मौजूदा सरकार जिस एक काम का प्रचार सबसे जोर–शोर से करती है वह है देश में बन रही सड़कें। लेकिन जिस संस्था से सरकार यह काम करवाती है उसका भट्ठा बैठ चुका है। देश में सड़क निर्माण का काम नेशनल हाईवे अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एनएचएआई) करती है। यह एक स्वायत्त संस्था है जो सरकार द्वारा बजट में आवंटित राशि और बाजार से कर्ज उठाकर देश में सड़कें बनाती है। पिछले दो साल से सरकार ने एनएचएआई को बाजार से कर्ज लेने से रोक रखा है। सड़क और परिवहन मंत्री का कहना है कि एनएचएआई पर कोई संकट नहीं है और सड़क निर्माण तेज रफ्तार से आगे बढ़ रहा है, लेकिन आँकड़े बताते हैं कि सड़क निर्माण की गति पिछले चार साल में आधी रह गयी है और अगर एनएचएआई पर कोई संकट नहीं है तो उसे कर्ज लेने से क्यों रोका जा रहा है। पिछले 2 साल से एनएचएआई केवल बजट में आवंटित राशि से काम चला रही है और उस राशि का भी अधिकांश हिस्सा कर्ज का ब्याज चुकाने में जा रहा है। सवाल है कि आखिर एनएचएआई कर्ज के इतने बुरे दुष्चक्र में कैसे फँसी?

दरअसल, सरकार ने एनएचएआई को पीपीपी यानी सार्वजनिक निजी साझेदारी मॉडल के तहत काम करने के निर्देश दे रखे हैं। निजीकरण को आसान बनाने के लिए ईजाद किया गया पीपीपी मॉडल अपनी शुरुआत से ही निजी पूँजीपतियों के लिए फायदे का सौदा रहा है। इस मॉडल के प्रत्येक उदाहरण में खर्च का अधिकतम हिस्सा सरकार के पाले में रहता है जबकि मुनाफा पूँजीपति बटोरते हैं। यही खेल एनएचएआई में हो रहा है। सड़क निर्माण के लिए भूमि अधिग्रहण का सारा खर्च एनएचएआई को उठाना पड़ता है। 2013 के बाद से भूमि अधिग्रहण की लागत सालाना 30 फीसदी की दर से बढ़ी है। भूमि अधिग्रहण के बाद सड़क बनाने की लागत में निजी बिल्डर कम्पनी केवल 60 फीसदी खर्च वहन करती हैं, बाकी का 40 फीसदी खर्च भी एनएचएआई को वहन करना पड़ता है। किसी सड़क पर अगर टोल संग्रह कम रह जाये तो एनएचएआई को एक तय राशि भी साझेदार निजी कम्पनी को चुकानी पड़ती है। मतलब निजी पूँजीपति अपने निवेश को चौतरफा सुरक्षित करके ही काम शुरू करते हैं जिसके चलते एनएचएआई को लगातार कर्ज लेना पड़ा है। पूँजीपतियों के मुनाफे को बरकरार रखने के चक्कर में एनएचएआई के कर्ज में पिछले आठ साल में चौदह गुना की बढ़ोतरी हुई है। आज एनएचएआई पर 3.48 लाख करोड़ का कर्ज है। कर्ज के इस भारी बोझ को उतारने के लिए सरकार ने एनएचएआई को निर्देश दिये हैं कि वह बनी हुई सड़कों को निजी क्षेत्र को किराये पर देकर या बेचकर पैसे जुटाये। पूरे देश की सम्पत्तियों को चुन–चुन कर पूँजीपतियों के हवाले करने के लिए लायी गयी “राष्ट्रीय मुद्रीकरण पाइपलाइन योजना” में भी सरकार ने एनएचएआई को सबसे ज्यादा पैसा जुटाने का लक्ष्य दिया है। इसका मतलब यह हुआ कि सरकार चाहती है कि अब एनएचएआई सड़क निर्माण का काम छोड़कर सड़क बेचने का काम करे। इसी वजह से एनएचएआई सड़कों को तेजी से बेच भी रही है। सड़क निर्माण में अंधी लूट करने के बाद सड़क का अधिकांश इस्तेमाल भी पूँजीपति खुद ही करते हैं। यह बात भारत के टोल संग्रह राशि के आँकड़ों से साफ हो जाती है। भारत में होने वाले कुल टोल संग्रह का 75 फीसदी ट्रकों से आता है। ट्रकों के जरिये ही पूँजीपति अपने माल का बड़ा हिस्सा देश के एक कोने से दूसरे कोने में भेजते हैं। यह काम आसानी से होता रहे, इसीलिए सरकार का सड़क निर्माण पर इतना जोर है।

इससे साफ पता चलता है कि एक और सरकारी संस्था पूँजीपतियों के मुनाफे की हवस की पूर्ति के लिए कर्ज में डूबो दी गयी है। इस कर्ज का बोझ घूम–फिर कर जनता के सिर पर ही आएगा। अपनी ऐसी मक्कारियों को छुपाने के लिए ही सरकार ने जनता को हिन्दू–मुसलमान का झुनझुना पकड़ा रखा है।