उत्तराखण्ड लोक तथा निजी सम्पत्ति क्षति वसूली अध्यादेश–2024

अठारहवीं सदी की शुरुआत में जब ब्रिटेन में जनता बेरोजगारी, भुखमरी से त्रस्त थी तो ब्रिटेन की संसद ने जनता के प्रतिरोधों से निपटने और उसे निर्ममता से कुचलने के लिए 1715 में राइट एक्ट (दंगा अधिनियम) बनाया और तर्क दिया कि तत्कालीन कानून दंगों पर काबू पाने के लिए पर्याप्त नहीं है। आज इसी तर्क के साथ पहले उत्तर प्रदेश और हरियाणा में, अब उत्तराखण्ड में भी आनन–फानन में उत्तराखण्ड लोक तथा निजी सम्पत्ति क्षति वसूली अध्यादेश–2024 लागू कर दिया गया है, वह भी लोकसभा चुनाव से ठीक पहले। उत्तराखण्ड सरकार का यह अध्यादेश इन दोनों राज्यों से सख्त बताया जा रहा है। यह अध्यादेश लोकतंत्र में एकत्र होने और अपनी बात कहने के अधिकार को किस तरह से कुचलेगा। इसकी बानगी यह है कि इस कानून के तहत उन लोगों के खिलाफ भी कार्रवाई हो सकेगी जो हड़ताल, बन्द, दंगों का नेतृत्व करते या उनका आह्वान करते पाये जाएँगे। सवाल यह है कि आखिर जब आईपीसी 1860 (अब न्याय संहिता) में पहले से ही गैरकानूनी रूप से सभा करना, इकट्ठा होना और दंगा करना दंडनीय है तो आखिर उत्तराखण्ड सरकार को विरोध प्रदर्शन कुचलने के लिए इस किस्म के अलोकतांत्रिक कानून की क्या दरकार है।

इस मामले की छानबीन के लिए हमें मुड़कर 18वीं सदी के ब्रिटेन के इतिहास और उत्तराखण्ड की मौजूदा परिस्थितियों पर निगाह डालनी होगी। इंग्लैंड में राइट एक्ट ने स्थानीय अफसरों को गैरकानूनी रूप से एकत्र हुए 12 से ज्यादा लोगों को तितर–बितर करने के लिए अतिशय ताकत दे दी। इस कानून के तहत जिन पर दंगों का आरोप लगता था उन्हीं से सम्पत्ति को होने वाले नुकसान की वसूली की जाती थी। 10 मई 1768 को दक्षिणी लन्दन के सैंट जॉर्ज फील्ड में संसद के रेडिकल सदस्य जॉन विकीज की रिहाई की माँग को लेकर जेल के बाहर इकट्ठा लोगों पर सैनिकों ने गोलियाँ चला दी। छह से सात लोग मारे गये। सांसद जॉन विकीज को राजा जॉर्ज तृतीय की आलोचना में लेख लिखने के कारण कैद में डाल दिया गया था। 16 अगस्त 1819 में संसद में प्रतिनिधित्व की माँग के लिए मैनचेस्टर के सैंट पीटर्स फील्ड में जुटे 60 हजार मजदूरों पर इस कानून की आड़ में गोलियाँ चलाई गयीं। इसमें कई मजदूर मारे गये और 500–600 घायल हो गये। यह पीटरलू नरसंहार के नाम से ब्रिटेन के इतिहास में काले अक्षरों में दर्ज है। यह मजदूर वर्ग की सबसे बड़ी जुटान थी। ब्रिटेन में 1973 में जाकर यह कानून खत्म किया गया।

भले ही उत्तराखण्ड की धामी सरकार ने हल्द्वानी में वनभूलपुरा की हिंसा का बहाना बनाकर उत्तराखण्ड लोक तथा निजी सम्पत्ति क्षति वसूली अध्यादेश–2024 लागू किया है और उसके जरिये समाज के परपीड़ा सुखाकांक्षी वर्ग को यह सन्देश देने की कोशिश की है कि यह अध्यादेश अल्पसंख्यक दंगाइयों के विरुद्ध है। सरकार को इतनी जल्दी थी कि उसने अगले विधानसभा सत्र का इन्तजार नहीं किया और अध्यादेश को ही लागू कर दिया। इस तरह से उसने आम चुनाव से पहले अपने साम्प्रदायिक वोट बैंक के तुष्टीकरण की कोशिश की है। लेकिन असली कारण दूसरे हैं जो साम्प्रदायिक राजनीति के पर्दे की आड़ में छिपा दिये गये हैं।

लगता है कि सरकार को आशंका है कि उसकी जनविरोधी नीतियों के कारण भीतर–भीतर से सुलग रहे समाज के आक्रोश का ज्वालामुखी कभी न कभी फटेगा। ऐसे में इस ज्वालामुखी की आग से खुद को बचाने के लिए वह इस अलोकतांत्रिक अध्यादेश का हथियार अपने पास रखना चाहती है। दरअसल, सभी जानते हैं कि उत्तराखण्ड के युवा मौजूदा वक्त में भयानक बेरोजगारी के दौर से गुजर रहे हैं। उनका यह आक्रोश जब–तब फटता रहता है। बीते साल बेरोजगारों का बड़ा प्रदर्शन और उसके बाद हिंसा इसकी बानगी है। सत्ताधारी पार्टी से जुड़े अंकिता भंडारी हत्याकांड के बाद पहाड़ में लोगों में जिस तरह का आक्रोश पनपा था उसे कौन नहीं जानता। तीसरे, प्रदेश सरकार ने बीते दिनों ग्लोबल इनवेस्टर्स समिट कर पूँजीपतियों से करीब साढ़े तीन लाख करोड़ के समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किये हैं। पूँजीपतियों की राह हमवार बनाने के लिए वह नहीं चाहेगी कि उत्तराखण्ड में मजदूर अपने वेतन–भत्तों जैसे अधिकारों के लिए बोलें। इसीलिए वह इस अध्यादेश के जरिये पूँजीपतियों को आश्वस्त करना चाहती है कि अगर मजदूरों ने हड़ताल या प्रदर्शन किये तो उन्हें नृशंस तरीके से कुचला जाएगा। पुरानी पेंशन की माँग पूरी न होने से सरकारी कर्मचारियों का एक बड़ा हिस्सा भी आक्रोशित है। इसके अलावा जब तब ऐसे मुद्दे सामने आते हैं जो लोगों को सड़क पर आने को बाध्य करते हैं।

इन तमाम हालात में सरकार उत्तराखण्ड लोक तथा निजी सम्पत्ति क्षति वसूली अध्यादेश–2024 के जरिये आम जनता के बीच ऐसा डर का माहौल बनाना चाहती है कि वह अपना आक्रोश व्यक्त करने के लिए लिए सड़कों पर न आये। इस कानून के बाद सबसे बड़ा खतरा यह है कि सरकारी एजेंसियों किसी धरना, प्रदर्शन या जुलूस में अपने एजेंट घुसाकर सरकारी सम्पत्ति या पुलिस पर हमले करायेंगी जिससे सुरक्षा बलों को लोगों पर हमले का मौका मिल सके और विरोध करने वालों को जेल के सींखचों के पीछे डाला जा सके और उनसे नुकसान की वसूली कर उनकी आर्थिक रीढ़ ही तोड़ी जा सके। जन आन्दोलनों की कोख से जन्मे उत्तराखण्ड ने ये कौन सी डगर पकड़ ली है।

–– अखर शेरविन्द