भारत में विस्थापन की समस्या साल–दर–साल और विकराल रूप लेती जा रही है। संयुक्त राष्ट्र के एक रिपोर्ट में बताया गया कि में भारत में पिछले साल 28 लाख लोग विस्थापित हुए। इसके दो मुख्य कारण हैं। पहला है–– आपदाओं के चलते कुल 24 लाख लोगों को विस्थापन का शिकार होना पड़ा है और दूसरा है–– पहचान, जातीय और धार्मिक संघर्षों, हिंसा और बढ़ते युद्धोन्माद के चलते कुल 4 लाख 48 हजार लोग विस्थापित हुए हैं। विस्थापन की समस्या से प्रभावित देशों में भारत का स्थान तीसरा है।   

भारत में सूखा सम्भावित क्षेत्र 68 प्रतिशत है। भूकम्प से प्रभावित क्षेत्र 60 प्रतिशत और 75 प्रतिशत तटीय हिस्से चक्रवात और सुनामी से प्रभावित हैं। प्राकृतिक आपदाओं और तेजी से होते जलवायु परिवर्तन के चलते देश के कई हिस्सों में हालात ऐसे हो गये हैं कि इन जगहों पर लोगों के लिए गुजर–बसर करना बेहद मुश्किल है। बुन्देलखण्ड, लातूर, मराठवाड़ा और विदर्भ के इलाके ऐसे हैं, जहाँ भयंकर सूखे के चलते इन इलाकों में लोग दाने–दाने को मुहताज हो गये। जिन्दगी की जद्दोजहद में यहाँ के लोगों को अपनी जमीन से विस्थापित होना पड़ रहा है।

भारत में आर्थिक असमानता के चलते आज भी कई ऐसे इलाके हैं, जो बेहद गरीब हैं, जो सुविधाओं और सुरक्षाओं के अभाव में हैं। शहर और गाँव के बीच का अन्तर बहुत बड़ा है। असमान विकास के चलते गाँव में रोजगार और जीविका के साधन न के बराबर है। इसके चलते लोग गाँवों से उजड़कर शहरों में विस्थापितों की जिन्दगी जीने को मजबूर हो गये हैं। विस्थापितों के सामने आजीविका, क्षेत्रवाद, जातिवाद और पहचान का सवाल विकट रूप में सामने खड़ा हो जाता है। जैसे–– मुम्बई में बसने वाले पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के कामगारों और विस्थापितों को महाराष्ट्र से निर्वासित करने के लिए राज ठाकरे ने मराठी बनाम बिहारी आन्दोलन चला रखा है। पिछले दिनों गुजरात की घटना से हम सभी वाकिफ हैं। गुजरात में बिहार और उत्तर प्रदेश के कामगारों को पकड़कर पीटा गया। उन्हें गुजरात छोड़ने की धमकियाँ दी गयीं।

विकास के नाम पर हर वर्ष जमीन अधिग्रहण की जाती हैं, जैसे–– बाँध–निर्माण के लिए, रेल–लाईन, सड़क–निर्माण, रीयल स्टेट, खनन, राष्ट्रीय राजमार्ग, औद्योगीकरण और स्पेशल इकोनोमिक जोन (सेज) और अन्य कारणों के चलते भारी संख्या में आदिवासी किसान और गाँव केे मजदूर विस्थापित हो रहे हैं। आजादी के बाद से 2004 के बीच लगभग 6 करोड़ लोग विस्थापित हुए हैं। इनमें 40 प्रतिशत आदिवासी और 20 प्रतिशत अनुसूचित जातियों के लोगों को विकास और औद्योगीकरण की बलि–वेदी पर चढ़ा दिया गया। उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और झारखण्ड में कोयला, लौह–अयस्क और अन्य खनिज पदार्थ भारी मात्रा में पाये जाते हैं। यहाँ से लूट तभी सम्भव है, जब यहाँ के आदिवासियों को विस्थापित किया जाये। नन्दीग्राम, सिंगूर, नियमगिरि, काशीपुर और देश के कई दूसरे हिस्सों में सेज के नाम पर लोगों की जमीनों का अधिग्रहण किया गया। इस लूट के खिलाफ जनता के आन्दोलन आज राष्ट्रीय स्तर पर चल रहे हैं।

2011 की जनगणना के अनुसार, उत्तराखण्ड में वीरान हो चुके गाँवों की संख्या तेजी से बढ़ी है। पिछले सात सालों में 700 से ज्यादा गाँव वीरान हो चुके हैं। अब यहाँ कोई नहीं रहता। इन्हें भुतहा गाँव के नाम से जाना जाता है। पिछले दस सालों में 3–83 लाख लोगों ने गाँव छोड़ दिया है। इनमें से 50 प्रतिशत लोगों ने आजीविका की तलाश में गाँव को छोड़ा है। ज्यादातर लोग गाँव छोड़ कर रिश्तेदारों के यहाँ चले गये। उत्तराखण्ड के दूर–दराज के गाँवों में बिजली की समस्या, स्कूल की समस्या और आजीविका की समस्या मुख्य है। इसके चलते लोगों का पलायन तेजी से बढ़ा है।

पिछले सौ सालों में चन्द मुट्ठीभर लोगों ने अपने मुनाफे की हवस में पर्यावरण को विनाश के कगार पर पहुँचा दिया है। इसके चलते तापमान में वृद्धि, बाढ़, बिन मौसम बरसात, बादल फटने जैसी आपदाएँ लगातार बढ़ रही हैं। इसके चलते भी लोगों को विस्थापन का शिकार होना पड़ा है। लाखों लोग रोजगार के अभाव में गाँव से शहरों की तरफ आते गये हैं। वे शहरों में  ठेला–खोमचा लगाते हैं या छोटी–मोटी मजदूरी करके जिन्दगी गुजारते हैं। इनके पास न रहने के लिए घर है और न पेट भरने के लिए अनाज।