–– सोमा एस मोरला,

पूरे यूरोप में चारों तरफ किसान आन्दोलन कर रहे हैं। उनकी प्रमुख माँग है फसल के लिए सुनिश्चित और उचित मूल्य। इसके लिए सरकार द्वारा किये गये वादे को पूरा नहीं करने के खिलाफ वे आन्दोलन कर रहे हैं। किसानों ने हजारों ट्रैक्टरों समेत पेरिस की ओर जाने वाले सभी सात मोटरमार्गों को बन्द कर दिया और वे शहर के बाहर डेरा डाले बैठे हैं। विरोध प्रदर्शन फ्रांस से शुरू होकर जल्द ही जर्मनी तक फैल गया, जहाँ नाराज किसानों ने बर्लिन के आधे हिस्से को अस्त–व्यस्त कर दिया। रोमानिया, नीदरलैंड, पोलैंड, लिथुआनिया, बुल्गारिया और बेल्जियम तक भी किसान आन्दोलन फैल गया। स्पेन, इटली और ग्रीस में भी किसान बड़ी रैलियाँ आयोजित करने की तैयारी कर रहे हैं। कुछ नौजवान किसानों को सरकारी इमारतों पर खाद और गाय का गोबर छिड़कते हुए देखा गया और कुछ व्यस्त मार्गों पर पुराने टायरों और कृषि अपशिष्ट को आग लगा दी गयी। इसके अलावा आयातित खाद्य पदार्थों को ले जाने वाले वाहन रोककर, उनसे खाद्य पदार्थ निकालकर सड़कों पर फेंक दिया गया। हालाँकि, पेरिस सुपरमार्केट की अलमारियाँ खेती के ताजा पैदावार से खाली हो रही हैं, खरीदारी करने आयीं माताओं को बच्चों के मन में उठे सवालों का जवाब देना मुश्किल हो रहा है। यूरोप का ये विरोध प्रदर्शन उन प्रदर्शनकारी भारतीय किसानों की याद दिलाते हैं जो कुछ साल पहले दिल्ली की ओर जाने वाले राजमार्गों को अवरुद्ध करके बाहरी इलाकों में डेरा डाले बैठे थे। मैंने दोनों आन्दोलनों के बीच समानताएँ पायी हैं।

शक्तिशाली खुदरा विक्रेताओं और कृषि रसायन कम्पनियों द्वारा दबाये जाने, खराब मौसम की मार झेलने और सस्ते विदेशी आयात से कटौती होने के चलते यूरोप में किसान भारी कर्ज के बोझ तले दबे हुए हैं। पोलैंड में अनाज का सस्ता आयात होने की वजह से अनाज की कीमतों में 30 प्रतिशत तक गिरावट आयी है। फ्रांस और जर्मनी की सरकारों द्वारा डीजल सब्सिडी वापस लेने और कृषि मशीनरी पर बीमा शुल्क बढ़ाने के फैसले ने किसानों के गुस्से को और ज्यादा तेज कर दिया है। रूस से तेल और गैस आयात पर मूर्खतापूर्ण प्रतिबंधों ने भी मुद्रास्फीति और ऊर्जा संकट को उच्च स्तर तक बढ़ा दिया है। बाजारों में कृषि उपज की कम कीमतें और कृषि को बड़े व्यवसाय की कार्टेल और कॉर्पोरेट घरानों की दया पर छोड़ देना ही मौजूदा कृषि संकट की जड़ है। विडम्बना यह है कि ग्रीन बॉक्स द्वारा संरक्षित यूरोपीय संघ, डब्ल्यूटीओ के दिशा–निर्देशों को छुपाता है और अपने किसानों को उत्पादन लागत का लगभग 60 से 70 फीसदी तक सब्सिडी देता है। यूरोपीय किसान सब्सिडी और प्रत्यक्ष आय सहायता के सबसे अधिक प्राप्तकर्ताओं में से हैं और यूरोपीय संघ प्रति वर्ष 107 बिलियन डॉलर का भारी समर्थन प्रदान करता है (ईयू, 20–22)। हालाँकि, इसका 80 फीसदी हिस्सा केवल 20 फीसदी अमीर किसानों और बीज, कृषि रसायन कम्पनियों के पास चला जाता है, जिसके चलते अधिकांश छोटे किसान गरीबी की हालत में जीवन जीने को मजबूर हैं।

मुख्य रूप से यह विरोध प्रदर्शन किसानों को सुनिश्चित और उचित मूल्य नहीं मिलने के खिलाफ है। यूरोपीय संघ में एक छोटे किसान को सुपरमार्केट से कृषि उत्पादों के लिए उपभोक्ता द्वारा भुगतान की गयी धनराशि का मात्र 27 फीसदी ही मिलता है (स्त्रोत–– नेचर फूड, 2021)। भारत में भी एक किसान को सुपरमार्केट या स्थानीय किराना स्टोर से उपभोक्ता द्वारा भुगतान की गयी प्रत्येक रुपये की खरीद पर केवल 27–31 पैसे ही मिलते हैं। मूल्य श्रृंखला का एक बड़ा हिस्सा स्थानीय अनाज व्यापारी से लेकर सुपर मार्केट या बड़े कृषि व्यवसाय कॉर्पोरेट घरानों की जेब में जा रहा है।

19वीं शताब्दी के शुरुआत में कार्ल काउत्स्की का मानना था कि कृत्रिम रूप से बाजारों में औद्योगिक वस्तुओं की तुलना में कृषि उत्पादों को कम मूल्य पर रखा जाता है ताकि अधिशेष को महानगरीय उद्योग के लिए खर्च किया जा सके। अनुमान है कि भारत के सकल घरेलू उत्पाद में कुल कृषि का योगदान लगभग 22 लाख करोड़ रुपये है, मध्यस्थ अनाज खुदरा व्यापारियों और बड़े कॉर्पोरेट कृषि व्यवसायों और सुपरमार्केट श्रृंखलाओं के कारण भारतीय किसान लगभग 15 लाख करोड़ रुपये का नुकसान झेल रहा है।

बीज बाजार के लगभग 40 फीसदी हिस्से पर बीएएसएफ एसई, बायर, कॉर्टेवा एग्रो, सिंजेंटा और अन्य वैश्विक कृषि निगमों का कब्जा है, जबकि वैश्विक अनाज आपूर्ति के लगभग 50 फीसदी हिस्से पर केवल तीन दैत्याकार कृषि उद्यम कारगिल, एडीएम और जेननोह का कब्जा है। इसी तरह जॉन डीयर, न्यू हॉलैंड जैसी मुट्ठी भर कम्पनियों का वैश्विक ट्रैक्टर, हार्वेस्ट कम्बाइन और अन्य मशीनरी की 90 प्रतिशत बिक्री पर कब्जा है। यह सन्देहास्पद है कि मिस्र, बुर्किना फासो, ट्यूनीशिया, इण्डोनेशिया और अन्य देशों में देखा गया भयावह खाद्य संकट कुछ और नहीं बल्कि अकूत मुनाफा हासिल करने के लिए वैश्विक अनाज कार्टेलों द्वारा ईजाद किया गया था।

भारत में छोटे किसानों द्वारा कृषि संकट झेला जा रहा है जिसे वास्तव में तीन कृषि कानूनों के विरोध में लगभग एक साल तक किये गये किसान संघर्ष में स्पष्ट दिखायी देता है। भारत सरकार द्वारा इन कानूनों को कॉर्पोरेट के लिए लाया गया था। भारत में छोटे किसान और मजदूर वर्ग दोनों ही बड़े कॉर्पोरेट पूँजीपति वर्ग को साझा वर्ग दुश्मन के रूप में चिन्हित करते हैं और पिछले तीन वर्षों से इसके खिलाफ लगातार संघर्ष कर रहे हैं। वे फसल की खरीद के लिए कानूनी गारंटी, बढ़ती कीमतों पर नियंत्रण और कृषि में सरकारी (सार्वजनिक) खर्च बढ़ाने की माँग कर रहे हैं। 16 फरवरी 2024 को प्रस्तावित भारत बन्द का आह्वान संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएमयू) और केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों ने किया है। लगभग 20 करोड़ (200 मिलियन) मेहनतकशों की अपेक्षित भागीदारी और देश का चक्का जाम कर देने की सम्भावना है।

तीन कृषि कानून पेश करते समय भारत के प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने 2020 में घोषणा की थी कि प्रमुख कॉर्पोरेट घरानों की भागीदारी के साथ मुक्त बाजार (राज्य बाजार मण्डियों की जगह) प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देंगे और इससे किसानों को फायदेमन्द कीमतों के साथ लाभ होगा। यदि कृषि बाजारों को विनियमित किया जाना और कृषि को कॉर्पोरेट (निगमों के) नियंत्रण में दे देना एक व्यवहारिक विकल्प था तो ऐसा क्यों है कि यूरोपीय किसान आज बड़े कृषि निगमों के खिलाफ आन्दोलन कर रहे हैं। मौजूदा समय में यह बिल्कुल स्पष्ट है कि उदारीकृत बाजार कृषि आय बढ़ाने में असफल रहे हैं। यह स्पष्ट है कि छोटे किसानों की कीमत पर बड़े कृषि व्यवसाय को लाभ पहुँचाने के लिए आर्थिक सुधार लागू किये जा रहे हैं। इसलिए, भारतीय किसान संगठन (एसकेएमयू) और प्रमुख ट्रेड यूनियन पिछले तीन वर्षों से कृषि, बाजारों पर कॉर्पोरेट नियंत्रण और मेहनतकश जनता के विशाल बहुमत को सस्ते भोजन से वंचित करने की नीतियों के खिलाफ लगातार संघर्ष कर रहे हैं। 16 फरवरी को इन दोनों संगठनों ने ग्रामीण बन्द का आह्वान किया है, जो ऊँची कीमत पर कृषि उपज की खरीद की गारंटी के लिए कानून बनाने और बढ़ती खाद्य कीमतों को नियंत्रित करने की माँग को लेकर एक राष्ट्रव्यापी ग्रामीण हड़ताल है।

यूरोपीय और भारतीय किसान समान रूप से अपनी उपज की कम कीमतों और बड़े कृषि व्यवसाय कॉर्पोरेट नियंत्रण के खिलाफ आन्दोलन कर रहे हैं। यह मेहनतकशों के द्वारा वित्तीय साम्राज्यवाद के खिलाफ चलाये जा रहे वैश्विक संघर्ष को प्रदर्शित करता है।

(लेखक–– डॉ सोमा मोरला, प्रधान वैज्ञानिक (जीनोमिक्स) सेवानिवृत्त, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नयी दिल्ली)