तीसरी दुनिया : वायरस पर नियंत्रण के बहाने दुनिया को एबसर्ड थिएटर में बदलती सरकारें
राजनीति आनन्द स्वरूप वर्मा(इस प्रहसन का पटाक्षेप कोरोना संकट की समाप्ति के साथ होगा। सरकार को पता है कि उसकी सारी नाकामयाबियों पर कोरोना भारी पड़ जायेगा। बेरोजगारी, महंगाई, जीडीपी में कमी सबका ठीकरा कोरोना के सिर फूटेगा।)
लन्दन से प्रकाशित दैनिक ‘इंडिपेण्डेंट’ ने अपनी एक रिपोर्ट में इस बात पर चिन्ता जाहिर की है कि कई देशों की सरकारें कोरोना वायरस पर नियंत्रण के बहाने अपने उन कार्यक्रमों को पूरा करने में लग गयी हैं जिन्हें पूरा करने में जन प्रतिरोध या जनमत के दबाव की वजह से वे तमाम तरह की बाधाएँ महसूस कर रहीं थीं।
रिपोर्ट के अनुसार 16 मार्च को संयुक्त राष्ट्र से सम्बद्ध विशेषज्ञों के एक समूह ने एक बयान जारी कर इन देशों को चेतावनी दी कि ऐसे समय सरकारों को आपातकालीन उपायों का इस्तेमाल अपने राजनीतिक मकसद की पूर्ति के लिए नहीं करना चाहिए। बयान में कहा गया है– “हम स्वास्थ्य पर आये मौजूदा संकट की गम्भीरता को समझते हैं और यह मानते हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय कानून गम्भीर खतरों के समय आपात अधिकारों के इस्तेमाल की इजाजत देता है, तो भी हम राज्यों को गम्भीरता के साथ याद दिलाना चाहते हैं कि कोरोना वायरस से निबटने के लिए प्रयोग में लाये जाने वाले किसी भी आपात कानून का इस्तेमाल सन्तुलित ढंग से और बगैर किसी भेदभाव के किया जाना चाहिए, इसका इस्तेमाल किसी समूह विशेष, अल्पसंख्यक समुदाय या व्यक्तियों के खिलाफ नहीं किया जाना चाहिए। स्वास्थ्य रक्षा की आड़ में इसे दमनात्मक कार्रवाइयों के लिए या मानव अधिकार की रक्षा में लगे लोगों की आवाज बन्द करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए–”
19 मार्च को इजरायल की राजधानी यरूशलम में सैकड़ों की संख्या में लोगों ने प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के जनतंत्र विरोधी उपायों के खिलाफ प्रदर्शन किया। 2 मार्च के चुनाव में पराजित होने के बाद नेतन्याहू की पार्टी (लिकुड पार्टी) के स्पीकर ने कोरोना वायरस का खतरा दिखाकर संसद का सत्र समाप्त कर दिया जबकि नवनिर्वाचित सांसदों की माँग थी कि कम से कम नये स्पीकर के चुनाव तक यह सत्र चलने दिया जाये। हद तो तब हो गयी जब नेतन्याहू ने देश की सुरक्षा एजेन्सी को आदेश दिया कि वह लोगों के मोबाइल फोन का एक गुप्त डेटाबेस तैयार करे ताकि यह पता चल सके कि किस व्यक्ति ने कोरोना वायरस संक्रमित व्यक्ति से सम्पर्क किया है। लोगों ने इसे निजता पर हमला कहा है।
वैसे, नेतन्याहू ने पूरे शहर में कोरोना वायरस के नाम पर लॉकडाउन की घोषणा कर दी है। लन्दन के अखबार ‘गॉर्डियन’ का कहना है कि ‘परेशानियों से घिरे नेतन्याहू को उम्मीद है कि कोरोना वायरस से उन्हें वह सब हासिल हो जायेगा जो पिछले तीन चुनावों से हासिल नहीं हो सका था। उनके शासन की अवधि बढ़ जायेगी और वह जेल से बाहर रह सकेंगे।’
दरअसल भ्रष्टाचार के तीन आरोपों में नेतन्याहू को 17 मार्च को कोर्ट में पेश होना था लेकिन कोरोना की वजह से अदालतों ने सारी तारीखें अगले दो माह के लिए बढ़ा दीं।
ब्रिटेन में प्रधान मंत्री बोरिस जॉनसन ने दमनकारी ‘कोरोना वायरस बिल’ का सहारा लिया है जिसमें प्रावधान है कि पुलिस या आव्रजन अधिकारी ऐसे किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकते हैं जिसके बारे में शक हो कि वह कोरोना वायरस से संक्रमित है। लोगों को भय है कि इस कानून का सहारा लेकर चीनी मूल के ब्रिटिश नागरिकों को वैसे ही परेशान किया जा सकता है जैसे 9/11 के बाद ब्रिटिश मुस्लिम लोगों को किया गया था।
अमरीका में ट्रम्प ने एक ‘अदृश्य दुश्मन’ के खिलाफ युद्ध का आह्वान करते हुए 13 मार्च को नेशनल इमरजेंसी की घोषणा की और खुद को ‘वार टाइम प्रेसीडेंट’ के रूप में पेश किया। फिर एबीसी न्यूज ने एक ‘पोल’ (जनमत संग्रह) किया और बताया कि 55 प्रतिशत लोगों ने कोरोना से निपटने में ट्रम्प का समर्थन किया है। इससे महज एक हफ्ते पहले तक ट्रम्प के समर्थन में महज 43 प्रतिशत लोग थे। कोरोना संकट ने अमरीकी चुनाव को फिलहाल हाशिये पर डाल दिया है और ट्रम्प को अपनी वापसी दिखायी देने लगी है। ‘युद्ध’ के दौरान कोई क्यों नेतृत्व परिवर्तन चाहेगा!
मध्य अमरीकी देश होण्डुरास के मानव अधिकार संगठनों का आरोप है कि कोरोना वायरस पर रोक लगाने की आड़ में सरकार ने अपनी तानाशाही स्थापित करने पर ज्यादा जोर दिया है। देश में कर्फ्यू लगा दिया गया है और आपातकाल की घोषणा कर दी गयी है। सड़कों पर सेना गश्त लगा रही है और जो लोग सामान खरीदने जा रहे हैं उन्हें पकड़ कर जेल में डाला जा रहा है। राष्ट्रपति ने एक हुक्मनामा जारी कर दिया है कि जो कोई भी कर्फ्यू का उल्लंघन करेगा उसे छह महीने से दो साल तक जेल में रहना पड़ सकता है। कुछ संगठनों ने यह भी आरोप लगाया है कि कोरोना के नाम पर जो इमरजेंसी बजट का प्रावधान किया गया है उसमें होने वाले खर्च के मॉनिटरिंग की कोई व्यवस्था न होने से घोटाले की आशंका बढ़ गयी है।
17 मार्च को मिस्र ने गॉर्डियन के पत्रकार की मान्यता इसलिए रद्द कर दी क्योंकि उसने कोरोना संक्रमित मरीजों की संख्या के बारे में सरकार के दावों पर सवाल उठाया था। वैसे, अफ्रीका के सभी 54 देशों में कोरोना फैल चुका है। सबसे बुरी हालत दक्षिण अफ्रीका की है। अफ्रीका के और खास तौर पर, सब–सहारन अफ्रीका के देशों में केवल तीन प्रतिशत आबादी 65 वर्ष से ऊपर के लोगों की है। इससे लगता है कि अफ्रीकी देशों में कोरोना के कारण मरने वालों की तादाद अपेक्षाकृत कम रहेगी।
हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान में 26 मार्च तक कोरोना मरीजों की संख्या 1100 पार कर चुकी थी और आठ मौतें हो चुकी थीं। यहाँ सरकारी आदेश को नकारते हुए मुफ्ती मुनीब उर रहमान व कई अन्य मुफ्तियों ने एक प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि जो भी कोरोना संदिग्ध या अस्वस्थ नहीं है, वह मस्जिदों में आएगा और पांचों वक्त की फर्ज नमाजें व जुमे की नमाज सामूहिक रूप से अदा करेगा। इस पर तीखी टिप्पणी करते हुए पाकिस्तान के विज्ञान व प्रौद्योगिकी मंत्री फवाद चैधरी ने कहा है कि धार्मिक तत्वों की जहालत, हठधर्मिता व जानकारी के अभाव की वजह से पाकिस्तान में कोरोना वायरस की महामारी फैली। फवाद चैधरी ने अपने ट्वीट में कहा कि ‘ये (कट्टर धार्मिक तत्व) हमसे कहते हैं कि यह (कोरोना) अल्लाह का अजाब है, इसलिए तौबा करो जबकि सच तो यह है कि सबसे बड़ा अजाब जहालत है जो इनकी शक्ल में हमारे सिरों पर सवार है ‘जाहिल को विद्वान का दर्जा देना बड़ी तबाही है।’
फिर भी पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने अपने देश में लॉकडाउन की घोषणा नहीं की। राष्ट्र के नाम अपने एक सन्देश में उन्होंने कहा कि अगर उनके देश की हालत फ्रांस, अमरीका या जर्मनी जैसी होती तो वह भी अपने यहाँ लॉकडाउन लागू कर देते। उन्होंने कहा कि ‘पच्चीस फीसदी पाकिस्तानी गुरबत की लकीर से नीचे हैं जो दो वक्त की रोटी नहीं खा सकते। आज अगर मैं लॉकडाउन करता हूँ तो इसका मतलब मेरे मुल्क के रिक्शा चलाने वाले, रेहड़ी वाले, छोटे दुकानदार, दिहाड़ी वाले, ये सारे घरों में बन्द हो जायेंगे और हमारी इतनी कैपेसिटी नहीं है कि हम सबको खाना पहुँचा सकें।’ ऐसी हालत में उन्होंने लोगों से अपील की कि वे खुद ही उन एहतियातों का पालन करें जो बतायी जा रही हैं।
हमारे अपने देश में सब कुछ एक एबसर्ड थियेटर की तरह चल रहा है। लॉकडाउन है और इसका पालन/उल्लंघन दोनों चल रहा है, लोग डरे भी हैं और निश्चिन्त भी, पुलिस लोगों को बेरहमी से पीट भी रही है और कहीं कहीं करुणानिधान के अवतार में पटरी पर पड़े भूखों को खाना भी खिला रही है। प्रधानमंत्री की अपील पर पहला लॉकडाउन 14 दिन का था जिसका लोगों ने थाली और ताली बजा कर समापन किया लेकिन 15वाँ दिन शुरू होते ही सोशल डिस्टैंसिंग की पीएम की अपील की ऐसी तैसी करते हुए, घड़ियाल–घंटे बजाते हुए एक हुजूम सड़क पर निकल आया, वन्दे मातरम और जय श्रीराम का उद्घोष करते हुए। भाजपाइयों ने इसे पार्टी का कार्यक्रम बना दिया।
इससे पहले हिन्दू महासभा ने 14 मार्च को दिल्ली में गोमूत्र पार्टी का आयोजन किया। कहा गया कि गोमूत्र से कोरोना भाग जायेगा। इसमें लगभग 200 लोग शामिल हुए। फिर इसी संगठन के अध्यक्ष चक्रपाणि ने कहा कि हम माँग करते हैं कि भारतीय धरती पर उतरने वाले किसी भी व्यक्ति को गोमूत्र पीने और गाय के गोबर में स्नान करने के बाद ही हवाई अड्डे से बाहर आने की अनुमति दी जानी चाहिए। जहालत का नमूना केन्द्रीय मंत्री रामदास अठावले ने भी पेश किया जब उन्होंने मुम्बई में चीनी महावाणिज्य दूत और बौद्ध भिक्षुओं के साथ ‘गो कोरोना, गो कोरोना’ के नारे लगाए।
इस ऐबसर्ड थियेटर का पटाक्षेप कोरोना संकट की समाप्ति के साथ होगा। सरकार को पता है कि उसकी सारी नाकामयाबियों पर कोरोना भारी पड़ जायेगा। बेरोजगारी, महंगाई, जीडीपी में कमी सबका ठीकरा कोरोना के सिर फूटेगा।
तेलंगाना के मुख्यमंत्री ने धमकी दी कि लॉकडाउन का उल्लंघन करने वालों को गोली मारने का आदेश जारी करना पड़ेगा लेकिन विडम्बना देखिए कि इस बयान के चार–पांच दिन बाद ही दिल्ली के आनन्द विहार बस टर्मिनल के आस–पास बीस से तीस हजार लोगों का सैलाब उमड़ आया। लगभग ऐसी ही स्थिति लखनऊ में भी देखने को मिली। यह न तो कोई विद्रोह था और न कोई साजिश, यह सत्ता की संवेदनहीनता और उपेक्षा के शिकार, समाज के हाशिये पर पड़े और जिन्दगी की जद्दोजहद में लगे उन लोगों के जीने की ललक की अभिव्यक्ति थी जो हर रोज कमाते और खाते थे, जिनके पास कोई जमा पूँजी नहीं थी और जिन्हें लगा कि उन्हें और उनके परिवार को कोरोना से पहले भुखमरी का ही शिकार बन जाना पड़ेगा।
‘दि शॉक डाक्ट्रिन’ की लेखिका और राजनीतिक विश्लेषक नाओमी क्लेन ने एक जगह लिखा है कि ‘अगर इतिहास से हमें कोई सीख मिलती है तो वह यह कि ‘शॉक’ के क्षण बेहद अस्थिर होते हैं। ऐसे समय या तो हमारे पाँव उखड़ जाते हैं, सब कुछ उच्च वर्ग द्वारा हथिया लिया जाता है और फिर हम दशकों तक उसकी कीमत चुकाते रहते हैं या हमें आगे ले जाने वाली ऐसी कामयाबियाँ मिलती हैं जो कुछ ही हफ्तों पहले तक नामुमकिन लगती थीं। यह दहशत में आने का समय नहीं है।’
(मीडिया विजिल से साभार)
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