पिछले साल जुलाई में ‘बायजू क्लासेज’ नामक ऑनलाइन एजूकेशन कम्पनी ने 7300 करोड़ रुपये में ‘आकाश इंस्टीट्यूट’ नामक एक कोचिंग संस्थान को खरीद लिया। आकाश इंस्टीट्यूट इंजीनियरिंग और मेडिकल की प्रवेश परीक्षाआंे की तैयारी करवाने वाला नामी–गिरामी कोचिंग संस्थान है। इसके 205 सेन्टर हैं और कुल सालाना कारोबार 1200 करोड़ रुपये का है। इस सौदे को शिक्षा उद्योग का सबसे बड़ा सौदा बताया जा रहा है। इसे खरीदने वाली कम्पनी को इसके मालिक बायजू रविन्द्रन ने साल 2011 में बायजू क्लासेज नाम से स्थापित किया था। यह कम्पनी साल 2015 में अपना मोबाइल एप्प बनाकर ऑनलाइन एजूकेशन के क्षेत्र में उतरी और आज वह 24,300 करोड़ रुपये की मालियत वाली कम्पनी है।

इसके अलावा बायजू लगभग 10 ऑनलाइन एजूकेशन प्लेटफार्म और खरीद चुकी है। इन शिक्षा कम्पनियों का अधिग्रहण करके बायजू स्कूली शिक्षा और कोचिंग के क्षेत्र में एकाधिकार करने की तरफ बढ़ गयी है। आज बायजू के 10 करोड़ से अधिक पंजीकृत छात्र छात्राएँ हैं जिन्हें नर्सरी से बारहवीं तक हर विषय की पढ़ाई से लेकर इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेजों की प्रवेश परीक्षाओं तक की तैयारी अकेले ही कराने में वह सक्षम है। पहली नजर में सामान्य लगने वाले यह समझौते असल में गहरे मायने रखते हैं। वैसे तो कॉरपोरेट क्षेत्र में कम्पनियों की आपसी खरीद–फरोख्त आम बात है लेकिन अगर कोई पूँजीपति शिक्षा जैसी बुनियादी जरूरत के क्षेत्र में एकाधिकार कायम कर ले तो यह बेहद खतरनाक है।

दरअसल शिक्षा अपने मूल स्वभाव में सामाजिक गतिविधि है। बच्चा सामाजिकता का पहला पाठ स्कूल में ही पढ़ता है। हालाँकि मौजूदा दौर में शिक्षा को अपने इस उद्देश्य से दूर करके रोजगार और कैरियर बनाने के एक माध्यम तक ही सीमित कर दिया गया है। समाज में यह बात स्थापित कर दी गयी है कि जिस बच्चे के शैक्षिक अंक कम रह गये उसका भविष्य अंधेरे में है। इससे अभिभावकों में यह डर बैठ गया है कि कहीं उनके बच्चे भविष्य की इस दौड में पिछड़ ना जाये। भयावह बेरोजगारी के दौर में यह डर रोज सच साबित होना ही है। इस डर को ही आज बायजू जैसी कम्पनियाँ सिक्कों में ढाल रही हैं। अभिभावक नर्सरी से ही बच्चों को ट्यूशन में झोंक दे रहे हैं। नर्सरी से बारहवीं तक की पढ़ाई कोचिंग की बैसाखी के सहारे पूरे करने वाले छात्र जब उच्च शिक्षा के लिए नाम मात्र के अवसरों के लिए मेडिकल, प्रबन्धन, इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षाओं या न के बराबर सरकारी नौकरियों के लिए होने वाली प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करते हैं तो उनके लिए कोचिंग की ललक और जरूरत दोनों चरम पर पहँुच जाती है। अभिभावक भी शिक्षा व्यवस्था की इस असफलता और अवसरों की बेइन्तहा कमी के चलते हर कीमत पर बच्चों का भविष्य सुरक्षित करने की उम्मीद में अपनी गाढ़ी कमाई इसमें लगा देते हैं।

बाजारू शिक्षा का यह रोग समाज में पिछले दशकों में बहुत फैलाया गया है। आजादी के बाद से 1990 तक देश सरकारी शिक्षा के दम पर आगे बढ़ा। उस समय तक निजी कोचिंग का कोई खास चलन नहीं था बल्कि उसे दोयम दर्जे की निगाह से देखा जाता था। 90 के दशक में शिक्षा के इस क्षेत्र को निजीकरण के हवाले करते हुए दावा किया गया था कि इससे शिक्षा की गुणवत्ता की कमी दूर होगी। यह समाधान समस्या से भी घातक सिद्ध हुआ। एक तरफ इससे साल दर साल सरकारी स्कूलों की हालत गिरती चली गयी वहीं दूसरी ओर तेजी से निजी स्कूलों के रूप में शिक्षा की दुकानें खुलती चली गयीं। 1990 में सरकार जीडीपी का 3–8 फीसदी शिक्षा पर खर्च करती थी जो अब घटकर बामुश्किल 3 फीसदी रह गया है।

सेण्ट्रल स्क्वेयर फाऊन्डेशन की हालिया रिपोर्ट के अनुसार 1978 में देश के 3–4 फीसदी स्कूल ही गैर सरकारी थे। यह अनुपात 2017 तक आते–आते 35 फीसदी तक पहुँच गया। देश के 50 फीसदी से अधिक बच्चे इन्हीं स्कूलों में पढ़ते हंै। अभिभावकों को हर महीने औसतन 3000 रुपये एक बच्चे की शिक्षा के नाम पर निजी स्कूलों को देने पड़ रहे हैं। इसके बावजूद आज भारत में 25,000 करोड़ का कोचिंग उद्योग है। शिक्षा के बाजारीकरण की ऐसी मिसाल शायद ही कोई और मिले।

कोचिंग प्रवृत्ति बढ़ने की एक वजह अधिकांश सरकारी व निजी स्कूलों में शिक्षा की घटिया गुणवत्ता भी है। अधिकांश निजी स्कूलों की हालत यह है कि उनमंे 10–12 हजार वेतन पाने वाले वह नौजवान पढ़ा रहे है जो दर्जनों डिग्रियों के बावजूद स्थायी रोजगार नहीं पा सके हैं। खुद मानसिक तनाव और अवसाद में जीने वाले यह नौजवान गुणवत्तापरक शिक्षा दे पाये यह सम्भव ही नहीं है। ऐसे निजी स्कूल केवल होमवर्क देने तक सीमित हैं। वहीं सरकारी स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं का अकाल है। पाठ्य पुस्तकंे भी आधा सत्र बीत जाने तक पहुँचती हैं। शिक्षकों की भारी कमी है। देश के एक लाख से अधिक स्कूल केवल एक शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं। जो शिक्षक हैं भी, उन्हें सरकार वोट बनाने और सर्वे करने में ही उलझाए रखती है। इस सब का कुल नतीजा यह निकलता है कि विद्यार्थी शिक्षा से वंचित रह जाते हैं और कोचिंग की ओर भागते हैं। इससे वाकिफ बायजू क्लासेज जैसी कम्पनियाँ इस स्थिति का इस्तेमाल अपना धन्धा चमकाने के लिए करती हैं। बायजू देश के निजी स्कूलों से सीधे समझौते करके बच्चों को अपनी सेवा देने के लिए मजबूर कर रही है। स्कूल का प्रबन्धन खुद अभिभावकों से इनके कोर्स खरीदने के लिए कहता है।

दरअसल आज की पूरी पीढ़ी भविष्य को लेकर भयानक तनाव की शिकार है। आगे बढ़ने के अवसरों की कमी ने समाज में गला काट प्रतियोगिता को बढ़ावा दिया है और किसी भी कीमत पर प्रवेश परीक्षा पास करने की चाह को ही बायजू क्लासेज जैसी कम्पनियाँ अपने उद्योग के लिए भुना रही हैं। यह दबाब इस हद तक पहुँच गया है कि भारत में लगभग हर घण्टे में एक छात्र आत्महत्या कर रहा है।

कोचिंग की प्रवृत्ति बढ़ने की एक अन्य वजह छात्रों का “विज्ञान वर्ग” के विषयों को चुनना और “मानविकी” के विषयों जैसे समाज शास्त्र, राजनीति शास्त्र, दर्शन शास्त्र आदि के प्रति हीन भाव रखना है। आज समाज में यह धारणा अपनी जड़ जमा चुकी है कि जीवन में अगर आगे बढ़ना है तो विज्ञान वर्ग के विषय ही पढ़ने होंगे और मानविकी के विषय तो कमजोर बौद्धिक क्षमता वाले बच्चों के लिए होते हैं। इसलिए बहुत सारे बच्चे रुचि न होते हुए भी इस दबाब के चलते विज्ञान वर्ग के विषय पढ़ते हैं और फिर उसमें अधिक अंक प्राप्त करने के लिए कोचिंग करते है।

कोचिंग संस्थान विद्यार्थी को तार्किक बनाने के बजाय “लकीर का फकीर” और गणना करने वाली मशीन बना देने चाहते हंै। छात्रों को एक ही तरह की गणनाओं का इतनी बार अभ्यास करवाया जाता है कि वे “मानव मशीन” में तब्दील होते चले जाते हैं और समाज से अपना जैविक रिश्ता काट लेते हंै। समाज के लिए जितने जरूरी विज्ञान वर्ग के विषय हैं उतने ही जरूरी मानविकी के विषय भी है। अगर विज्ञान हमें नये औजार और तकनीक मुहैया कराता है तो उस तकनीक और औजार का इस्तेमाल मानवता के खिलाफ करना है या हित में करना है यह समझ मानविकी के विषयों से ही पैदा होती है। लेकिन कोचिंग कम्पनियों को इस बात से कोई सरोकार नहीं है। वह चाहती ही नहीं कि यह समझ बच्चों में पैदा हो। कोचिंग से पढ़ाई करके निकलने वाले बच्चे जीवन में “हुक्म के गुलाम” साबित होते हैं।

बायजू क्लासेज जैसी कम्पनियों का बढ़ता एकाधिकार बहुत जल्द ही स्कूलों को निगल जाएगा। स्कूल और कॉलेज केवल डिग्री और सर्टिफिकेट देने के साधन मात्र रह जाएँगे। पहले ही साधारण आदमी की पहुँच से दूर हो चुकी शिक्षा और दूर चली जाएगी। शिक्षा जो कभी सरकार के जिम्में थी उसे शातिराना ढंग से बायजू क्लासेज जैसी कम्पनियों के हवाले किया जा चुका है। इन कम्पनियों का नारा है “पढ़ों उतना परीक्षा में आये जितना।” इन कोचिंग संस्थानों के पढ़ाने के तरीकों के चलते छात्रों का वैज्ञानिक नजरिया विकसित नहीं हो पा रहा है। होशियार से होशियर छात्र भी वैज्ञानिक बनने के बजाय उच्चे दर्जें का तकनीशियन बनने तक ही सीमित रह जाता है। तकनीशियनों की फौज ही बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए मुनाफा निचोड़ने का असली औजार बनती है। देश की शिक्षा कॉरपोरेट केन्द्रीत हो चुकी है। यह समाज के लिए किसी अभिशाप से कम नहीं है।