लिए लड़ रहे हैं। मजदूरों, किसानों, छात्रों, बेरोजगारों के अन्दोलन, तो पिछले दिन बढे़ ही हैं, अब जनता का बड़ा हिस्सा नागरिकता कानून के खिलाफ दिन–रात लड़ाई लड़ रहा है और पुलिसिया दमन भी झेल रहा है। अस्थिरता के ऐसे माहौल में विदेशी कम्पनियाँ भारत में पूँजी लगाने का जोखिम क्यों लेंगी? वे मुनाफे के लिए आती हैं तो घाटा क्यों झेलेंगी? अस्थिरता के ऐसे माहौल में जाने कौन–सी घड़ी में कौन–सा हिटलरी फरमान आ जाये और देश में आग लग जाये, कुछ पता नहीं। यहाँ वही लोग निवेश कर सकते हैं जो अपनी पूँजी डुबोने का जोखिम उठा सकते हों। 
3) देशी–विदेशी पूँजी का अन्तर्विरोध
1990 के बाद से भारत सरकार ने देशी पूँजीपतियों के साथ गठजोड़ करने वाली विदेशी पूँजी को यहाँ आने का न्योता दिया। यह सिलसिला माल बेचने, उद्योग लगाने से शुरू होकर आज शेयर बाजार की सट्टेबाजी तक पहुँच चुका है। देशी विदेशी पूँजी के बीच साँठ–गाँठ का पहलू ही मुख्य है, लेकिन उनके बीच अन्तर्विरोध भी हैं। देशी–विदेशी पूँजी का हित एक–दूसरे से टकराता है। मुनाफे की होड़ में दोनों एक–दूसरे से आगे निकलना चाहती हैं। भारत सरकार विदेशी निवेश के लिए लालायित रहती है और ऐसा वह देशी पूँजी के हित में करती है। लेकिन देशी पूँजीपति देश के बाजार पर अपना नियंत्रण गँवाना भी नहीं चाहते जबकि बढ़ती विदेशी पूँजी धीरे–धीरे बाजार को अपने नियन्त्रण में लेती जा रही है। इसे एक उदाहरण से देख सकते हैं।
हाल ही में अम्बानी ने जिओ–मार्ट लॉन्च करने की घोषणा की। इससे अमेजन और फ्लिपकार्ट से उसका अन्तर्विरोध तीखा हो गया है। दोनों ऑनलाइन व्यापार में अपना दावा ठोंक रही हैं। पिछले दिनों अमेजन ने भारत में एक अरब डॉलर निवेश की घोषणा की। इस पर पीयूष गोयल का बयान आया है कि अमेजन हमें कोई खैरात नहीं दे रही है। दरअसल, अमेजन भारत के ऑनलाइन बाजार पर कब्जा करने के लिए निवेश कर रही है। सरकार खुले मन से भले ही कितना ही विनम्र होकर निवेशकों को आमंत्रण देती हो, लेकिन वह अम्बानी जैसे चहेते पूँजीपतियों के दबाव से मुक्त नहीं हो सकती क्योंकि इन्हीं पूँजीपतियों ने उसे सत्ता के गलियारे तक पहुँचाया है। यही किस्सा जिओ सिम बनाम वोडाफोन और एयरटेल के टकराव का भी है। सरकार ने देशी कम्पनी जिओ को भरपूर फायदा पहुँचाया तथा वोडाफोन और एयरटेल को तबाही के रास्ते पर धकेल दिया। ऐसी घटनाओं के चलते विदेशी निवेशक दूर जा रहे हैं। हालाँकि देश की जनता को लूटने–खसोटने में और पर्यावरण को तबाह करने में देशी–विदेशी पूँजी में से कोई पीछे नहीं है। पिछले 30 सालों में देशी–विदेशी पूँजी के गठजोड़़ ने यह सब कर दिखाया है।
4) छोटे व्यवसायी–दुकानदार और देशी–विदेशी पूँजी के बीच का अन्तर्विरोध 
देशी–विदेशी एकाधिकारी पूँजी के बढ़ते वर्चस्व ने छोटे कारोबारियों और दुकानदारों का धन्धा चैपट कर दिया है। इनकी आर्थिक हालत बद से बदतर होती जा रही है। हाल ही में दिल्ली में इन्होंने एक संगठित रैली की है। उन्होंने सरकार की आर्थिक नीतियों और ऑनलाइन कारोबारी कम्पनियों–– अमेजन और फ्लिपकार्ट के खिलाफ प्रदर्शन किया। व्यापारियों ने ‘अमेजन गो बैक’ के नारे भी लगाये। दूसरी तरफ अमेजन के मालिक जेफ बेजोस ने एक अरब डॉलर तक का निवेश करने की घोषणा कर दी है। ऐसे में छोटे व्यवसायियों और दुकानदारों को खुश करने तथा अपने राजनीतिक आधार को बचाने के लिए सरकार के मंत्री पीयूष गोयल ने कहा है कि अमेजन हम पर कोई अहसान नहीं कर रही है। साथ ही पिछले दिनों सरकार ऑनलाइन बाजार पर निगरानी रखने के लिए ई–कामर्स के नये नियामक को लेकर आयी हैं, जिससे विदेशी पूँजी के व्यापार पर नियंत्रण रखा जा सके। बड़े कारोबारियों का कहना है कि इससे निवेशकों पर बुरा असर पड़ेगा। वे अपना निवेश यहाँ से लेकर जा भी सकते हैं। ऊपरी तौर से देखें तो सरकार का बयान और नया नियामक छोटे व्यवसायियों और दुकानदारों को खुश तो जरूर करता है लेकिन सरकार की पूरी कवायद जिओ–मार्ट के लिए रास्ता साफ करने के सिवा और कुछ नहीं है। हालाँकि छोटे दुकानदारों के लिए जिओ–मार्ट और फ्लिपकार्ट में बस भूतनाथ और पिचाशनाथ भर का ही फर्क है। 
5) श्रम उत्पादकता और कार्यकुशलता का निचला स्तर 
हमारे देश की जनता के बड़े हिस्से में वैज्ञानिक चेतना के बजाय अंधविश्वास, कूपमण्डुकता, क्षेत्रवाद, जातिवाद, साम्प्रदायिकता, ऊँच–नीच की दुर्भावना भरी हुई है। लोगों को समय का मूल्य पता नहीं, बेकार के अनुत्पादक कामों में अपना समय नष्ट करते रहते हैं। उनका दृष्टिकोण भी व्यवसायिक नहीं है और उनके शिक्षण–प्रशिक्षण का स्तर भी खराब है। यह सब यहाँ की राजनीति की देन है जो अपने निहित स्वार्थों के चलते जनता में प्रगतिशील और वैज्ञानिक नजरिया देने का प्रयास नहीं करती, बल्कि उनकी चेतना को कुन्द करने का ही काम करती है। इन्हीं वजहों से भारत में श्रम उत्पादकता काफी कम है। वियतनाम, थाईलैण्ड और ताइवान के मुकाबले हमारे देश में श्रमिकों की संख्या तो कई गुना अधिक है, लेकिन मजदूरों की कार्यकुशलता कम आँकी जाती है। इसके चलते भी उत्पादन के क्षेत्र की विदेशी कम्पनियाँ भारत के बजाय दूसरे देशों को अधिक महत्त्व देती हैं।
6) मजबूत आर्थिक ढाँचें का न होना 
भारतीय अर्थव्यवस्था आज मन्दी की शिकार है। आज सरकार के पास न तो सशक्त आर्थिक ढाँचा है और न ही कारगर नीतियाँ जिससे वह मन्दी से देश को उबार सके या कम से कम मुकाबला ही कर सके। अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों, जैसे–– विनिर्माण, भवन–निर्माण, खेती और सेवा क्षेत्र सभी की हालत देखकर ऐसा लगता है कि इन्हें लकवा मार गया हो। बैंकिंग व्यवस्था पूरी तरह तबाह हो गयी है। बड़े उद्योगों के सहयोगी, पार्ट–पुर्जा बनाने वाले उद्योग भी तबाही के कगार पर हैं। 
इसके साथ ही कुछ और समस्याएँ भी विदेशी पूँजी को रिझाने में बाधक हैं। हालाँकि सरकार ने इस दिशा में एड़ी–चोटी का पसीना एक करके कई बदलाव किये हैं। उदाहरण के लिए सरकार ने देशी–विदेशी पूँजी के हित में श्रम कानूनों को बहुत ही निरर्थक बना चुकी है। अर्थव्यवस्था के कई क्षेत्रो में सौ प्रतिशत एफडीआई को मंजूरी भी दे चुकी है। विनिवेश की सीमा भी बढ़ाती जा रही है। कारपोरेट टैक्स में कमी, सस्ती दर पर बिजली, पानी, जमीन, सड़क मुहैया कराना और पूँजी की सुरक्षा की गारण्टी करना भी विदेशी पूँजी को रिझाने के ही प्रयास हैं। विदेशी पूँजी की राह में लाल कालीन बिछायी गयी और अपना घर–बार छोड़़कर पीएम मोदी करोड़़ांे रुपये कुर्बान करके दुनिया भर में उसे बुलाने गये। लेकिन वह बेवफा आयी नहीं। शीर्ष उद्योगपतियों का भी यही मानना है कि निवेश के लिए अनुकूल माहौल नहीं बन पा रहा है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के यहाँ जाकर मुकेश अम्बानी, टाटा, कल्याणी और अन्य शीर्ष उद्योगपतियों द्वारा अपना दुखड़ा रोने से ऐसा लगता है जैसे शिकायत की सुनवाई शीर्ष अदालत में नहीं हुई तो वह मामले को डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में ले गये हों, क्योंकि ये सभी पीएम मोदी के करीबी और चहेते रहे हैं। अनुकूल माहौल की सिफारिश तो वहाँ करनी चाहिए थी। लेकिन लगता है उनको मनचाहा फल नहीं मिल रहा है और अब पूँजीपति नये चेहरों को अपना पोस्टर बॉय बनाना चाहते हैं।