सामाजिक बदलाव और संस्कृति
सामाजिक-सांस्कृतिक आनन्द स्वरूप वर्मा(प्रस्तुत लेख जनपक्षधर पत्रकार, अफ्रीका, नेपाल समेत तीसरी दुनिया के विशेषज्ञ और ‘समकालीन तीसरी दुनिया’ पत्रिका के सम्पादक आनन्द स्वरूप वर्मा जी के व्याख्यान का संक्षिप्त रूप है। उन्होने यह व्याख्यान 14 मई 2023 को देहारादून में ‘इतिहासबोध’ द्वारा प्रो– लाल बहादुर वर्मा जी की दूसरी स्मृति दिवस के अवसर पर आयोजित गोष्ठी में दिया था।)
–––अनेक विद्वानों ने संस्कृति को अलग–अलग तरह से परिभाषित किया है और इसकी अलग–अलग तरह से व्याख्या की है लेकिन इनमें एक बात पर व्यापक सहमति मिलती है कि संस्कृति में ही प्रतिरोध के बीज छिपे होते हैं। संस्कृति का कोई निरपेक्ष अस्तित्व नहीं होता है। भारत सहित तीसरी दुनिया के देशों में, जहाँ वर्ग–विभाजित समाज है, संस्कृति भी दो प्रकार की होती हैं। एक संस्कृति शासन करने वाले शोषक वर्ग की, और दूसरी संस्कृति उस शोषित–उत्पीडित जनता की, जिन पर राज किया जाता है। इतिहास हमें बताता है कि इन दोनों संस्कृतियों के बीच निरन्तर संघर्ष चलता रहता है। इसी संघर्ष में उत्पीड़ित वर्ग अपनी आजादी को हासिल करने की तरफ बढ़ता है। वर्गीय समाज में प्रत्यक्ष और परोक्ष सभी परिघटनाओं का सम्बन्ध संस्कृति से होता है। यहाँ तक कि भारत में बीजेपी और आरएसएस के कट्टर और प्रतिक्रियावादी राष्ट्रवाद के उदय के पीछे राजनैतिक और आर्थिक कारणों के साथ ही सांस्कृतिक कारण भी मुख्य है। इसके मूल में जन संस्कृति के क्षेत्र में सक्रिय तत्वों की विफलता है जो उन मुद्दों को संबोधित नहीं कर सके जिनसे जनपक्षीय चेतना और प्रतिरोध की संस्कृति का विकास होता है। इसलिए समाज बदलाव के कार्य में लगे कार्यकर्ताओं के लिए ‘प्रतिरोध की संस्कृति’ के महत्व को समझना आज एक मुख्य कार्यभार है। इस कार्यभार के अन्तर्गत अलग–अलग देशों में दमनकारी सत्ताओं के खिलाफ चले सांस्कृतिक आन्दोलनों के इतिहास को जानना–समझना भी बेहद जरूरी है।
लंबे समय तक उपनिवेश होने और अंग्रेजों के चले जाने के बाद भी औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्त होने की दिशा में कोई सचेत प्रयास न करने की वजह से हमारा पूरा तंत्र, मीडिया, बौद्धिक समुदाय मोटे तौर पर यूरोसेंट्रिक–––पश्चिमोन्मुख बन गया। यही वजह है कि हमारे–आपके पास अमेरिका और यूरोप के साहित्य और राजनीति की जितनी जानकारी होती है उसकी तुलना में नेपाल, भूटान जैसे पड़ोसी देशों और दक्षिण एशिया के अन्य देशों की जानकारी नहीं के बराबर होती है। अपने वक्तव्य में मैं इन देशों में और अफ्रीकी देशों में चले जन संघर्षों में ‘प्रतिरोध की संस्कृति’ पर संक्षेप में चर्चा करूँगा और इसके महत्व को रेखांकित करूँगा। आज प्रतिक्रियावादी संस्कृति जनसंस्कृति पर हावी होती जा रही है। ऐसे समय में सभी जन संस्कृतिकर्मियों को इतिहास चेतना से लैस होकर वर्तमान समय के कार्यभार को समझना बेहद आवश्यक है।
इस सन्दर्भ में सबसे पहले मैं पड़ोसी देश नेपाल के सांस्कृतिक आन्दोलनों का जिक्र करना चाहूँगा जिनसे सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया तेज हुई। नेपाल में राजतंत्र और संवैधानिक राजतंत्र के बीच की एक अवधि में राणाओं का शासन था जिसे ‘राणाशाही’ के नाम से जाना जाता है। यह शासन 1846 से 1851 तक यानी 104 वर्ष तक चला था। इस दौरान जनता में ज्ञान–विज्ञान और आधुनिक विचारों को पढ़ने–लिखने तक पर पाबन्दी थी। राणाओं के दमनकारी शासन के खिलाफ समय–समय पर जनता प्रतिरोध करती रही। ऐसा ही एक प्रतिरोध राणा भीम शमशेर के शासन के दौरान 1929 में काठमांडो में हुआ था। यह प्रतिरोध अपने आप में अभूतपूर्व था क्योंकि इसके पीछे का कारण पुस्तकालय खोलने की माँग थी जिसके समर्थन में कुछ युवकों ने एक हस्ताक्षर अभियान चलाया था। भीम शमशेर को पता था कि अगर नौजवान नये विचारों से परिचित हुए तो उनका शासन ज्यादा समय तक टिक नहीं पाएगा। इसलिए इस प्रतिरोध को कुचलने के लिए शमशेर ने हर सम्भव प्रयास किए। अभियान चलाने वाले लगभग 50 युवकों को गिरफ्तार कर लिया गया और उन पर राजद्रोह का मुकदमा लगाया गया। कुछ पर 100 रुपये का जुर्माना लगाया गया। यह आन्दोलन नेपाल के इतिहास में ‘पुस्तकालय पर्व’ नाम से हमेशा के लिए अमर हो गया। नेपाल में ‘पर्व’ आन्दोलन/घटना के लिए इस्तेमाल किया जाता है।
दमनकारी सत्ताएँ जनता के पढ़ने–लिखने से डरती हैं, वह जनता के प्रबुद्ध होने से भय खाती हैं। आज हम अपने देश भारत की हालत को ही देखेँ––जनता द्वारा जन संघर्षों के दौरान हासिल की गयी चेतना को आज शासक वर्ग किस तरह खत्म करने पर आमदा है। वह समय के पहिये को पीछे धकेलने का काम कर रहा है। सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग कठमुल्लापन और अंधविश्वास को जोर–शोर से महिमामंडित कर रहे है। जनता की चेतना पर रोज नये हमले कर उसे कुन्द करने का प्रयास किया जा रहा है। इसकी अभिव्यक्ति हर रोज देखने को मिल रही है। अभी हाल ही में कर्नाटक चुनाव के दौरान खुद प्रधानमंत्री मंच से बजरंगबली के नारे लगा रहे थे और चुनाव आयोग इन सबसे आंखे बन्द किये बैठा रहा। बहुत सुनियोजित ढंग से ‘डी–स्कूलिंग’ की प्रक्रिया चलायी जा रही है।
नेपाल में इसी तरह का एक और बड़ा सांस्कृतिक आन्दोलन राणाशाही के ही दौरान 1947 में काठमांडो से शुरू हुआ था। इतिहास में इसे ‘जयतु संस्कृतम’ नाम से जाना जाता है। इस आन्दोलन की शुरुआत संस्कृत पढने वाले छात्रों ने की थी। इन छात्रों ने अधिकारियों को एक माँगपत्र देकर यह आग्रह किया था कि राणा परिवार के सदस्यों की तरह उन्हें भी संस्कृत के अलावा मानवाधिकार, नागरिक शास्त्र, अर्थशास्त्र और इतिहास पढ़ाया जाए। छात्रों की इस माँग को राणा शासक ने सिरे से खारिज कर दिया और माँग उठाने वालों में से प्रमुख लोगों पर कार्रवाई कर उन्हें देश निकाला दे दिया। इन छात्रों ने भारत आकर बनारस में शरण ली। उस समय बनारस में नेपाली कांग्रेस गुप्त रूप से काम कर रही थी। इन छात्रों का सम्पर्क नेपाली कांग्रेस के नेता बिश्वेश्वर प्रसाद कोईराला से हुआ। दोनों के साझा प्रयास के चलते इस आन्दोलन में तेजी से विस्तार हुआ और अन्य लोग भी इससे जुड़ते चले गये। आगे चलकर इस आन्दोलन ने राणाशाही को खत्म करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
नेपाल के इन दोनों उदाहरणों से यह साफ है कि सांस्कृतिक आन्दोलनों ने पहलकदमी लेकर राजनैतिक आन्दोलन की नींव बनने का काम किया। 1936 में उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द ने लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम अधिवेशन में कहा था कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है। इन आन्दोलनों से प्रेमचन्द की इन्ही बातों की पुष्टि होती है। ऐसे अनेक उदा हरण मौजूद हैं जब राजनीतिक आन्दोलन की स्थिति पहल लेने की नहीं बन पा रही थी और सांस्कृतिक आन्दोलनों ने पहल की और फिर राजनैतिक आन्दोलन का रूप लिया। इससे हम समझ सकते हैं कि समाज बदलाव में संस्कृति का सवाल बेहद महत्वपूर्ण सवाल है।
हममें से बहुत सारे लोग नेपाल के इन आन्दोलनों से परिचित ही नहीं है। पड़ोसी देशों में पाकिस्तान के अलावा और किसी की खबरें हमें मीडिया में नहीं मिलतीं––उनमें भी नहीं जो तथाकथित मेनस्ट्रीम मीडिया के विकल्प के रूप में यू–ट्यूब पर आज छाए हुए हैं। और पाकिस्तान पर भी जो जानकारी हमें दी जाती है वह बस कश्मीर, आतंकवाद या हिन्दू–मुस्लिम बहस तक ही सीमित रहती है। क्या कभी हमारे मीडिया में आपने ‘औरत मार्च’ की कोई खबर देखी है जो प्रति वर्ष मार्च में महिला दिवस के अवसर पर सरकारी अवरोधों को तोड़ते हुए पाकिस्तान की महिलाएँ निकालती हैं और औरतों पर हो रहे जुल्म के विरोध में आवाज बुलन्द करती हैं या अभी मई दिवस के अवसर पर इस्लामाबाद, लाहौर, रावलपिंडी आदि में निकले मजदूरों की रैलियों की तस्वीरें कभी देखीं जब लाल झंडों से और नारों से पूरा माहौल आन्दोलित हो गया?
पाकिस्तान में सांस्कृतिक स्तर पर प्रतिरोध का लंबा इतिहास है। यह वहाँ के साहित्य में दिखायी देता है। वहाँ दमन और प्रतिरोध का सिलसिला पाकिस्तान की स्थापना के समय से ही शुरू हो गया था। लगातार सैनिक तानाशाही और सत्ता पर धर्म गुरुओं के वर्चस्व से त्रस्त जनता ने समय समय पर अपने गुस्से का इजहार किया। ऐसा ही एक ऐतिहासिक क्षण 13 फरवरी 1986 को लाहौर में देखने को मिला जब सरकार द्वारा प्रतिबंधित क्रान्तिकारी शायर फैज अहमद फैज की नज्म ‘हम देखेंगे–––’ को पाकिस्तान की मशहूर गायिका इकबाल बानो ने एक कार्यक्रम में गाया। दो वर्ष पूर्व दिवंगत हुए फैज का उस दिन जन्मदिन था और उनके चाहने वालों ने ‘फैज मेला’ का आयोजन किया था। सैनिक तानाशाह जिया–उल–हक ने पाकिस्तानी समाज का इस्लामीकरण करने की कोशिश में साड़ी पहनने पर प्रतिबंध लगा रखा था। लेकिन श्रोताओं से खचाखच भरे हाल में काली साड़ी में जब इकबाल बानो ने प्रवेश किया तो लोगों का उत्साह दुगुना हो गया। इकबाल बानो ने गाना शुरू किया और जैसे ही नज्म की पंक्तियाँ ‘सब ताज उछाले जाएँगे, सब तख्त गिराए जाएँगे’ लोगों के कानों में पड़ीं, सारा हॉल नारों से गूँज उठा। यह गूँज तानाशाह के कानों तक पहुंची और कार्यक्रम खत्म होते ही आयोजकों की गिरफ्तारी शुरू हो गयी। इकबाल बानो की आवाज में फैज की यह नज्म आज भी सारी दुनिया में तानाशाही का विरोध करने वाले योद्धाओं को प्रेरणा देती है। सांस्कृतिक प्रतिरोध की यह एक दुर्लभ मिसाल है।
पाकिस्तान से ही जुड़ी एक घटना का जिक्र करने के बाद मैं पड़ोसी देशों के प्रसंग का समापन करूँगा। दरअसल यह अकल्पनीय है कि पाकिस्तान की कोई घटना नेपाल में सत्ता की चूलें हिला दे। लेकिन ऐसा हुआ। 4 अप्रैल 1979 को पकिस्तान में भुट्टों को फाँसी दी गयी और इस घटना के खिलाफ नेपाल के छात्रों ने एक आन्दोलन शुरू कर दिया था। वे इस घटना को अपने देश के दमनकारी राजतंत्र व्यवस्था से जोड़कर देख रहे थे। फाँसी के लिए जिम्मेदार जिया–उल–हक में उन्हें एक निरंकुश राजतंत्र की छवि नजर आ रही थी। यह आन्दोलन बहुत कम समय में ही समूचे नेपाल में फैल गया। इस आन्दोलन के जरिये नेपाल की जनता अपने देश की दमनकारी सत्ता के खिलाफ बगावत पर उतर आयी थी। आन्दोलन से घबराए राजा वीरेंद्र को मजबूरन ऐलान करना पड़ा कि वह जनतंत्र बहाल कर देंगे बशर्ते जनता का बहुमत इसके पक्ष में हो। उनकी इस घोषणा के बाद ही आन्दोलन थमा। नेपाल में 1980 का चर्चित जनमत संग्रह इसी आन्दोलन की देन था। हालाँकि इस जनमत संग्रह में धांधली हुई और सही तस्वीर जनता के सामने नहीं आ सकी और राजा ने यह झूठ बोल दिया कि बहुमत का विश्वास अभी भी राजतंत्र में ही है। लेकिन इस आन्दोलन की सफलता व्यापक थी क्योंकि इसने पहली बार राजा को जनमतसंग्रह तक कराने के लिए मजबूर कर दिया था। इस आन्दोलन से अनेक संस्कृतिकर्मी जुड़े और उन्होंने आन्दोलन को समृद्ध किया था। इन्ही संस्कृतिकर्मियों ने आगे चलकर 1990 के जनआन्दोलन में राजतंत्र की जगह संवैधानिक राजतंत्र स्थापित करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इन आन्दोलनों के दौरान क्षेत्रीय भाषाओं में अनेक मुक्तिगीत लिखे और गाए गये जिसके चलते मुक्ति की लड़ाई में जनता की भागीदारी सुनिश्चित हो सकी थी। रालफा ग्रुप के रामेश श्रेष्ठ और उनके साथियों के ‘गाँव गाँव से उठो, बस्ती बस्ती से उठो–––’ जैसे कुछ नेपाली गीत इतने मशहूर हुए कि वे देश की सीमा लाँघकर आज भी पूरी दुनिया में मुक्ति संघर्ष के पर्याय बन गये हैं। नेपाल के संघर्षों ने यह सिद्ध किया कि प्रतिरोध की संस्कृति की ताकत जबर्दस्त होती है।
लेकिन इस संस्कृति को व्यवहार में लाने वाले लोगों के सामने सबसे बड़ी चुनौती तब पैदा होती है जब उनका साबका उस शासक वर्ग से पड़ता है जो अक्सर मानवाधिकार का चोला पहने रखता है। वैसे, कुछ घटनाएँ इसके इस छद्म चोले को उतार फेंकती हैं। यह कैसी विडम्बना है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत की बगल में दुनिया का सबसे निरंकुश राजतंत्र भूटान है जो भारत की मदद से ही अपनी जनता को प्रताड़ित करता रहा है। 1980–90 में भूटान की सरकार ने लगभग 16 फीसदी ल्होत्सम्पा (नेपाली मूल के भूटानी नागरिक) आबादी को इसलिए गैर–नागरिक घोषित कर दिया क्योंकि इन्होंने राजा के नाम लिखे एक पत्र के जरिये न्यूनतम मानव अधिकारों की माँग की थी। इसके जवाब में इन्हें जबरन देश की सीमा से बाहर खदेड़ दिया गया। जान बचा कर भारत की सीमा में आये इन भूटानी नागरिकों के प्रति भारत सरकार ने बेहद अमानवीय रुख अपनाया। उन्हें ट्रकों में भरकर नेपाल की सीमा में छोड़ दिया गया जहाँ वे राहत कैम्पों में बेहद बुरी जिन्दगी जीने को विवश हो गये। पत्रकारों की एक टीम ने राहत शिविरों का दौरा करने के बाद अपनी रिपोर्ट में एक जगह बताया है कि एक लड़के को पुलिस ने मात्र इसलिए तीन साल के कैद की सजा सुनाई क्योंकि उसके घर से पुलिस को राजनीति शास्त्र की पुस्तक मिली थी। वह लड़का भारत में पढ़ाई करता था और वह किताब उसके पाठ्यक्रम की थी। उसने राजा के सैनिकों को यह बताया भी लेकिन सैनिकों का कहना था कि ‘पॉलीटिक्स’ पढ़ कर वह राजा के खिलाफ साजिश करेगा।
भारत सरकार ने भूटान की राजशाही का हमेशा समर्थन किया। यह समर्थन 20 सालों तक समय समय पर सत्ता में रही सभी पार्टियों की सरकारों ने किया। इस समर्थन को सत्ताधारी दल ‘भौगोलिक–राजनीतिक मजबूरी’ (जियो–पोलिटिकल कम्पल्सन) कहते थे हालाँकि यह भी वे ‘ऑफ दि रेकॉर्ड’ कहते थे। ऐसे समय में जनता के बीच काम करने वाले लोगों को बहुत कठिन दौर से गुजरना पड़ता है। जैसा कि मैंने शुरू में ही कहा था, हमारा मीडिया भी एक औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रसित रहा है जिस कारण वह पश्चिमी देशों की तरफ बहुत ललक भरी निगाहों से देखता है, वहीं की खबरे दिखाता है और छोटे देशों के प्रति एक हिकारत का भाव रखता है। लेकिन यह मानसिकता केवल शासक वर्ग तक ही सीमित नहीं है––सामान्य जन भी यही सोचते हैं कि छोटा देश मतलब छोटी सम्प्रभुता, बड़ा देश बड़ी सम्प्रभुता। सम्प्रभुता किसी देश के भौगोलिक आकार या आर्थिक हैसियत से नहीं नापी जा सकती है। शासक वर्ग के साथ–साथ यह सोच जनता में भी तेजी से व्याप्त हो रही है। ये सारे सवाल सांस्कृतिक आन्दोलन से जुड़े हुए हैं। कुछ देशों में इन सवालों को हल करने में संस्कृतिकर्मियों का बड़ा योगदान रहा है। राजनीति से ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती है। संस्कृतिकर्मियों ने ही अलग–अलग देशों में अलग–अलग समय पर इन स्थितियों को बेहतर बनाया है। नेपाल में राजतंत्र के खिलाफ 10 साल तक चले माओवादी आन्दोलन का भारत सरकार ने विरोध किया था लेकिन भारत के जनतंत्र पसन्द अनेक लोगों ने उसका समर्थन भी किया था। ऐसे लोगों को भी, जो कम्युनिस्ट नहीं थे लेकिन राजतंत्र के विरोधी थे, भारत सरकार ने माओवादी कहा था। सरकारें अपनी सुविधा के अनुसार अपने विरोधियों को अलग–अलग खानों में बांटती रहती है।
2014 के बाद से तो हमारे देश में ऐसी स्थिति पैदा हुई है कि सरकार की दमनकारी नीतियों का विरोध करने वालों को राष्ट्र का दुश्मन घोषित करने का प्रयास किया जा रहा है। अगर विरोध करने वाला मुस्लिम है तो उसे आतंकवादी घोषित कर दिया जाता है। वहीं अगर विरोध करने वाला हिन्दू है तो उसे माओवादी कहकर बदनाम किया जा रहा है। सरकार से असहमति जताने का दायरा लगातार सिकुड़ता जा रहा है। इसका सबसे खतरनाक पहलू यह है कि अपने इन जनतंत्र विरोधी कृत्यों के लिए सरकार जनता के एक वर्ग का समर्थन भी जुटा ले रही है। सरकार की इस सफलता का एक बड़ा कारण मीडिया का इसके साथ मिल जाना है। प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रानिक, वह सुबह–शाम सरकार के झूठे एजेंडे को सच बता कर प्रचारित–प्रसारित कर रहा है। वैसे, मीडिया का ऐसा इस्तेमाल केवल बीजेपी के आने के बाद ही नहीं हुआ है–– लम्बे समय से इसकी कोशिशें दूसरी सरकारें भी करती आयी हैं। मुझे याद है, 2006 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने माओवाद प्रभावित इलाकों से संबद्ध राज्यों के मुख्यमंत्रियों की एक कांफ्रेस बुलाई थी। इस कांफ्रेस में मनमोहन सिंह ने मुख्यमंत्रियों को सलाह दी थी कि वे मीडिया को ‘को–ऑप्ट’ करें और ‘मीडिया प्रबंधन का कौशल’ विकसित करें। उस समय मनमोहन सिंह भी मीडिया की ताकत का इस्तेमाल अपने हिसाब से करने के फायदे को समझते थे। लेकिन मौजूदा मोदी सरकार ने ‘को–ऑप्ट’ करने के झंझट से बचने के लिए मीडिया को खरीद ही लिया। रवीश कुमार को हटाने की बजाय एनडीटीवी को खरीद लेना ज्यादा आसान लगा। पत्रकार पी– साईनाथ की भविष्यवाणी कि आने वाले दिनों में समूचे समाचार चैनलों पर अम्बानी और अडानी का कब्जा होगा, सच साबित हुई। आप खुद ही देख लीजिए, आज हमारे पास कोई ऐसा चैनल नहीं है जो सच्चाई जनता को बता सके। व्यावसायिक चैनलों में ले दे कर न्यूज–24 है और कुछ गिने चुने पत्रकार हैं जिनसे फिलहाल बमुश्किल कुछ सही खबरें मिल जाती हैं।
लेकिन इतिहास हमें सिखाता है कि जब भी इस तरह का सांस्कृतिक संकट पैदा होता है तो ‘प्रतिरोध की संस्कृति’ अपने लिए जगह बना ही लेती है। यह स्थिति लम्बे समय तक बरकरार रहने वाली नहीं है। बेहद छोटे–छोटे स्तर पर जनपक्षधर लोग अपने वेब साइट्स, यू–ट्यूब चैनलों, पत्र–पत्रिकाओं के जरिये सक्रिय हो गये हैं और तेजी से दर्शकों/पाठकों को अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं। इसके अलावा समाज के बहुत सारे तबके अपने शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं भले ही उन संघर्षों की खबरें सुनियोजित ढंग से दबायी जा रही हों। जरूरत है इन संघर्षरत लोगों के साथ खुद को जोड़ने की। हम इस हॉल में आज बैठे हैं। कल अगर इसकी कोई दीवार गिर जाती है तो हमें आश्चर्य होगा कि अरे, कल तो यह एकदम सही–सलामत दिखाई दे रही थी फिर अचानक गिर कैसे गयी! लेकिन दीवार के अन्दर की रेत और सीमेंट के लिए यह हादसा ‘अचानक’ घटित होता नहीं लगेगा। दरअसल कुछ भी अचानक नहीं होता। आन्दोलनों के साथ, प्रतिरोध के इन प्रयासों के साथ जब आप खुद को किसी न किसी रूप में जोड़ लेते हैं तो दिखायी देने लगता है कि यह दमनकारी व्यवस्था निरन्तर कमजोर होती जा रही है और इसका अन्त निकट है। जिस दिन यह व्यवस्था ध्वस्त होगी तो लगेगा कि यह अचानक हुआ है लेकिन वह अचानक नहीं बल्कि सतत और लम्बी प्रक्रिया का नतीजा होगा।
अब मैं संस्कृति के और भी व्यापक पहलू की चर्चा करना चाहूँगा। यहाँ हम अफ्रीका के उन तीन देशों अंगोला, मोजाम्बीक और गिनी–बिसाऊ के बारे में बात करेंगे जो सांस्कृतिक आन्दोलनों के प्रभाव से ही अपनी आजादी हासिल करने में सफल रहे थे। ये तीनों देश लम्बे समय तक पुर्तगाल के उपनिवेश रहे थे। औपनिवेशिक सत्ता ने अपने नागरिकों पर अनेक तरह की पाबन्दियाँ लगायी हुयी थी। राजनीतिक दलों पर पूरी तरह प्रतिबंध था। ऐसे में सांस्कृतिक आन्दोलनों ने पहल लेकर राजनैतिक आन्दोलनों की शुरुआत की थी। इन सांस्कृतिक आन्दोलनों की शुरुआत पुर्तगाल की राजधानी लिस्बन में पढ़ने वाले इन देशों के छात्रों ने की थी। इन छात्रों में मुख्य रूप से गिनी–बिसाऊ के अमिल्कर कबराल, अंगोला के अगोस्तिनो नेतो और मोजांबीक के एदुआर्दाे मोन्दालेन शामिल थे। अमिल्कर कबराल एक कृषि वैज्ञानिक के साथ ही प्रतिष्ठित संस्कृतिकर्मी और विचारक के रूप में जाने जाते हैं, जबकि अगोस्तिनो नेतो की एक बड़े कवि के रूप में पहचान है। 70 के दशक के शुरुआती वर्षों में इन जैसे अनेक संस्कृतिकर्मियों ने पुर्तगाल की राजधानी लिस्बन में एक सांस्कृतिक संगठन की नींव रखी। संगठन के पुर्तगाली नाम का हिन्दी अनुवाद होगा––‘चलो अफ्रीका की खोज में’। यह संगठन धीरे–धीरे मजबूत और व्यापक होता गया। कुछ ही समय बाद इन लोगों ने अपने अपने देशों में इस संगठन की शाखाएँ खोलीं। कालान्तर में इन सांस्कृतिक संगठनों ने राजनैतिक संगठनों का स्वरूप हासिल कर लिया था। अंगोला में इसने ‘एमपीएलए’ (पीपुल्स मूवमेंट फॉर दि लिबरेशन ऑफ अंगोला), मोजांबीक में ‘फ्रेलिमो’ (फ्रंट फॉर दि लिबरेशन ऑफ मोजाम्बीक) और गिनी–बिसाऊ में ‘पीए आइजीसी’ (अफ्रीकन पार्टी फॉर दि इंडिपेंडेंस ऑफ गिनी बिसाऊ ऐंड केप वर्डे) नामक राजनीतिक संगठनों की नींव रखी। इन तीनों राजनीतिक संगठनों ने औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष चलाया और 1975 आते–आते ये देश पुर्तगाली उपनिवेशवाद से आजाद हो गये। यह आजादी सांस्कृतिक संगठनों की पहल के चलते ही सुनिश्चित हो सकी थी।
अफ्रीका के इन देशों का इतिहास हमें वर्तमान के कार्यभारों को चिन्हित करने में मददगार है। भारत के मौजूदा माहौल में ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे शोषित जनता के राजनीतिक संगठनों ने खुद को किसी सुरक्षित घेरे में समेट लिया हो। ऐसे समय में सांस्कृतिक संगठनों को सामने आ कर पहलकदमी लेनी चाहिए। लेकिन इनकी तरफ से भी पहलकदमी के संकेत नजर नहीं आ रहे हैं। आखिर ऐसा न करने के पीछे क्या समस्या है? पिछले दिनों की घटनाओं पर जिस प्रकार हिन्दी पट्टी के लेखकों में मौन पसरा हुआ है इससे साफ जाहिर होता है कि इनमें साहस की कमी है। हिन्दी पट्टी में लम्बे समय से किसी व्यापक सामाजिक आन्दोलन का न होना भी इसकी एक वजह हो सकती है। कबीर के बाद शायद ही समाज सुधार से संबंधित कोई बड़ा आन्दोलन हिन्दी पट्टी में देखने को मिला हो। वहीं दूसरी तरफ महाराष्ट्र, तमिलनाडु में या बंगाल में सामाजिक और सुधारवादी आन्दोलनों का एक लम्बा इतिहास मौजूद रहा है जिसकी निरन्तरता किसी न किसी रूप में आज भी हमें देखने को मिलती है। शायद यही वजह है कि गौरी लंकेश, एमएम कलबुर्गी, गोविन्द पानसारे, डा– दाभोलकर जैसे तमाम लोग इन्हीं राज्यों में दिखाई दे रहे हैं।
अफ्रीकी देश, जो आर्थिक दृष्टि से भारत के मुकाबले बेहद पिछड़े हुए हैं, वहाँ सत्ता के खिलाफ आन्दोलन एक आम बात है। इन आन्दोलनों का आधार ऐसे अनेक बुद्धिजीवी हैं जिन्होने साहस के साथ दमनकारी सत्ताओं का हमेशा मुकाबला किया है। इन्हीं में से एक नाइजीरियाई कवि और नाटककार वोले सोयिंका हैं जिन्हें 1986 में साहित्य में नोबल पुरस्कार मिल चुका है। अमेरिकी चुनाव के दौरान उन्होंने घोषणा की थी कि अगर ट्रम्प चुनाव जीतता है तो वह अमेरिका छोड़ देंगे। जैसा इन्होने कहा वैसा किया भी। ट्रम्प के चुनाव जीतने के बाद उन्होने पत्रकारों की एक कान्फ्रेंस में अपने ग्रीन कार्ड को फाड़ डाला और वापस नाइजीरिया लौट गये। जिस समय उन्होंने यह साहसिक काम किया, उनकी उम्र 80 वर्ष से अधिक थी। उन्होने ताउम्र दमनकारी सत्ताओं का विरोध किया। 1965 में जब वे बमुश्किल 30 साल के रहे होंगे, अपने देश में चुनावी धांधली का भंडाफोड़ करने के लिए एक रेडियो स्टेशन में बन्दूक लेकर घुस गये थे। उन्होने बन्दूक दिखाकर समाचार वाचक से माइक छीना और फिर रेडियो पर देश की जनता को संबोधित करते हुए बताया कि कैसे मौजूदा सरकार ने चुनाव में धांधली की और मीडिया के झूठ का पर्दाफाश किया था। इस काम के लिए उन्हें जेल में डाल दिया गया था। इसी तरह उन्होने 90 के दशक में अपने देश में सैनिक तानाशाह सानी अबाचा का भी पुरजोर विरोध किया था। इस तानाशाह ने प्रख्यात पर्यावरणविद, कवि और नाटककार केन सारो वीवा को फाँसी दे दी थी। सोयिंका ने अपने देश की जनता को जागृत करने के लिए एक गुप्त रेडियो की भी शुरुआत की थी। वह हमेशा सच्चे लोकतंत्र के पक्ष में खड़े रहे। उनके इस संघर्ष से वहाँ की नौजवान पीढ़ी को ऊर्जा मिलती है––– इसी तरह 2004 में नाइजीरिया के ही उपन्यासकार चीनुआ एचेबे ने देश के सर्वोच्च सम्मान ‘कमांडर ऑफ दि फेडरल रिपब्लिक’ को यह कहते हुए ठुकरा दिया कि सत्ता में बैठे लोगों ने देश की जो दुर्दशा कर रखी है उसे देखते हुए वह सरकार से कोई सम्मान नहीं ले सकते।–––अक्सर जिन देशों को पिछड़ा कहा जाता है उन देशों के लेखकों के अन्दर अधिक साहस देखने को मिलता है। लेकिन भारत देश जिसे विकसित कहा जा रहा है वहाँ यह साहस कहीं नही दिखता। आज मुख्य सवाल यह है कि इस समस्या से बाहर आने का क्या रास्ता होगा?
केन्या में न्गुगी वा थ्योंगो ने ‘मातीगारी’ नाम से एक उपन्यास लिखा था। इस उपन्यास के मुख्य पात्र का नाम मातीगारी है। वह लोगों से सवाल पूछता है कि आखिर ऐसी क्या वजह है जिसके चलते शासक वर्ग के सभी लोग इतने मजे में है और हम इतनी मेहनत करने के बाद भी निर्धन और उपेक्षित हैं? यह पात्र केन्या में जीवन्त हो चला था। यहाँ तक कि तत्कालीन राष्ट्रपति डेनिएल अरप मोई ने मातीगारी की बढ़ती लोकप्रियता को देखकर उसके खिलाफ वारंट जारी कर दिया था। उन्हें यह बात बाद में पता चली कि यह तो एक उपन्यास का पात्र है। यह ताकत होती है प्रतिरोध की संस्कृति की। सरकार उस उपन्यास से इतनी भयभीत हो गयी थी कि उपन्यास की सभी प्रतियों को जब्त कर लिया गया था। यह घटना समाज को आन्दोलित करने में एक संस्कृतिकर्मी की भूमिका को रेखांकित करती है। जितनी भी दमनकारी सत्ताएँ है उन्हें एके 47 या तोप–गोलों से भय नहीं लगता बल्कि वे कलम और किताबों से डरती हैं। आज यह डर हम अपने देश के निरंकुश शासक वर्ग में भी देख रहे हैं।
भाषा और संस्कृति की ताकत बहुत जबरदस्त होती है। इसे हम एक घटना के जरिये समझ सकते हैं। यह घटना भारत के पूर्व चीफ जस्टिस जेएस वर्मा ने अपने संस्मरण में लिखी है। उन्होंने अपने बचपन की एक घटना का जिक्र करते हुए लिखा है कि ष्मुझे याद है कि बचपन में मैने विख्यात कवि सियारामशरण गुप्त की कविता ‘एक फूल की चाह’ पढ़ी थी। इस कविता में बेहद मार्मिक ढंग से समाज में व्याप्त छुआछूत का विवरण है। इस कविता में एक बीमार हरिजन बच्ची, जो अपनी मौत के करीब है, मंदिर में चढ़ाए गये फूल पाने की इच्छा जाहिर करती है। उसका पिता उसकी आखिरी इच्छा पूरी करना चाहता है लेकिन उसे मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया जाता। अपनी बच्ची की आखिरी इच्छा पूरी न कर पाने के कारण वह क्षुब्ध है। कविता यहीं खत्म हो जाती है। इस कविता ने मेरे मन मस्तिष्क पर एक अमिट छाप छोड़ दी। मेरे ऊपर इस कविता की छाप तब तक मौजूद रही जब मैंने 1988 में नाथद्वारा के मंदिर में पूजा पाठ करने के लिए बिना किसी भेदभाव के दलितों के पक्ष में अपना फैसला दिया था।ष् यानी एक छोटी सी कविता से प्रेरित होकर उन्होंने इतना बड़ा फैसला दिया था।
आज हर देश में दो तरह की संस्कृतियाँ हैं। एक प्रगतिशील संस्कृति जो जनता की संस्कृति है और दूसरी दमनकारी संस्कृति यानी सत्ता की संस्कृति जिसे भारत की परिस्थितियों में ब्राह्मणवादी या मनुवादी संस्कृति कह सकते हैं। आज इस संस्कृति का कॉरपोरेट संस्कृति से नापाक गठजोड़ हो गया है। इस गठजोड़ के चलते इन्हें लूट करने की खुली छूट मिल गयी है। आज संस्कृतिकर्मियों के सामने इस गठजोड़ को समझने और तोड़ने का बेहद जरूरी कार्यभार मौजूद है। सत्ता का चरित्र दमनकारी होता ही है। ऐसा नहीं है कि मोदी के आने से पहले की सत्ताएँ दमनकारी नहीं थी। इसे हम एक घटना से समझ सकते हैं। यह घटना इमरजेंसी लगने से कुछ समय पहले की है। शमीम रहमानी नामक लखनऊ की एक महिला ने अपने प्रेमी डॉक्टर हरिओम गौतम की हत्या कर दी थी। ह्त्या की आरोपी शमीम रहमानी को आजीवन कारावास की सजा मिली। यह मामला काफी चर्चित रहा। शमीम रहमानी ने अभी जेल में महज दो वर्ष ही बिताए थे कि उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल चेन्ना रेड्डी ने रहमानी की सजा माफ कर दी और वह रिहा हो गई। उसी दौरान आंध्रप्रदेश के दो युवा आदिवासी किसान किस्टा गौड और भूमैया के नेतृत्व में एक आन्दोलन हुआ। इस आन्दोलन में एक जमींदार की मौत हो गयी जिसके लिए इन दोनों नौजवानों को हत्या का दोषी मानकर मौत की सजा सुनायी गयी। इनकी सजा के विरोध में देश की जनतांत्रिक ताकतों ने आवाज बुलन्द की। हिन्दी, बांग्ला, पंजाबी, तेलुगु आदि भाषाओं में ढेर सारी कविताएँ लिखी गयीं। दिल्ली में समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडीस के साथ एक प्रतिनिधिमंडल इनकी सजा मांफ करने के लिए राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से मिला लेकिन राष्ट्रपति ने यह अनुरोध अस्वीकार कर दिया। जॉर्ज फर्नांडीस ने राष्ट्रपति से कहा कि अभी कुछ ही समय पहले उत्तर प्रदेश के राज्यपाल ने शमीम रहमानी की सजा माफ की है तो आप इन नौजवानों की क्यों नहीं कर सकते? इस पर राष्ट्रपति आगबबूला हो गये। उन्होंने कहा कि शमीम रहमानी एक नवाब परिवार की थी जिससे एक चूक हो गयी लेकिन ये लोग जिस तबके से आते हैं उसका तो पेशा ही अपराध है। जॉर्ज फर्नांडीस ने इस घटना का विवरण अपने साप्ताहिक अखबार ‘प्रतिपक्ष’ में प्रकाशित किया था। इससे सत्ता का चरित्र उजागर होता है। कॉरपोरेट पूंजी के साथ उसके गँठजोड़ ने उत्पीड़ित व्यापक जनसमुदाय के प्रति उसकी हिकारत को और बढ़ाया है।
इसीलिए भारत की परिस्थितियों में ब्राह्मणवादी संस्कृति और कॉरपोरेट संस्कृति के खतरनाक गठजोड़ को समझना जरूरी है। हमने देखा है कि संस्कृति में ही प्रतिरोध के बीज होते हैं। हमें अपनी विरासत के सकारात्मक पहलुओं की पहचान कर उन्हें आज की जन संस्कृति से जोड़कर जीवन्त बनाना होगा। हमारे सामने यह एक बड़ी चुनौती है। हमारे देश में जन संस्कृति की दो धाराएँ मौजूद रही हैं। पहली प्रगतिशील या वामपंथी धारा, दूसरी फूले, पेरियार, अंबेडकर की धारा जिसने ब्राह्मणवाद के खिलाफ निरन्तर संघर्ष चलाया है। आज हमारे सामने मुख्य सवाल यह है कि कैसे इन दोनों संस्कृतियों के बीच एकता कायम कर कॉरपोरेट––ब्राह्मणवादी संस्कृति का मुकाबला किया जाए। जनपक्षधर लोगों के सामने यह एक मुख्य चुनौती है। इसे चुनौती के रूप में चिन्हित करना सबसे पहला कार्यभार है। इस चुनौती को समझने के बाद ही हम इसके खिलाफ निर्णायक संघर्ष चला सकते हैं। तभी हम यह तय कर सकते है कि इस कार्यभार में मुख्य शक्ति कौन है, कौन–कौन सी शक्तियाँ हमारे साथ कुछ कदम चल सकती हैं और कौन लम्बी दूरी तक। अगर हम इस चुनौती का सामना कर सके तो हम संस्कृति से पैदा बहुत सारी समस्याओं को, जिनके कारण आज हमारा पूरा समाज संकटग्रस्त है, दूर कर सकते हैं।
धन्यवाद।
(इसे मोहित पुण्डीर ने ट्रांसक्राइब किया है।)
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