स्वामी अग्निवेश के निधन से देश की जनतांत्रिक शक्तियों ने एक ऐसे मित्र को खो दिया जिसने समाज में व्याप्त हर तरह की बुराइयों, धार्मिक पाखण्ड, अन्धविश्वास और वैज्ञानिक सोच और हाशिये पर पड़े लोगों पर हो रहे अत्याचार के खिलाफ आवाज बुलन्द की।

वैसे तो स्वामी अग्निवेश की पहचान बन्धुआ प्रथा के खिलाफ आन्दोलन के अगुवा के रूप में थी लेकिन देश के किसी हिस्से में अन्याय और उत्पीड़न की घटना की खबर पाते ही स्वामी किसी न किसी रूप में एक सार्थक हस्तक्षेप अवश्य करते थे। अपनी इस सक्रियता की वजह से वह जनवादी तबके के बीच काफी लोकप्रिय थे, लेकिन धार्मिक पाखंड का पर्दाफाश करने की वजह से वह कट्टरपंथी हिन्दुत्ववादी फासिस्ट ताकतों के निशाने पर भी रहे।

दरअसल, स्वामी अग्निवेश अद्भुत वक्ता थे और किसी भगवा वेशधारी द्वारा धार्मिक पाखंड से लोगों को आगाह करने का गहरा प्रभाव पड़ता था जो जनता की अज्ञानता का लाभ उठाकर अय्याशी करने वाले धार्मिक मठाधीशों के व्यवसाय के लिए घातक था। स्वामी अग्निवेश को 1970 से ही, जब से उन्होंने संन्यास लिया, समाज की प्रतिगामी शक्तियों का प्रहार झेलना पड़ा लेकिन उन पर कभी जानलेवा हमला नहीं हुआ। उस समय भी नहीं जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी।

2014 में जब नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के साथ इन ताकतों का राज्य मशीनरी पर पूरी तरह कब्जा हो गया, इन्होंने पहले से ही चिन्हित ऐसे लोगों को निशाने पर ले लिया। जुलाई 2018 में झारखंड के पास भाजपा युवा मोर्चा के गुंडों ने ‘जय श्रीराम’ के नारे लगाते हुए स्वामी अग्निवेश पर घातक हमला किया। वे उन्हें जान से मार देना चाहते थे। स्वामी अग्निवेश झारखंड में पहाड़िया समुदाय के आदिवासियों की समस्या सुनने और उस पर विचार करने गये थे।

बताते हैं कि उस चोट का ऐसा असर रहा कि स्वामी फिर कभी अपने को पूरी तरह स्वस्थ नहीं रख सके। 11 सितम्बर 2020 को उनके निधन के साथ हमारे समय के एक अनूठे ‘योद्धा सन्यासी’ के जीवन का अन्त हो गया।

स्वामी अग्निवेश से मेरी मुलाकात इमरजेंसी के दौरान पत्रकार मित्र अखिलानन्द ने करायी थी जो उन दिनों रोहतक से निकलने वाले स्वामी के अखबार ‘राजधर्म’ में काम करते थे। ‘राजधर्म’ ने इमरजेंसी का अत्यन्त तीखे सम्पादकीय के जरिये विरोध किया था और फिर स्वामी को भूमिगत होना पड़ा था। 1977 में इमरजेंसी समाप्त होने के बाद स्वामी ने बदले हुए राजनीतिक माहौल में चुनाव लड़ा, हरियाणा विधानसभा के सदस्य बने और फिर शिक्षा मंत्री का पद सम्भाला, लेकिन सरकार द्वारा मजदूरों के आन्दोलन के बर्बर दमन के विरोध में मंत्रिपद से इस्तीफा दे दिया।

वैसे तो उम्र में मुझसे वह पाँच साल ही बड़े थे, लेकिन उनका कद बहुत ऊँचा था–– मुझे बार–बार ऐसा महसूस हुआ, हालाँकि स्वामी जी ने सम्बन्धों को दोस्ताना बनाये रखने की हर सम्भव कोशिश की। जबसे उनका जन्तर–मन्तर का ठिकाना बना, हम लोगों का मिलना–जुलना प्राय: होता रहा–– 1990 के दशक के अन्त तक।

1980 में दिल्ली के अनेक जन–संगठनों ने अत्यन्त चर्चित नेता नागभूषण पटनायक की रिहाई के लिए एक समिति का गठन किया। समिति के दो संयोजक बनाये गये–– डी प्रेमपति और स्वामी अग्निवेश। उन दिनों स्वामी जी हरियाणा भवन में रहते थे और इस समिति की पहली बैठक भी उनके कमरे में ही हुई थी।

नागभूषण पटनायक तकरीबन दस साल से आन्ध्र प्रदेश में विशाखापट्टनम की जेल में बन्द थे। वह पार्वतीपुरम षडयंत्र मामले के अभियुक्तों में से एक थे और उन्हें निचली अदालत से मौत की सजा मिली थी। अगस्त 1980 में जब उन्हें अत्यन्त जर्जर अवस्था में आन्ध्र प्रदेश सरकार की निगरानी में ‘एम्स’ में भर्ती किया गया उस समय भी स्वामी जी हम लोगों के साथ बराबर सक्रिय नजर आये।

दरअसल, भारत के अतिवामपंथी आन्दोलन के प्रति उनका नजरिया आम राजनीतिज्ञों से अलग था और वे मानते थे कि ये लोग आदिवासियों, भूमिहीन किसानों, वंचितों के हक की लड़ाई लड़ रहे हैं जिसे सत्ता बन्दूक के बल पर खामोश कर देना चाहती है। लेकिन सरकारी हिंसा के जवाब में जो हिंसा पनपती जा रही थी, उससे वह बहुत बेचैनी भी महसूस करते थे।  

शायद इसी बेचैनी ने 2010 में उन्हें सरकार और माओवादियों के बीच मध्यस्थता करने के लिए प्रेरित किया हो ताकि दोनों पक्षों के बीच शान्ति वार्ता करायी जा सके।

स्वामी ने एक इंटरव्यू में मुझे बताया था कि 6 अप्रैल की घटना से, जिसमें दान्तेवाड़ा में आरपीएफ के 76 जवान मारे गये थे, वह बहुत विचलित थे। वह तहेदिल से चाहते थे कि यह मारकाट समाप्त हो। कारण जो भी हो, पर स्वामी ने निर्विवाद रूप से सदिच्छा के साथ पहल की और जैसा कि बाद के घटनाक्रम से पता चला, वह तत्कालीन गृहमंत्री चिदम्बरम के झाँसे में आ गये।

उनके इस प्रयास की दुखद परिणति हुई–– प्रमुख माओवादी नेता और उनके साथी मारे गये। जिस समय यह तथाकथित मुठभेड़ हुई, प्रमुख माओवादी नेता अपने साथ स्वामी अग्निवेश का पत्र लेकर अपने अन्य साथियों से सम्भावित वार्ता की तारीख तय करने जा रहे थे।

स्वामी का कहना था कि ‘यह मेरे जीवन के लिए सबसे बड़ा आघात था’। इस घटना के बाद स्वामी के प्रति चिदम्बरम के व्यवहार में भी बेरुखी आ चुकी थी और स्वामी को महसूस हुआ कि चिदम्बरम ने उनके साथ छल किया है।

लोगों का मानना था कि यह स्वामी की राजनीतिक परिपक्वता और वाहवाही लूटने की महत्वाकांक्षा का नतीजा था। इस घटना के बाद माओवादियों से उनकी दूरी बहुत बढ़ गयी और कुछ ने तो उन्हें चिदम्बरम की साजिश में शामिल भी मान लिया।

सत्ता में बैठे जल्लादों से सदाशयता से नहीं निपटा जा सकता। उनसे निपटने के लिए जिस राजनीतिक कौशल (कुटिलता) की दरकार होती है उसका स्वामी जी में नितान्त अभाव रहा। यही वजह है कि जब भी स्वामी जी ने राजनीति में हाथ–पैर मारने की कोशिश की, उन्हें अपयश का ही सामना करना पड़ा। अन्ना आन्दोलन से उनका निष्कासन याद किया जा सकता है।

वह बहुत निश्छल स्वभाव के और विशुद्ध मानवतावादी थे। सबसे ‘बना’ कर रखते थे। नक्सलवादियों से भी मधुर सम्बन्ध और वाजपेयी या मुरली मनोहर जोशी या गोपीनाथ मुंडे से भी मधुर सम्बन्ध।

पोकरण विस्फोट के समय उन्होंने प्रधानमंत्री वाजपेयी को जाकर बधाई भी दे दी और विदेश की एक सभा में इसकी भर्त्सना भी कर दी। जब इस मुद्दे पर मैंने, और मेरे ही तरह स्वामी जी से बेतकल्लुफी से बात करने वाले पत्रकार मित्र विनोद अग्निहोत्री ने उन्हें घेरा और इसे घोर अवसरवाद कहा तो उनसे जवाब देते नहीं बना और उन्होंने अपनी गलती स्वीकार कर ली।

अपनी बहुत सारी कमजोरियों के बावजूद हम लोगों के बहुत सारे कार्यक्रमों में स्वामी की सहभागिता प्राय: बनी रही। गरीबों और उपेक्षित जन के प्रति उनके मन में जो करुणा थी, उसमें कोई दिखावा नहीं था। ऐसा मैंने अनेक अवसरों पर महसूस किया था।

मेरे साथ झापा (नेपाल) स्थित भूटानी शरणार्थी शिविरों की यात्रा के समय मैंने उनके उन रूपों को देखा जो किसी भी व्यक्ति को महामानव बना देता है। न केवल भारत में, बल्कि नेपाल और पाकिस्तान के जनतंत्रवादियों और भूटान के शरणार्थियों के बीच भी वह बेहद लोकप्रिय थे।

आज जब हम इतिहास के इस अत्यन्त बर्बर और क्रूर समय में जनतंत्र के लबादे में फासीवाद को झेलने के लिए अभिशप्त हैं, ऐसे मित्रों की और भी ज्यादा जरूरत है जो साहस के साथ कह सकें कि ‘इस पाखण्ड को बन्द करो।’