रामधारी सिंह दिनकर के शब्द “जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनके भी अपराध” गोदी मीडिया पर कब लागू होंगे यह तो समय बताएगा ही, लेकिन इसी दौर में कुछ चिराग इस अंधेरी रात में लगातार टिमटिमाते हुए हमें आगे बढ़ने का सन्देश और हिम्मत प्रदान कर रहे हैं।

अंग्रेजी दैनिक ‘हिन्दू’ 14 मार्च के अपने सम्पादकीय में लिखता है––

“सरकार द्वारा नागरिकता संशोधन कानून–2019 को चुनाव के कुछ दिन पहले लागू करने का फैसला इस बात का अग्रदूत है कि चुनावी अभियान में ध्रुवीकरण का दोहन किया जाएगा। धर्म पर आधारित तीन चुने हुए पड़ोसी देशों के प्रवासियों को नागरिकता प्रदान करने वाला सीएए कानून सुप्रीम कोर्ट में वैधानिक चुनौती के जरिये विचाराधीन है। 2019 में पास हुए इस कानून के प्रावधानों को सरकार ने अभी तक अधिसूचित नहीं किया था। अधिसूचित करने का समय एक तर्कसंगत शक पैदा करता है कि इसे चुनावी बाण्ड पर आये सुप्रीम कोर्ट के फैसले से ध्यान हटाने के लिए लागू किया गया। एक ऐसे समय में यह प्रावधान लाये गये जब सारा देश इस बात पर प्रश्न उठा रहा था कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद इसकी जानकारी देने में देरी क्यों की जा रही है कि इन गुप्त चुनावी बाण्डों को किसने खरीदा और किसने भुनाया। परिस्थितियाँ ये सवाल पैदा करती हैं कि 5 वर्षों से विचाराधीन इस कानून को तत्काल लागू करना क्यों जरूरी था? नये कानून बड़ी चालाकी से बनाये गये दिखाई देते हैं जिससे राज्य सरकारें इन्हंे लागू करने को बाध्य होंगी। हो सकता है कि ये पहले से ही तैयार हों और चुनावी फायदे के लिए इसे पुनर्जीवित किया गया हो।

मोटे तौर पर ये कानून भारत में अल्पसंख्यकों के हितों को शायद प्रभावित न करें लेकिन तीन देशों–– अफगानिस्तान, पाकिस्तान, और बांग्लादेश में रहने वाले सिर्फ धार्मिक अल्पसंख्यकों हिन्दू, सिख, बुद्ध, जैन, पारसी और ईसाई धर्म के लोगों को नागरिकता प्रदान करने के तंत्र के तौर पर कार्य करेगा। इस श्रेणी के अप्रवासियों की भारत में बसे होने की समय सीमा 11 वर्ष से घटकर 5 वर्ष की गयी है। बशर्ते कि वे हमारे देश में 31 दिसम्बर 2014 से पहले से रह रहे हों। प्रस्तावित कानून में किसी की नागरिकता समाप्त करने की बात नहीं कही गयी है।

इस कानून में दो तरह की समस्याएँ हैं। पहली समस्या यह है कि कुछ धर्म के लोग नागरिकता के पात्र माने गये हैं। उपरोक्त तीनों देशों के छ: धर्म के लोगों को उत्पीड़ित मान लिया गया है। जो इस श्रेणी में नहीं आते या निर्धारित की गयी तारीख के बाद भारत में दाखिल हुए उन्हें घुसपैठिये माना जाता रहेगा। दूसरी समस्या है–– राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के साथ दुर्भाग्यपूर्ण राजनीतिक प्रचार को जोड़ने की है। शब्दाडम्बर के जरिये मुस्लिम आबादी के बीच यह भय पैदा किया जा रहा है कि पर्याप्त दस्तावेजों के अभाव में उनकी नागरिकता संकट में पड़ सकती है। उपरोक्त कानून नरेन्द्र मोदी के इस राजनीतिक सन्देश के भी खिलाफ जाता है कि उनकी सरकार की नीतियाँ धर्म को मजबूत करेंगी।

चण्डीगढ़ से प्रकाशित दैनिक ट्रिब्यून की बेबाक सम्पादकीय और संजीदगी से खबर प्रस्तुति के दो उदाहरण 22 मार्च के सम्पादकीय ‘असंगत अमीरी’ के कुछ अंश प्रस्तुत हैं। ये खबरें विचलित करने वाली हैं। देश में मौजूदा आर्थिक असमानता ब्रिटिश काल से भी अधिक है। अन्तरराष्ट्रीय संस्था थामरू पिकेती और तीन अर्थशास्त्रियों द्वारा तैयार रिपोर्ट चौंकाने वाले निष्कर्ष पेश करती है कि 2022–23 में भारत के शीर्ष एक फीसदी अमीरों की देश की सम्पत्ति में हिस्सेदारी 40 फीसदी है।

लम्बे समय से माँग की जाती रही है कि देश के कर ढाँचे में सुधार करते हुए सम्पन्न वर्ग की आय और सम्पत्ति पर कर लगाया जाये।

1– हाल में सुप्रीम कोर्ट की पहल पर राजनीतिक दलों को धनाढ्य वर्ग द्वारा हजारों करोड़ का चन्दा दिया जाना इस असमानता का स्याह पक्ष ही है।

2– आम आदमी के दिमाग में यह सवाल आ सकता है कि जिस धन को जुटाने में उनकी सारी उम्र लग जाती है उसे कुछ लोग 10 मिनट में कैसे जुटा लेते हैं। निश्चय ही उसके मन में व्यवस्था को लेकर शंकाएँ जन्म लेती हैं, जो सामाजिक कुण्ठा की वाहक हैं जिनकी परिणति कालान्तर में सामाजिक आक्रोश के रूप में हो सकती है।

3– महिला पहलवानों से सम्बन्धित खबर को भी 20 मार्च के दैनिक ट्रिब्यून में बड़ी हिम्मत से प्रस्तुत किया गया। इसमें विनेश फोगाट कहती हैं, “प्रधानमंत्री जी स्पिन मास्टर हैं। अपने प्रतिद्वन्दियों के भाषणों का जवाब देने के लिए महिला शक्ति का नाम लेकर बात को घुमाना जानते हैं। नरेन्द्र मोदी जी हम महिला शक्ति की असल सच्चाई भी जान लीजिए। महिला पहलवानों का शोषण करने वाला बृजभूषण फिर से कुश्ती पर काबिज हो गया है। उम्मीद है कि आप महिलाओं को बस ढाल बनाकर इस्तेमाल नहीं करेंगे बल्कि देश की खेल संस्थाओं से ऐसे अत्याचारियों को बाहर करने के लिए भी कुछ करेंगे।”

4– ओलंपिक पदक विजेता साक्षी मलिक ने लिखा–– “इतिहास गवाह है कि इस देश की धरती पर सदियों से ताकतवर लोगों ने महिलाओं के सम्मान के साथ खिलवाड़ किया है। लेकिन सम्पन्न दुराचारी इतने ताकतवर हैं कि वे सरकार, संविधान और न्यायपालिका से भी ऊपर हैं। साबित हो गया कि इस नये भारत में भी नारियों के अपमान की सदियों पुरानी परम्परा कायम रहेगी।”

5– उपरोक्त दो प्रतिक्रियाएँ भारतीय ओलम्पिक संघ द्वारा देश में कुश्ती संचालक तद्भव समिति को भंग करने और बृजभूषण के करीबी संजय सिंह के नेतृत्व में डबल्यूएफआई की बागडोर देने के एक दिन बाद आयी थी।

तीसरा उदाहरण पंजाबी अखबार देश सेवक का है जिसने अपने सम्पादकीय में तथ्यपरक कमेटी के गठन और उसके कार्यान्वयन पर लोग रोक लगाये जाने की पृष्ठभूमि बताते हुए टिप्पणी की।

चुनाव से पहले सरकार द्वारा अपनी आलोचना को दबाने की योजना धरी रह गयी क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने 21 मार्च को केन्द्रीय इलेक्ट्रॉनिक्स और आईटी मंत्रालय द्वारा स्थापित की गयी फैक्ट चेक कमेटी पर रोक लगा दी थी। इस कमेटी के पास अधिकार थे कि सरकार के कामकाज के बारे सोशल मीडिया पर की गयी किसी भी टिप्पणी को झूठा और गुमराह करने वाली सूचना का ठप्पा लगा दे तथा मीडिया प्लेटफॉर्म को आगाह करते हुए उस सूचना को हटा दे। इसी वजह से मुम्बई हाई कोर्ट में कॉमेडियन कुणाल कामरा और एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया तथा कुछ मीडिया संस्थानों द्वारा उपरोक्त कमेटी बनाने के लिए संशोधन के विरुद्ध केस दायर किया गया था। अब सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद मुम्बई हाई कोर्ट द्वारा फैसला दिये जाने तक यह मामला ठण्डे बस्ते में चला गया है।

उपरोक्त तीन समाचार पत्रों द्वारा संजीदगी से सूचनाएँ प्रस्तुत करने और निष्पक्ष रूप से सम्पादकीय लिखने की समृद्ध परम्परा रही है। इसके अलावा भी प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कुछ चैनल टुकड़ों में सच्चाई दिखाने की भरपूर कोशिश करते नजर आते हैं। सोशल मीडिया के माध्यम से जनता को पुरजोर जानकारियाँ दी जा रही हैं जिससे स्वाधीनता आन्दोलन के दौर में छोटे अखबारों, हस्तलिखित पत्रों की भूमिका का समरण हो उठता है।

अन्त में इस दौर के उत्कर्ष की सुखद कल्पना निम्न शब्दों के साथ––

इस खण्डहर में कुछ टूटे दिये हैं पड़े

इन्हीं से काम चला लो बहुत अंधेरी है रात

–– गुरबख्श सिंह मोंगा