रही–सही उच्च शिक्षा को भी तबाह करके उसे कॉरपोरेट घरानों के मुनाफे का साधन बनाने की कांग्रेस सरकार की कोशिशों को आगे बढ़ाते हुए मौजूदा भाजपा सरकार ने एक प्रस्ताव संसद के मानसून सत्र में पेश किया है, जिसका मकसद विश्वविद्यालयों को अनुदान देने वाली और उच्च शिक्षण संस्थानों की गुणवत्ता की जाँच करने वाली स्वायत्त संस्था विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) को खत्म करके उसकी जगह ‘भारतीय उच्च शिक्षा’ नामक नयी संस्था को खड़ा करना है। ‘भारतीय उच्च शिक्षा अधिनियम–2018’ नामक यह प्रस्ताव अगर पारित हो जाता है, तो यूजीसी की जगह ‘भारतीय उच्च शिक्षा आयोग’ ले लेगा। जिससे विश्वविद्यालयों को अनुदान देने समेत तमाम महत्त्वपूर्ण अधिकार सीधे सरकार यानी सरकार चलाने वाली पार्टी के नियंत्रण में आ जायेंगे।

यूजीसी की स्थापना आजादी से पहले अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की देखरेख के लिए हुई थी। आजादी के बाद आयोग को ‘यूजीसी एक्ट–1956’ के द्वारा स्वायत्ता देकर पूरे देश के विश्वविद्यालयों को अनुदान देने और उनके लिए शिक्षा मानक तय करने की जिम्मेदारी दे दी गयी। 1990 के बाद देश में निजी विश्वविद्यालयों व कॉलेजों की संख्या में बेशुमार बढ़ोतरी होने के साथ–साथ, आयोग को व्यापक और ज्यादा अधिकार नहीं दिया गया बल्कि उसका दायरा और अधिकार लगातार कम किया गया जिससे उच्च शिक्षा का स्तर लगातार गिरता चला गया। अब सरकार यूजीसी की रही–सही स्वायत्ता भी छीनना चाह रही है, ताकि उच्च शिक्षा को पूरी तरह कार्पोरेट जगत के अनुरूप ढाला जा सके। यह उच्च शिक्षा को तबाह करने तथा समर्पित विद्वानों को इसके नीति निर्धारण से दूर करने की कोशिश का नतीजा है। भारत के शासकों द्वारा ‘विश्व व्यापार संगठन’ के सामने नग्न समर्पण कर देने के साथ ही यह खेल शुरू हो गया था। उनकी निगाहों में उच्च शिक्षा का मकसद मनुष्य का सर्वांगीण विकास न होकर, उद्योगपतियों का मुनाफा बढ़ाना होना चाहिए। उसके आदेश की स्वीकार्यता की खुले रूप में पुष्टि 2000 में प्रकाशित बिड़ला–अम्बानी टास्क ग्रुप की उच्च शिक्षा की दिशा तय करने वाली रिपोर्ट में हो गयी थी। यह रिपोर्ट कहती है कि हर परिस्थिति में ढल जाने योग्य मजदूर तैयार करना शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए। तब से लेकर अब तक उच्च शिक्षा में होने वाला हर बदलाव “बिड़ला–अम्बानी टास्क ग्रुप” की रिपोर्ट के मुताबिक ही हुआ है।

रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि सरकार को उच्च शिक्षा के प्रति अपनी मानसिकता में बुनियादी बदलाव लाना चाहिए, क्योंकि मौजूदा सरकारी हस्तक्षेप निजी पूँजी के निवेश और निर्माण में बाधा है। इसी का अनुसरण करते हुए कांग्रेस सरकार हायर एजुकेशन एण्ड रिसर्च बिल–2011 लायी थी, जो संसद में पास नहीं हो सका था। उसका मकसद भी यूजीसी को समाप्त करना ही था। बिड़़़ला–अम्बानी की रिपोर्ट पर अमल करते हुए मौजूदा सरकार ने 2016–17 में हीफा यानी हायर एजुकेशन फंडिंग एजेंसी की स्थापना की जो उच्च शिक्षण संस्थानों को अनुदान की बजाय फंड मुहैय्या कराती है, जिसे संस्थान को एक तय समय के बाद वापस करना होता है। शुरुआत में इसके फंड में 2000 करोड़ रुपये जमा किये जाने थे, जिसमें 1000 करोड़ सरकार के तथा शेष 1000 करोड़ किन्हीं भी पाँच पूँजीपतियों से जुटाने हैं। इसी के साथ–साथ हीफा में यह प्रावधान भी है कि विश्वविद्यालय अपने खर्च का 30 प्रतिशत खुद वहन करें, चाहे उसके लिए फीस बढ़ायें या सीटें कम करें।

उसी रिपोर्ट से प्रेरित नये आयोग में यह भी प्रावधान है कि सरकार सभी संस्थाओं को स्ववित्त–पोषित (सेल्फ फाइनेंस) का दर्जा दे दे, यानी सरकार उच्च शिक्षा देने की अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेने पर अमल करते हुए सरकार ने इसी साल मार्च में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय सहित 62 उच्च शिक्षण संस्थानों को पूर्ण स्वायत्ता का दर्जा दे दिया। यानी अब वे मनचाही फीस बढ़ा सकते हैं और जरूरत पड़े तो किसी उद्योगपति को संस्थान में हिस्सेदारी भी दे सकते हैं। इससे सरकारी व निजी संस्थानों का भेद मिट जायेगा और पूँजीपति शिक्षा को बेचकर मुनाफा कमा सकेंगे। नये उच्च शिक्षा आयोग में यह प्रावधान है कि विश्वविद्यालयों और कॉलेजों को अनुदान देने या ना देने का निर्णय उनकी रैकिंग के अनुसार हो, यह भी बिडला–अम्बानी रिपोर्ट में हूबहू शामिल है। जिससे एकदम स्पष्ट है कि सरकार का मकसद उच्च शिक्षा को पूँजीपतियों की सेवा में लगा देना है। खराब रैंकिंग का हवाला देकर सरकार विश्वविद्यालयों को अनुदान देने से मना करके अपना पीछा छुड़ा लेगी। होना तो यह चाहिए था कि सरकार खराब प्रदर्शन करने वाले विश्वविद्यालयों की जाँच करती और बेहतर प्रदर्शन करने के लिए उसे अधिक अनुदान देती, जबकि वह इसका बिल्कुल उल्टा कर रही है। जिस विश्वविद्यालय को रैंकिंग के अनुसार शुरुआत में ही कम अनुदान मिलेगा तो वह बेहतर प्रदर्शन कैसे कर पायेगा। धन की कमी के चलते उसका प्रदर्शन साल–दर–साल गिरता जायेगा और खराब गुणवत्ता का हवाला देकर सरकार उसे बन्द करके या निजी उद्योगपति को बेचकर अपना पीछा छुड़ा लेगी। इस बारे में दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ की पूर्व अध्यक्ष नंदिता नारायण का कहना है कि बिना गारंटिड फंडिंग के न तो संस्था गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दे सकती है और न ही अपनी स्वायत्ता का पूरा इस्तेमाल कर सकती है। धन की कमी के चलते शिक्षण संस्थाएँ उद्योगपतियों को हिस्सेदार बनाने के लिए मजबूर हो जायेंगी, जिससे उच्च शिक्षा तबाह हो जायेगी। क्योंकि पूँजीपति मनुष्य व समाज को केन्द्र में रखकर पढ़ाई करवाने के बजाय, अपने मुनाफे को केन्द्र में रखकर करवायेंगे।

रैंकिंग, श्रेणीकृत स्वायत्ता या स्व–वित्तपोषण के बहाने से सरकार विश्वविद्यालयों के अनुदान कम करती जा रही है। इससे एक ओर बुनियादी शोध कम हो रहे हैं तथा दूसरी ओर फीस बढ़ने व छात्रवृत्ति कम होने से पिछड़े व गरीब तबके के छात्र उच्चशिक्षा से वंचित हो रहे हैं। 2014–15 के बजट में शिक्षा की हिस्सेदारी 6 फीसदी थी जो 2017–18 तक आते–आते 3.7 फीसदी रह गयी।

बिड़ला–अम्बानी रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि सरकार विश्वविद्यालय में होने वाली हर प्रकार की राजनैतिक गतिविधियों पर निगरानी रखे व उन पर रोक लगाये। यानी जहाँ समाज का सबसे प्रबुद्ध वर्ग है, वहाँ राजनीति पर प्रतिबन्ध हो। फंड मुहैया कराने का अधिकार अपने हाथ में लेकर सरकार बिड़ला–अम्बानी की इच्छा को तो पूरा कर ही सकती है साथ ही अपने खिलाफ उठने वाली हर आवाज को दबा सकती है। अनुदान बन्द हो जाने के दबाव में विश्वविद्यालय ऐसी गतिविधियों को विश्वविद्यालय विरोधी करार देने के लिए मजबूर हो जायेंगे और शिक्षा के व्यापारीकरण की राह निर्बाध हो जायेगी। फिर जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय और छात्र नेता सरकार और पूँजीपतियों की मक्कारियों का पर्दाफाश और विरोध नहीं कर पायेंगे। शिक्षा की गुणवत्ता बनाये रखने की जिम्मेदारी यूजीसी की थी। इसकी जगह लेने वाले नये आयोग का काम केवल शिक्षा के नये मानको को अपनी वेबसाइट पर अपलोड कर देना और अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाना होगा। यह यूजीसी की तरह विश्वविद्यालयों में जाकर शिक्षा की गुणवत्ता की जाँच नहीं करेगा बल्कि अपनी मर्जी से रिपोर्ट आयोग को भेजेगा। उन मानकों को पूरा करने को विश्वविद्यालय धन कहाँ से लायेगा, इससे आयोग को कोई मतलब नहीं होगा, चाहे उसमें कालाधन ही क्यों न लग जाए। वह धन विश्वविद्यालय फीस बढ़ाकर छात्रों से वसूलेंगे या फिर संस्थान बन्द होने का खतरा झेलेंगे। अगर अनुदान देने का अधिकार सरकार के पास रहेगा तो पूँजीपति आसानी से सरकारों को निर्देश दे सकते हैं कि किस विषय पर शोध के लिए अनुदान दिया जाए और किस पर नहीं। चूँकि सभी सत्ताधारी पार्टियाँ पूँजीपतियों से पैसा लेकर ही जिन्दा हैं अत: वे भी पूँजीपतियों के लिए कुशल मजदूर पैदा करने वाले तथा मुनाफा बढ़ाने में सहायक शोधों व पाठ्यक्रमों के लिए ही अनुदान दंेगी। यानी किस विश्वविद्यालय में क्या पढ़ाया जायेगा और क्या शोध होगा, यह तय करने का अधिकार अपरोक्ष रूप से पूँजीपतियों के हाथ में आ जायेगा।

आज की सरकारें यूजीसी के रहते ही जनता के खून–पसीने से तैयार विश्वविद्यालयों को पूँजीपतियों का मुनाफा बढ़ाने वाले सहायक शोध–केन्द्र बनाने में लगी हुई है। इसका उदाहरण है– आईआईटी दिल्ली का भारतीय मित्तल कम्यूनिकेशन स्कूल। इस संस्थान को कम्यूनिकेशन विभाग की आवश्यकता थी, तो सरकार ने इसके लिए अनुदान न देकर ऐयरटेल के मालिक का कम्यूनिकेशन सेंटर कैंपस में खुलवा दिया। अब उसमें ऐयरटेल पैसा देती है और अपने अनुसार शोध कराती है।

2011 की जनगणना के अनुसार भारत की मात्र 8.5 प्रतिशत आबादी ही स्नातक शिक्षा प्राप्त है। ऐसे में सरकार उच्च शिक्षा से हाथ खींचकर इसे उद्योगपतियों को सौंप देना चाहती है।

विश्वविद्यालय और कॉलेज ही समाज की वे जगहे हैं जहाँ बुद्धिजीवी वर्ग पनपता है। जिस तरह अंग्रेजी दौर में मैकाले की शिक्षा पद्धति का मकसद ऐसे लोग पैदा करना था, जो शरीर से भारतीय व दिमाग से अंग्रेज हों। उसी तरह आज के पूँजीपति भी चाहते हैं कि मौजूदा शिक्षा प्रणाली से तैयार होने वाली नौजवान पीढ़ी वैज्ञानिक और स्वतंत्र सोच वाली न होकर आज्ञाकारी, तर्कहीन और चाटुकार हो, जिसे अपने देश व समाज से कोई सरोकार नहीं हो कि किसी देश को लम्बे समय तक गुलाम बनाये रखने के लिए जरूरी है उसकी शिक्षा प्रणाली को गुलाम बना लेना। हमारे आज के शासक खुद देशी–विदेशी पूँजीपतियों के सेवक हैं। इन्हें डर है कि कहीं आजाद ख्याल नौजवान पीढ़ी  इनकी सत्ता को न उखाड़ फेंके।