पूरी दुनिया पर कोविड–19 का साया मण्डरा रहा है। हर प्रकार के सर्दी–जुकाम के लिए जिम्मेदार “कोरोनावायरस” नामक विषाणु–परिवार के इस वायरस का असल नाम “सार्स–कॉव–2” है। इस बीमारी ने दुनिया में खास तौर पर अमीर और विकसित देशों को अपना निशाना बनाकर उनकी कमर तोड़ दी है। लेकिन भारत में भी यह बीमारी अब भयानक रफ्तार से बढ़ती जा रही है। इससे निपटने के लिए सरकार तीन लॉकडाउन कर चुकी है। पूरा देश ठप्प है। दुनिया के अधिकतर देशों की ही तरह भारत में भी इस वायरस को लाने वाले अमीर और उच्च वर्ग से लोग हैं, इनसे भी ज्यादा जिम्मेदार वह सरकार है जिसने इन्हें समाज से अलग रखने की जरूरत ही महसूस नहीं की।

कोविड–19 के इलाज के लिए अभी तक कोई वैक्सीन या दवाई वैज्ञानिक नहीं खोज पाये हैं। हालाँकि भारत की अधिकांश जनता तो सैकड़ों ऐसी बीमारियों से मरने को मजबूर है, जिनका इलाज सम्भव है। इसलिए जनता के लिए तो ये बीमारियाँ भी किसी लाइलाज महामारी से कम नहीं हैं। हमारे देश में बीमारी के खिलाफ लड़ने में भी भेदभाव नहीं है, क्या हर बीमारी से इतनी ही मुस्तैदी से नहीं लड़ा जाना चाहिए, जितना कोविड–19 से लड़ा जा रहा है। मिसाल के लिए भारत में सबसे ज्यादा कहर बरपाने वाली कुछ बीमारियाँ हैं–– हृदय रोग, डायरिया, टीबी, कैंसर, डेंगू, मलेरिया, आदि। भारत में लगभग पाँच लाख लोग हर साल कैंसर से मर जाते हैं। दुनिया में कैंसर से होने वाली मौतों में भारत सबसे आगे है। टीबी के मामले में भी ऐसा ही है। यह रोग हर साल चार लाख से ज्यादा भारतीयों को अपना शिकार बना रहा है। हालाँकि अधिकतर अमीर और विकसित देशों में टीबी गुजरे जमाने की बीमारी बन चुकी है, लेकिन भारत में आज भी यह बीमारी सबसे ज्यादा लोगों को अपना शिकार बनाती है। डायरिया भी एक ऐसी ही बीमारी है, यह हर साल पाँच साल से कम उम्र के लगभग एक लाख बच्चों की मौत का कारण बनती है। मच्छर के काटने से होने वाला डेंगू ऐसी बीमारी है जिसे अफ्रीका और दक्षिण अमरीका के छोटे–छोटे देश भी खत्म कर चुके हैं लेकिन भारत में हर साल यह हजारों लोगों को अपनी चपेट में ले लेता है। कमोबेश यही हाल हर बीमारी का है। इन बीमारियों में से अधिकतर के फैलने का कारण भरपेट पौष्टिक भोजन न मिलना और स्वच्छ आबो–हवा में न रहना है। इन कारणों को खत्म करने के गम्भीर प्रयास किसी सरकार ने नहीं किये हैं।

इन साधारण बीमारियों से वही लोग मरते हैं, जो सबसे ज्यादा आजीविका संकट का सामना करते हैं और समाज के आर्थिक रूप से पिछड़े तबके से आते हैं। लेकिन भारत सरकार इन बीमारियों के खिलाफ वैसा मोर्चा लेती हुई नहीं दिखती, जैसा कोविड–19 के खिलाफ लेती दिखायी दे रही है। सरकारी तंत्र का पूरा अमला आज जितना मुस्तैद दिखाई दे रहा है, उतना पहले कभी नहीं देखा गया भले ही प्रयास दिखावटी हो। शायद इसकी वजह यह है कि पूरी दुनिया की ही तरह भारत में भी इसके पहले शिकार, रसूखदार और आर्थिक रूप से सम्पन्न लोग हुए हैं, जिनकी सेवा के लिए पूरा तंत्र काम करता है।

जब इतनी मुस्तैदी के बावजूद भी सरकार न तो पर्याप्त मात्रा में टेस्ट कर पायी और न ही डॉक्टरों को पर्याप्त मात्रा में “व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण” यानी पीपीई उपलब्ध करवा पायी तो जनता का ध्यान भटकाने के लिए कोविड–19 के संक्रमण के फैलाव को हिन्दू–मुस्लिम का शर्मनाक साम्प्रदायिक रंग दे दिया गया और बीमारी के फैलाव का सारा ठीकरा एक खास समुदाय के सिर पर फोड़ने की कोशिश की।

जबकि असल कारण यह था कि सरकार के पास किसी भी बिमारी से निपटने के लिए कोई स्वास्थ्य ढाँचा है ही नहीं। इस देश में कोरोना के आने से बहुत पहले ही इलाज मोटा मुनाफा देने वाला धन्धा बन चुका है। कुकुरमुत्ते की तरह हर गली मोहल्लों में जो निजी नर्सिंग होम उग आये थे वे इस संकट की घड़ी में अपने दरवाजे बन्द करके भाग गये। दूसरी तरफ बडे़–बड़े सरकारी अस्पताल इसलिए बेकार हो गये क्योंकि उनका इलाज महँगा है कि 80 फिसदी आबादी उसे वहन ही नहीं कर सकती। सरकारी अस्पतालों पर पहले ही इतना बोझ कि वे चाहकर भी संतोषजनक इलाज नहीं दे सकते। अगर हमारे देश में आबादी के हिसाब से सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार हो तो हम कोरोना महामारी से भी अच्छी तरह निपट लेते और दूसरी तमाम बीमारियों से भी। कोरोना के दौरान ही पूरी दुनिया में स्वास्थ्य सेवाओं के राष्ट्रीकरण की माँग जोर–शोर से उठी है। हमें भी अपने देश में इसके लिए संघर्ष करना चाहिए।

स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण मुर्दाबाद!