कोरोना महामारी के कारण राज्य का कल्याणकारी स्वरूप दुनिया के बौद्धिक हलकों में चर्चा का विषय बना हुआ है। कल्याणकारी राज्य का सीधा–सा अर्थ है राज्य द्वारा अपने सभी नागरिकों की आर्थिक और सामाजिक भलाई के लिए काम करना। दरअसल पहले विश्व युद्ध के दौरान सन 1917 में रूस में हुई समाजवादी क्रान्ति ने पूरी दुनिया को राज्य का एक सच्चा जनवादी स्वरूप दिखाया। रूसी क्रान्तिकारियों ने रूस की उस समय की अर्थव्यवस्था और समाज का समाजवादी सिद्धान्तों के अनुरूप रूपान्तरण शुरू किया था।

इस आर्थिक सामाजिक रूपान्तरण ने समाजवाद की खूबसूरती और पूँजीवाद की सड़ान्ध को दुनिया की जनता के सामने ला दिया। इसने दुनिया को दिखाया कि ऐसा राज्य भी हो सकता है जो मुट्ठीभर अमीरों की सेवा करने के बजाय मेहनतकशों की सेवा करे। रूसी क्रान्ति के बाद दुनिया के कोने–कोने में साम्राज्यवादी और पूँजीवादी राजसत्ताओं के खिलाफ जनता की लडाइयाँ तेज हो गयीं। इससे खौफ खाकर ही पूँजीवादी विचारकों ने कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को सामने रखा, जिसका असल मतलब था पूँजीवादी लूट को कायम रखते हुए आम जनता का भी कुछ भला कर देना।

सन 1949 में अंग्रेज समाजशास्त्री टी एच मार्शल ने “नागरिकता और समाजिक वर्ग” नाम से एक निबन्ध लिखा था। इसमें “कल्याणकारी राज्य” को ही राज्य का अन्तिम और सर्वोच्च रूप बताया गया। उन्होंने बताया कि राज्य को इस तरह से काम करना चाहिए कि निजी सम्पत्ति भी खूब फले–फूले और साथ ही साथ आम लोगों का भी सामाजिक–आर्थिक विकास हो। यह दो बिल्कुल विरोधी बातों का घालमेल था, क्योंकि निजी सम्पत्ति आम जनता की मेहनत की कमाई को हड़पकर ही फल–फूल सकती है। पूरी दुनिया में समाजवाद के बढ़ते प्रभाव को रोकने और समकालीन पूँजीवाद को टूटने से बचाने के लिए इस विचार को पूँजीवादियों ने खूब प्रचारित किया और लागू किया। दूसरे विश्व युद्ध के बाद ज्यादातर देश उपनिवेशवादियों के चंगुल से आजाद हो गये। समाजवाद इनकी मुक्ति का सहयोगी था। नव–स्वाधीन देशों की आर्थिक हालत और जनता के समाजवाद के प्रति झुकाव के चलते वहाँ के शासक वर्ग भी जनकल्याण की कुछ नीतियाँ लागू करने को मजबूर हुए। भारत भी उन्हीं देशों में से एक था।

आजादी की लड़ाई के दौरान भारत को एक समतामूलक समाज बनाने के विचार की समर्थक पार्टियाँ और संगठन काफी प्रभावशाली थे। शहीद भगत सिंह भी भारत में एक समतामूलक समाज की स्थापना करना चाहते थे। उन्होंने कहा था कि क्रान्ति का अर्थ है एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति द्वारा तथा एक देश का दूसरे देश द्वारा किये जाने वाले शोषण का अन्त। इसलिए अंग्रेजी दौर की दुर्दशा से पीछा छुड़ाने के वादे के साथ सत्ता सम्भालने वाले भारत के शासक वर्ग की यह मजबूरी भी थी कि वह न चाहते हुए भी कुछ जनपक्षधर नीतियाँ लागू करे। इसलिए उस वक्त के भारी जनदबाव के कारण भारत का शासक वर्ग कल्याणकारी राज्य की तरफ रुख करने को मजबूर हुआ।

आजादी के बाद भारतीय शासकों ने कल्याणकारी राज्य की अवधारणा पर चलते हुए शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार आदि मामलों में एक हद तक काम किया। उद्योगपतियों की इतनी हैसियत भी नहीं थी कि वे भारी उद्योगों और आधारभूत ढाँचे के निर्माण का खर्च उठा सकें। आधारभूत ढाँचे और उद्योंगों तथा जरूरी सेवाओं का निर्माण सरकार ने जनता से धन जुटाकर किया। भेल, गेल, बड़े–बड़े बाँध और हाईवे आदि बनाये जो मूलत: बड़ी पूँजी के हित में था, लेकिन जिससे एक हद तक जनता के लिए सुविधाएँ और रोजगार भी पैदा हुआ और देश प्रगति की राह पर थोड़ा आगे बढ़ा। इन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने “आधुनिक भारत का मंदिर” कहा था। यह सब मूलत: पूँजीपतियों के हित के लिए किया गया था, आज वही हित हवस में बदल गयी है, इसके चलते वर्तमान सरकारों को जनकल्याण शब्द से भी नफरत है। पिछले तीन दशकों में भारत में कल्याणकारी योजनाएँ या तो बन्द कर दी गयी हैं या उन्हें पूँजीपतियों के मुनाफे का जरिया बना दिया गया है। नतीजा यह कि सरकारें कल्याणकारी योजनाओं से तौबा–तौबा करने लगी हैं।

 इन सालों में कर संग्रह लगातार बढ़ रहा है, उसके बावजूद साल दर साल जनता शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं से वंचित होती जा रही है। 1995 में कर संग्रह 1.10 लाख करोड़ रुपये था जो 2020 में बढ़कर 20 लाख करोड़ हो गया है जबकि इसी अवधि में देश की सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली और सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली बर्बाद हुई है। जिस दौरान इन्हें ध्वस्त किया जा रहा था उसी दौरान निजी स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र ने दैत्यकारी आकार ग्रहण किया है।

साल 1955 में स्वास्थ्य तंत्र का केवल 8 फीसदी ही निजी स्वास्थ्य क्षेत्र के हवाले था जो 2015 तक बढ़ते–बढ़ते 80 फीसदी हो गया। 1990 तक 67 फीसदी मेडिकल कॉलेज सरकारी थे जो आज घटकर लगभग 40 फीसदी ही रह गये हैं। इनकी भी फीस इतनी ज्यादा है कि देश की 90 फीसदी जनता के लिए इसे चुकाना असम्भव है। 1986 में 60 फीसदी से अधिक लोग इलाज के लिए सरकारी अस्पताल जाते थे जबकी आज 60 फीसदी से अधिक लोग निजी अस्पताल जाने को मजबूर हैं। ग्रामीण भारत के स्वास्थ्य की रीढ कहे जाने वाले प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों के निर्माण की दर भी तेजी से कम हो रही है। साल 1955 से 1990 के 35 वर्षों में भारत में 18,600 नये प्रथामिक स्वास्थ्य केन्द्र खोले गये। जबकि 1990 से लेकर 2017 तक केवल 7000 नये प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र खोले गये। भारत में रोजना 2300 लोग कैंसर से मर जाते हैं। देश के चन्द सरकारी अस्पतालों में ही कैंसर का इलाज है और वे भी महानगरों तक सीमित है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारत को अपनी जीडीपी का कम से कम 6 फीसदी स्वास्थ्य पर खर्च करना चाहिए, लेकिन भारत सरकार इसके विपरीत बजट कम करती जा रही है। साल 1991 में जीडीपी का 1.3 फीसद स्वास्थ्य पर खर्च होता था जो 2020 तक घटते–घटते 0.37 फीसद बचा है। जिसमें सरकार अन्य सम्बन्धित विभागों की राशि जोड़कर इसे 1.8 फीसद दिखाने का प्रयास कर रही हैं। “ग्लोबल बर्डन डिजीज” 2016 नामक रिपोर्ट के अनुसार भारत दुनिया में सबसे खराब गुणवत्ता की शल्य चिकित्सा वाले देश में शामिल है। इस मामले में भारत 180 देशों में 145वें नम्बर पर है। इतनी बुरी दशा से भी भारत के शासक सन्तुष्ट नहीं है इसलिए सत्ताधारी नेता, मंत्री अकसर ही हर प्रकार की बीमारी का इलाज गौ–मूत्र और गाय के गोबर से करने का प्रचार करते रहते हैं।

जनकल्याण की थोड़ी बहुत नीतियों के तहत 1990 से पहले देश में जो सार्वजनिक स्वास्थ्य का ढाँचा खड़ा किया गया था उसे भी पिछले तीस सालों में बर्बाद कर दिया गया। कोरोना से होने वाली अधिकतर मौतें देश के अस्पतालों में जरूरी बुनियादी सुविधाएँ जैसे बेड, वेंटिलेटर, ऑक्सीजन आदि न होने से हुई हैं। असल में कोरोना महामारी के दौरान राज्य के कल्याणकारी स्वरूप की महत्ता तब साबित हो गयी जब दुनिया के कई देशों ने अपनी चिकित्सा प्रणाली का राष्ट्रीयकरण कर दिया। ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि निजी क्षेत्र का मकसद लोक कल्याण न होकर हमेशा मुनाफा कमाना ही होता है चाहे कोई महामारी हो या प्राकृतिक आपदा।

देश की शिक्षा प्रणाली में आये बदलाव पर गौर करें तो यह बात साफ हो जाती है कि शिक्षा भी सरकार की चिन्ता के दायरे से बाहर निकल गयी है। 1964 में गठित कोठारी आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि भारत को शिक्षा पर कम से कम जीडीपी का 6 फीसदी खर्च करना चाहिए। साल 1951 में भारत अपनी जीडीपी का आधा फीसद ही शिक्षा के क्षेत्र पर खर्च करता था जो साल दर साल बढ़ते हुए 1990 तक 3.84 फीसदी तक पहुँचकर ठहर गया। पिछले 30 सालों में इसकी गति नीचे की ओर रही है। पिछले बजट में शिक्षा से सम्बन्धित सभी प्रकार की गतिविधियों के लिए आवंटित कुल राशि ही बामुश्किल 3 फीसदी है। निजी क्षेत्र के दखल के बाद से शिक्षा का मकसद ही बदल गया है। पहले शिक्षा का मकसद वैज्ञानिक नजरिये का निर्माण करना, सामाजिक जिम्मेदारी की भावना विकसित करना तथा साथ ही देश के सामाजिक आर्थिक विकास में योगदान करना था। यह मकसद कितना पूरा हुआ, यह किसी से छिपा नहीं है, लेकिन आज शिक्षा का मतलब डिग्री नामक एक कागज के टुकडों से अधिक कुछ नहीं रह गया है। अगर देश में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा कहीं बची भी है तो उस तक पहुँचना एक आम विद्यार्थी के लिए असम्भव है।

पिछले एक दशक में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान यानी आईआईटी की फीस पच्चीस हजार रुपये प्रति साल से बढ़़ाकर दो लाख कर दी गयी है। एमबीबीएस की फीस में नौ सौ फीसद की बढ़ोत्तरी हुई है। देश के अधिकतर सरकारी डिग्री कॉलेज धूल फाँक रहे हैं जबकि प्राइवेट डिग्री कॉलेज पैसों के बदले डिग्रियाँ बाँट रहे हैं। शिक्षा में यह गिरावट सरकार के लिए कोई चिन्ता का विषय नहीं है, क्योंकि सरकार देश के नौजवानों को बेअक्ल रखने में  ही अपना भविष्य देखती है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यानी यूजीसी को खत्म करने की कांग्रेस सरकार की नाकाम कोशिश को मोदी सरकार ने 2018 में भारतीय उच्च शिक्षा आयोग बनाकर मुकाम पर पहुँचाया। बीके चड्ढा रिव्यू कमिटी की रिपोर्ट के अनुसार देश में 45 फीसदी प्रोफेसर के पद और 52 फीसदी व्याख्याताओं के पद खाली हैं। देश में कुल मिलाकर 14 लाख शिक्षकों की कमी है जबकि लाखों डिग्री धारी नौजवान रोजगार की तलाश में सड़क पर धक्के खा रहे हैं।

2017 में मानव संसाधन राज्यमंत्री उपेन्द्र कुशवाह ने बताया था कि देश के 37 फीसद सरकारी स्कूलों में बिजली नहीं पहुँची है। मध्य प्रदेश सरकार पिछले दो सालों में 28 हजार प्राथमिक विद्यालय हमेशा के लिए बन्द कर चुकी है। मध्य प्रदेश सरकार का कहना है कि उन सभी स्कूलों में बच्चे कम हैं लेकिन बच्चे कम क्यों है इस बात की पड़ताल सरकार नहीं करवाती। आज सरकारी विद्यालय मरणासन्न अवस्था में पहुँच चुके हैं। इसी का लाभ उठाकर गली–गली में कुकुरमुत्ते की तरह उग आये निजी स्कूल शिक्षा के नाम पर लोगों की गाढ़ी कमाई लूट रहे हैं।

मौजूदा प्रधानमंत्री ‘न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन’ यानी ‘मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेस’ का नारा लगाते हुए सत्ता में पहुँचे हैं। इस नारे का अर्थ ही राज्य के कल्याणकारी स्वरूप का खात्मा है। सरकारी सम्पत्तियों का निजीकरण करना ही उन्होंने अपने कार्यकाल का मुख्य मकसद बना रखा है। जैसे–जैसे निजीकरण बढ़ता जाएगा, कल्याणकारी राज्य सिकुड़ता जाएगा। मिसाल के तौर पर किसी भी कल्याणकारी राज्य में वंचित समुदाय को समाज की मुख्यधारा में शामिल करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था की जाती है। आरक्षण की वजह से ही हजारों साल से पीड़ित दलित, आदिवासी समुदाय का देश के राजनीतिक–आर्थिक जीवन में थोड़ा ही सही, प्रतिनिधित्व दिखा है। क्योंकि निजी क्षेत्र किसी भी प्रकार की ऐसी व्यवस्था को स्वीकार नहीं करता जो उसके मुनाफे में लेशमात्र की भी कमी करे, इसलिए देश में चल रही निजीकरण की आँधी आरक्षण की व्यवस्था को ध्वस्त कर देगी।

आज सरकारें रक्षा, आन्तरिक कानून व्यवस्था, मुद्रा प्रबन्धन, कर संग्रह को ही अपनी मुख्य जिम्मेदारी मानते हुए जनता की गाढ़ी कमाई का ज्यादातर पैसा हवाई अड्डों, हाईवे, सुरंगों, पुलों आदि के निर्माण में लगा रही है जिनसे देश की 80 फीसदी जनता को कोई फायदा नहीं है और जो केवल पूँजीपतियों की माल ढुलाई और आवाजाही के काम आते हैं।

90 के दशक के बाद से भारत का कल्याणकारी राज्य दम तोड़ता चला गया। 1991 में अपनायी गयी “उदारीकरण, वैश्वीकरण, निजीकरण” की नीतियों ने तस्वीर को पूरी तरह बदल दिया। इन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था को देशी–विदेशी निजी कम्पनियों के लिए खोलने का काम किया। जनता की बुनियादी जरूरतों वाले सभी क्षेत्रों में इन कम्पनियों की घुसपैठ होती गयी और सरकार ने अपने हाथ खींच लिये। बाजार में अपना जाल बिछाये मुनाफाखोर कम्पनियों से आज हम घिरे हुए हैं। ‘कॉर्पोरेट कार्य मंत्रालय’ के अनुसार आज भारत में 12 लाख से अधिक निजी कम्पनिया रजिस्टर्ड हैं। इन नीतियों को लागू करते वक्त सरकार का दावा था कि इससे कर संग्रह और सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में बढ़ोतरी होगी जिससे देश का विकास होगा। कर संग्रह और जीडीपी में तो बेशक बढ़ोतरी हुई परन्तु आम जनता का जीवन स्तर उन्नत होने के बजाय गिरता चला गया।

आज का भारतीय राज्य पूँजीपतियों की प्रबन्धन समिति बन गया है। इस भूमिका को वर्तमान बीजेपी सरकार पिछली कांग्रेस सरकार से अधिक मुस्तैदी से और तेजी से निभा रही है। दरअसल जब हम देश में लागू की जा रही नीतियों को ध्यान में रखते हुए भारत की मौजूदा राजनीतिक पार्टियों पर विचार करते हैं तो उनके बीच का अन्तर मिट जाता है। सभी राजनीतिक पार्टियाँ जनविरोधी नीतियों को लागू करने के काम में एक साथ हैं। भारत के कल्याणकारी राज्य के स्वरूप को चकनाचूर करने के लिए पिछले 30 सालों में सत्ता में आयी हर राजनीतिक पार्टी जिम्मेवार है। अब यह जनता के उ़पर है कि वह इन पार्टियों को कब तक सहन करती है।