(भूटान की जेलों में राजनीतिक बंदियों की संख्या कितनी है, यह पता करना बहुत मुश्किल है। भूटान सरकार इस बारे में कोई जानकारी नहीं देती, पर ह्यूमन राइट्स वाच नामक संस्था ने भूटान की जेलों में बन्द 37 राजनीतिक बंदियों के बारे में जानकारी जुटायी है जिनमें से 24 को आजीवन कारावास और शेष को 15 से 43 वर्ष की सजा मिली है। 13 मार्च को जारी अपनी रिपोर्ट में इस अन्तरराष्ट्रीय संस्था ने बताया है कि इनमें से अधिकांश ल्होत्सम्पा (नेपाली मूल के भूटानी नागरिक) हैं जिन्हें नागरिकता कानून के खिलाफ 1990 में चले आन्दोलन के सिलसिले में गिरफ्तार किया गया था। इनकी संख्या 32 है। शेष सारचोप समुदाय के हैं और वे ‘द्रुक नेशनल कांग्रेस’ (डीएनसी) के सदस्य हैं। नागरिकता कानून तथा शाही सरकार की अन्य दमनकारी नीतियों का विरोध करने की वजह से एक लाख से भी अधिक नागरिकों को देश निकाला की सजा भुगतनी पड़ी और लगभग दो दशकों तक बदहाली की जिन्दगी जीने के बाद अमरीका और यूरोप के देशों में जा कर बसना पड़ा। भूटानी राजतंत्र के इस कुकृत्य में किस तरह दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र भारत ने साथ दिया, इस पर रोशनी डालती है यह रिपोर्ट।)

भूटान के तीसरे राजा जिग्मे दोरजी वांग्चुक जनतान्त्रिक सुधारों के पक्षधर थे और अपने बीस वर्षों के शासन काल में उन्होंने इस दिशा में काफी काम किया था। उन्होंने ही 1956 में अपने देश से दास प्रथा और बेगार प्रथा को समाप्त किया और भूमि सुधार कार्यक्रम लागू किया था। उन्हें इस बात का भी श्रेय दिया जाता है कि अपने शासनकाल में उन्होंने देश के राजनीतिक और प्रशासनिक ढाँचे में महत्वपूर्ण तब्दीली की। जिग्में दोरजी वांग्चुक ने सहिष्णुता का परिचय देते हुए ल्होत्सम्पा (नेपाली मूल के भूटानी नागरिक) लोगों को व्यापक भूटानी समाज के साथ जोड़ने का काम किया, लेकिन 1972 में उनके बाद सत्ता में आये उनके पुत्र जिग्मे सिंगे वांग्चुक ने अलग ढंग से राष्ट्रीय पहचान को प्रोत्साहित किया।

नये राजा सिंगे दोरजी वांग्चुक ने सत्ता में आते ही अपने पिता की नीतियों के विपरीत काम शुरू किया। अब द्रुक्पा संस्कृति से प्रभावित नयी राष्ट्रीय पहचान पर जोर दिया जाने लगा। इस नीति के ही फलस्वरूप आगे चलकर शरणार्थी समस्या पैदा हुई। 1958 के भूटान राष्ट्रीयता कानून में संशोधन करते हुए ‘भूटान नागरिकता कानून, 1985’ बना। इसमें कहा गया था कि 31 दिसम्बर 1958 से पहले जो लोग भूटान में नहीं रहते थे वे सभी अवैध नागरिक हैं। इसके अलावा भूटान की नागरिकता हासिल करने के लिए शर्त लगायी गयी कि उन्हीं को नागरिक बनाया जा सकता है जिन्हें भूटान की संस्कृति, रीति–रिवाजों, परम्पराओं, राष्ट्रीय भाषा यानी जोङखा और भूटान के इतिहास का ज्ञान हो। ये शर्तें इतनी कड़ी थीं कि नागरिकता प्राप्त करने की सम्भावना लगभग असम्भव हो गयी थी।

1985 के नागरिकता कानून को आधार बनाकर 1988 में जनगणना का काम शुरू हुआ और अब नेपाली भाषी भूटानियों के सामने स्पष्ट होने लगा कि उनके खिलाफ कोई साजिश तैयार हो रही है। 1988 की जनगणना से पता चला कि नेपाली भाषी लोगों की आबादी में तेजी से वृद्धि हुई और वे 40 प्रतिशत तक पहँुच गये जबकि सारचोप लगभग 31 प्रतिशत और सत्ताधारी नालोंग करीब 16 प्रतिशत थे। नेपाली भाषी नागरिकों को राष्ट्र की मुख्य धारा में लाने के मकसद से शाही सरकार ने 1988 में ‘एक राष्ट्र, एक जनता’ कार्यक्रम की शुरुआत की। इस नीति के एक अंग के रूप में सरकार ने ‘द्रिगलाम–नाम–जा’ की शुरुआत की।

इसके तहत एक ड्रेस कोड तय किया गया जिसके अन्तर्गत पुरुषों को ‘खो’ और महिलाओं को ‘कीरा’ पहनना पड़ता था। अगर किसी ने नियम का उल्लंघन किया तो उसे जेल में डाल दिया जाता था। इस पहनावे का विरोध हुआ क्योंकि तराई के इलाके में, जहाँ इनकी आबादी थी, गर्म और उमस भरे मौसम में यह पहनावा बहुत असुविधाजनक था। सरकार ने जोङखा भाषा को बढ़ावा देने के उद्देश्य से दक्षिणी भूटान के स्कूलों में नेपाली भाषा के शिक्षण पर प्रतिबन्ध लगा दिया। सरकार की इन नीतियों का जब वहाँ के लोगों ने शान्तिपूर्ण ढंग से विरोध किया तो राजा ने पुलिस और सेना का इस्तेमाल करते हुए इनका बर्बरतापूर्वक दमन किया और देश से बाहर खदेड़ दिया।

सरकार की नीति में आये इस परिवर्तन का कारण चाहे जो हो, लेकिन इतना तो तय है कि भूटान नरेश की इस नीति ने आतंक और दमन का जो तांडव पैदा किया उसे भूटानी जनता ने पहले न तो कभी महसूस किया था और न ऐसी कल्पना की थी।

1990 में भूटान की पुलिस और शाही सैनिकों ने जब इन्हें अपने देश से खदेड़ा तो ये लोग सीमा लांघ कर भारत की धरती पर आये और इन्होंने सोचा कि जनतान्त्रिक देश होने के नाते भारत में उन्हें शरण मिलेगी। लेकिन हुआ इसका उल्टा। भारत की पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों ने इन्हें मवेशियों की तरह ट्रकों में भरकर नेपाल की सीमा में छोड़ दिया। ट्रकों से उतारे जाने के बाद इन्होंने खुद को नेपाल के झापा जिले में एक नदी (माईधार) के किनारे असहाय अवस्था में पाया। यहाँ इनके रहने या खाने–पीने की कोई व्यवस्था नहीं थी और फिर स्थानीय लोगों की मदद से इन्होंने अपने लिए कुछ झोपड़ियाँ बनायीं और रहने लगे।

बाद में शरणार्थियों के लिए काम करने वाली संयुक्त राष्ट्र की संस्था ‘यूएनएचसीआर’ ने इनकी मदद की, जिम्मेदारी सम्भाली और फिर धीरे–धीरे नेपाल के अन्दर ही सात शिविरों का निर्माण हुआ, जहाँ इन्होंने अपनी बेचारगी के तकरीबन बीस साल गुजारे। यह एक लम्बी कहानी है जिसके बारे में नेपाली, भूटानी और कुछ पश्चिमी देशों के लेखकों की पुस्तकें और ढेर सारे लेख उपलब्ध हैं। भारत में इस विषय पर लगभग नहीं के बराबर लिखा गया। यह हैरान करने वाली बात है क्योंकि भारत ही (न कि नेपाल) भूटान का पड़ोसी देश है और भूटानी शरणार्थियों को बदहाली के मुकाम तक पहँुचाने में जितनी बड़ी भूमिका भूटान के राजतंत्र ने निभायी, लगभग उतनी ही बड़ी भूमिका भारत के ‘लोकतंत्र’ की भी रही।

इनकी बदहाली पर लोगों का ध्यान आकर्षित कराने के मकसद से ‘तीसरी दुनिया अध्ययन केन्द्र’ के बैनर तले 27 सितम्बर 1991 को नयी दिल्ली में एक सम्मेलन आयोजित किया गया। इसके नतीजे के तौर पर ‘भूटान सॉलिडारिटी, इंडिया’ का गठन हुआ जिसके संरक्षक जस्टिस वी आर कृष्णा अय्यर और संयोजक आनन्द स्वरूप वर्मा बनाये गये।

भूटानी शरणार्थी आज तक स्वदेश नहीं लौट पाये। भूटान के राजा को एक भी शरणार्थी ऐसा नहीं मिला जिसे वह इस योग्य समझते कि उसे अपने देश लौटने का अधिकार है। यहाँ तक कि शिविरों में रह रहे लोगों की जाँच के लिए नेपाल और भूटान की जो संयुक्त समिति बनी और उसमें ‘वास्तविक भूटानी’ होने का जो मानक तय किया गया, उसके अनुसार भी राजा को कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जिसे वह अपना नागरिक मान सकें। जहाँ तक भारत की बात है, उसने तो पहले ही यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लिया था कि यह भूटान और नेपाल के बीच का द्विपक्षीय मामला है।

इतना ही नहीं, उस समय के विदेशमंत्री प्रणव मुखर्जी ने तो यहाँ तक कह दिया था कि अगर इन शरणार्थियों को भूटान की सीमा में जाने दिया गया तो इससे वहाँ ‘जनसंख्या का सन्तुलन’ (डेमोग्राफिक बैलेंस) बिगड़ जायेगा। भूटानी नागरिक अपनी सीमा लांघ कर भारत की धरती तक पहँुचे थे। उन्हें भारत ने नेपाल में पहँुचाया और जब भारत लगातार यह कहता रहा कि ‘यह भूटान–नेपाल का द्विपक्षीय मामला है’ तो अन्तरराष्ट्रीय समुदाय हैरानी के साथ इसकी ओर देखता रह गया।

भूटानी शरणार्थियों की समस्या का समाधान तो नहीं हो सका, लेकिन इस प्रकरण ने भारतीय राज्य के पाखंड को पूरी तरह उजागर किया। यह अकल्पनीय था कि खुद को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दावा करने वाला देश अपने पड़ोस के सबसे सड़े–गले राजतंत्र को ‘जिओ–पोलिटिकल कम्पल्सन’ के नाम पर समर्थन देता रहे। और यह समर्थन भी किसकी कीमत पर? उस देश की तकरीबन 22 प्रतिशत आबादी की कीमत पर। आखिर वह भारत सरकार, जिसने अतीत में तिब्बत, बर्मा, अफगानिस्तान सहित अनेक देशों के शरणार्थियों को अपने यहाँ पनाह दी, उसकी नीति में अचानक ऐसा परिवर्तन क्यों आ गया कि वह भूटानी शरणार्थियों के प्रति पूरी तरह उदासीन नजर आने लगी?

अपने देश के नेपाली मूल के नागरिकों से अगर राजा को कोई खतरा दिखायी दे रहा था तो इसके पीछे कुछ कारण थे–– भले ही उन कारणों को मनोवैज्ञानिक बताकर क्यों न खारिज कर दिया जाये। 1975 में जिस तरीके से भारत ने सिक्किम में अपने पक्षधर राजनीतिज्ञों की एक जमात खड़ी की और फिर उनके माध्यम से सिक्किम का भारत में विलय करा दिया उस घटना ने स्वाभाविक तौर पर नेपाल और भूटान के अन्दर न केवल भारत के प्रति बल्कि अपने नागरिकों के प्रति भी सन्देह का वातावरण बना दिया। सिक्किम में काजी लेंदुप दोरजी ने सिक्किम नरेश चोग्याल के खिलाफ वहाँ बसे नेपाली मूल के लोगों को संगठित किया और वहाँ की एसेंबली में बहुमत के आधार पर भारत में विलय का प्रस्ताव पारित करा लिया।

यह घटना इतनी भयावह थी कि आज लगभग 50 वर्ष बाद भी वह सन्देह दूर नहीं हो सका जो भारत के शासक वर्ग के प्रति इन देशों के मन में बैठ गया था। भारत की तरफ से भी कभी यह कोशिश नहीं हुई कि इन देशों के आम नागरिकों के अन्दर भारत को लेकर जो आशंकाएँ हैं उन्हें दूर किया जाये। उल्टे, इसकी हरकतों ने उस सन्देह को और भी मजबूत कर दिया। भारत का सत्ताधारी वर्ग अपने सभी पड़ोसी देशों की सम्प्रभुता को अपनी सम्प्रभुता से कम करके आँकने का आदी हो गया है–– अपने पड़ोसी देशों की सम्प्रभुता को उसके भौगोलिक आकार और आर्थिक हैसियत से आँकता है।

छोटा देश, छोटी सम्प्रभुता–– जबकि सम्प्रभुता को किसी आकार या आर्थिक हैसियत से नहीं मापा जा सकता। नेपाल और भूटान के सन्दर्भ में तो यह कहा ही जा सकता है कि ये दोनों देश कभी किसी के उपनिवेश नहीं रहे जबकि भारत 200 साल तक अंग्रेजों का उपनिवेश रहा और यहाँ के शासकों के अन्दर वह औपनिवेशिक मानसिकता कूट–कूट कर भरी है जो सम्प्रभुता के बारे में उनकी दृष्टि को पीलियाग्रस्त कर देती है। भारत के सभी राजनीतिक दल इस रोग के शिकार हैं।

1990 में शरणार्थियों की समस्या शुरू हुई और 2008 में इन्हें अमरीका, आस्ट्रेलिया, कनाडा, डेनमार्क, नीदरलैंड, न्यूजीलैंड और नार्वे में बसा दिया गया। अकेले 60 हजार लोगों को अमरीका ने अपने यहाँ बसाया। इन 18 वर्षों के दौरान भारत सरकार ने एक बार भी भूटान सरकार से नहीं कहा कि वह इन शरणार्थियों को अपने देश वापस जाने दे। इतना ही नहीं, 2006 में जब अत्यन्त निराश होकर झापा के शिविरों से शरणार्थियों का जत्था शान्ति मार्च करता हुआ पैदल ही भूटान की ओर बढ़ने लगा तो भारत–नेपाल सीमा पर तैनात भारतीय सुरक्षाकर्मियों ने उन्हें पीट–पीट कर अधमरा कर दिया और जेलों में डाल दिया।

इन 18 वर्षों के दौरान भारत की सभी पार्टियाँ सत्ता में रहीं लेकिन किसी ने शरणार्थियों के मुद्दे को अपने एजेंडा में जगह नहीं दी। इनमें वामपंथी, मध्यमार्गी और दक्षिणपंथी–– सभी पार्टियाँ शामिल थीं। इन 18 वर्षों में विश्वनाथ प्रताप सिंह, चन्द्रशेखर, पी वी नरसिंम्हा राव, अटल बिहारी वाजपेयी, एच डी देवगोड़ा, इन्द्र कुमार गुजराल और मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री पद पर आसीन रहे। वी पी सिंह से पहले पाँच वर्ष तक राजीव गाँधी प्रधानमंत्री पद पर थे।

‘दि दार्जिलिंग क्रॉनिकल’ ने 30 नवम्बर 2018 को भीम भुरतेल की एक रिपोर्ट प्रकाशित की जिसमें नेपाली दैनिक ‘नया पत्रिका’ के हवाले से भूटान नरेश जिग्मे सिंगे वांग्चुक के इस कथन को उद्घृत किया गया है–– “भारत के प्रधानमंत्री राजीव गाँधी और भारतीय खुफिया तंत्र के दबाव की वजह से ल्होत्सम्पा लोगों को देश से बाहर निकाला गया।” इस कथन के पीछे यह दलील दी जाती है कि भारत के खुफिया अधिकारियों और रणनीतिकारों को भय था कि जिस तरह 1990 में जनविद्रोह के जरिये नेपाल में पंचायती व्यवस्था समाप्त हुई और राजा के निरंकुश शासन का अन्त हुआ वैसा भूटान में भी हो सकता है।

इन्हें इस बात को लेकर आशंका थी कि सिक्किम, दार्जिलिंग, कालिम्पोंग, दुआर्स और दक्षिणी भूटान के नेपाली भाषी मिल कर एक अलग स्वतंत्र राष्ट्र की माँग कर सकते हैं क्योंकि भूटान के ल्होत्सम्पा 1989 के उत्तरार्द्ध से ही मानव अधिकारों और जनतंत्र की माँग कर रहे हैं। अगर ऐसा हुआ तो भूटान में जिस नयी सरकार का गठन होगा वह पूरी तरह एक स्वतंत्र राष्ट्र का रूप लेना चाहेगी और इस प्रकार भारत का प्रभाव लगभग समाप्त हो जायेगा। राजीव गाँधी ने भूटान नरेश को यह सलाह दी या नहीं इसके बारे में निश्चित तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता लेकिन इसे पूरी तरह खारिज भी नहीं किया जा सकता।

यह जानना दिलचस्प होगा कि जिस समय भूटान के जनतान्त्रिक नेता रोंग थोंग किन्ले दोरजी को भारत सरकार की पुलिस ने गिरफ्तार किया, केन्द्र में देवगौड़ा की सरकार थी, जिसके विदेश मंत्री इन्द्र कुमार गुजराल थे, जो मानव अधिकारवादी की छवि निखारने में लगे रहते थे और सबसे बड़ा आश्चर्य यह जानकर होगा कि इस सरकार के गृहमंत्री कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया (सीपीआई) के नेता इन्द्रजीत गुप्ता थे। इस पार्टी को पहली बार केन्द्र में सत्ता में आने का मौका मिला था। कामरेड इन्द्रजीत गुप्ता पश्चिम बंगाल के बेहद ईमानदार कामरेडों में से एक थे लेकिन उन्होंने भी दोरजी के पक्ष में बोलने का साहस नहीं किया। इसे कहते हैं ‘राजकाज’ या ‘स्टेटक्रॉफ्ट’। ये लोग जब भी सत्ता से बाहर रहे मानव अधिकार के चैंपियन बने रहे लेकिन सत्ता में आने के साथ ही इनकी पूरी की पूरी केमिस्ट्री बदल जाती थी–– चाहे वह इन्द्र कुमार गुजराल हों, वीपी सिंह हों या जार्ज फर्नांडीज।

रोंग थोंग किन्ले दोरजी

आर के दोरजी पूर्वी भूटान के सारचोप समुदाय से थे। उनकी गिरफ्तारी भारतीय राजनीति की एक ऐसी घटना है जो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के पाखंड का पर्दाफाश करती है। दोरजी को 17 अप्रैल 1997 को गिरफ्तार किया गया था। यह गिरफ्तारी दो दिन पहले ही होनी थी लेकिन अचानक दोरजी के कार्यक्रम बदल देने से इसमें विलम्ब हो गया। दरअसल भूटान सरकार को खुफिया सूत्रों से यह जानकारी मिली थी कि 15 अप्रैल 1997 को दोरजी नेपाल से नयी दिल्ली पहँुचने वाले हैं। यह जानकारी मिलते ही भूटान के गृहमंत्री दागो शेरिंग फौरन विमान से दिल्ली पहँुचे। 15 और 16 अप्रैल को दिल्ली एयरपोर्ट पर पुलिस ने जबर्दस्त नाकाबन्दी कर रखी थी ताकि दोरजी के वहाँ पहँुचते ही उन्हें दागो शेरिंग को सौंप दिया जाये।

संयोगवश दोरजी ने विमान से आने का अपना कार्यक्रम रद्द कर दिया और बस तथा ट्रेन के जरिये वह 17 अप्रैल को दिल्ली पहँुचे। पुलिस को इसकी भनक भी नहीं लगी। दिल्ली में वह ‘एम्स’ के निकट गौतम नगर में एक फ्लैट में गये जहाँ उनके राजनीतिक साथी रह रहे थे। वहीं से दिल्ली पुलिस ने दिन में तकरीबन साढ़े तीन बजे गिरफ्तार किया और डिफेंस कालोनी पुलिस स्टेशन में लाकर रख दिया।

इसके बाद दोरजी को कैसे भूटान प्रत्यार्पित किये जाने से रोका जा सका और कैसे भूटान के राजा की साजिश विफल हुई इसकी एक लम्बी दास्तान है लेकिन इस पूरे प्रकरण में भारत सरकार की भूमिका बेहद शर्मनाक रही। अगर सरकार से इतर, मानवाधिकार के लिए संघर्ष करने वाली ताकतें सक्रिय नहीं हुई होतीं तो दोरजी को रोका नहीं जा सकता था। हालाँकि इन सबके बावजूद उन्हें दिल्ली के तिहाड़ जेल में एक साल से अधिक समय तक बन्द रहना ही पड़ा। यहाँ यह बताना प्रासंगिक होगा कि दिल्ली उच्च न्यायालय ने 14 मई 1997 को दोरजी को जमानत पर रिहा होने का आदेश दे दिया था लेकिन इसके बावजूद उन्हें इसलिए नहीं रिहा किया गया क्योंकि 14 मई से ही भूटान नरेश की भारत यात्रा शुरू हो रही थी।

सरकार को लगा कि ऐसे समय दोरजी की रिहाई भूटान नरेश के लिए दिक्कत पैदा करेगी। नतीजतन, फॉरेनर्स रिजनल रजिस्ट्रेशन ऑफिस ने एक आदेश जारी कर दोरजी पर कुछ और प्रतिबन्ध लगा दिये। दोरजी के दोनों जमानतदारों को किसी न किसी बहाने खारिज कर दिया गया। अधिकारियों का कहना था कि दोनों जमानतदारों का दोरजी पर कोई आर्थिक अथवा शारीरिक नियंत्रण नहीं है और वे दोरजी के रिश्तेदार भी नहीं हैं। वे लोग एक राजनीतिक ऐक्टिविस्ट हैं जो भूटान और नेपाल में चल रहे जनतान्त्रिक आन्दोलन का समर्थन करते हैं। ऐसे में ‘बहुत सम्भव है कि वह भूमिगत हो जायें और ऐसी अवांछनीय गतिविधियों में लग जायें जो भारत राष्ट्र की सुरक्षा और हित के विपरीत हों।’

सरकार का रवैया भूटान नरेश के साथ मिल कर दोरजी को प्रताड़ित करना था लेकिन भारत का जनतान्त्रिक मानस दोरजी के पक्ष में खड़ा था। लोकतान्त्रिक शक्तियों के दबाव की वजह से ही अखबारों में भी दोरजी से सम्बन्धित खबरें दिखायी दे जाती थीं हालाँकि इनकी संख्या कम ही थी। 29 जुलाई से 31 जुलाई 1997 तक भूटान सोलिडेरिटी–इंडिया और ग्रिनसो–नेपाल द्वारा आयोजित ‘साउथ एशियन पीपुल्स कांफ्रेंस ऑन भूटान’ के बैनर तले नयी दिल्ली में एक सम्मेलन का आयोजन हुआ जिसमें भूटानी जनता के संघर्ष और भूटानी शरणार्थियों की स्थिति पर विचार किया गया।

इस सम्मेलन में भारत के प्रमुख लोगों में जस्टिस वी एम तारकुंडे, जस्टिस अजित सिंह बेंस, जार्ज फर्नांडीज, डी प्रेमपति, चितरंजन सिंह, स्वामी अग्निवेश, डॉ– दलीप स्वामी, आनन्द स्वरूप वर्मा आदि शामिल थे। नेपाल से सांसद सी पी मैनाली, सांसद जे पी आनन्द, डॉ– मथुरा श्रेष्ठ, प्रमोद काफ्लेय बांग्ला देश से जस्टिस के एम सुभान, रोसालिन कोस्टा, मुईउद्दीन अहमदय पाकिस्तान से खदीजा गौहरय श्रीलंका से सांसद वासुदेव ननयक्कारा, निमाल्का फर्नांडोय और हांगकांग से एशियन ह्यूमन राइट्स कमीशन के अध्यक्ष बेसिल फर्नांडो ने हिस्सा लिया। इसी बैठक में समता पार्टी के अध्यक्ष जार्ज फर्नांडीज ने ऐलान किया कि देश की जानी मानी हस्तियाँ 14–15 अगस्त की रात में तिहाड़ जेल के सामने रात भर का धरना देंगी और दोरजी के साथ अपनी एकजुटता व्यक्त करेंगी।

उस रात जब संसद का संयुक्त अधिवेशन रातभर के लिए जारी था और आजादी की 50वीं वर्षगाँठ मना रहा था, लगभग 20 सांसद और सैकड़ों की संख्या में राजनीतिक–सामाजिक कार्यकर्ता तिहाड़ जेल के बाहर धरना दे रहे थे और दोरजी के साथ एकजुटता व्यक्त कर रहे थे। दोरजी के पक्ष में बहुत बड़े पैमाने पर दिल्ली के बुद्धिजीवियों की भी गोलबन्दी हो गयी थी।

हैरानी है कि दो वर्ष पूर्व ही सीपीएम ने अपने राष्ट्रीय सम्मेलन में भूटान के जनतान्त्रिक आन्दोलन के पक्ष में एक प्रस्ताव पारित किया था लेकिन उस रात के धरने में सीपीआई, सीपीएम, फॉरवर्ड ब्लॉक, आरएसपी जैसी वामपंथी पार्टियों और वामपंथ के इर्द–गिर्द खुद को रखने वाली जनता दल जैसी पार्टियों का एक भी सांसद न तो वहाँ दिखा और न किसी ने इस कार्यक्रम का समर्थन किया।

तिहाड़ जेल के बाहर धरना

जहाँ तक सीपीआई की बात है उसके नेता इन्द्रजीत गुप्ता तो उस समय भारत के गृहमंत्री ही थे। कम्युनिस्ट इन्द्रजीत गुप्ता भूटानी जनता के आन्दोलन के साथ थे, दोरजी की रिहाई के समर्थक थे और राजशाही की समाप्ति चाहते थे लेकिन केन्द्रीय गृहमंत्री की हैसियत से वह भूटानी जनता के आन्दोलन के खिलाफ थे, दोरजी को जेल में रखे रहने के पक्ष में थे और भारत की राजनीतिक–भौगोलिक मजबूरियों के चलते भूटान में राजशाही को बनाये रखने के पक्ष में थे। अगर आप इस द्वन्द्ववाद (डायलेक्टिक्स) को समझने में समर्थ हों तो समझ लें। दक्षिण एशियाई जन–सम्मेलन में ही सीपीआई के नेता एम फारूकी ने पहली बार किसी मंच से भूटानी जनता के आन्दोलन का समर्थन किया और दोरजी की गिरफ्तारी की निन्दा की। अपने भाषण में उन्होंने इस बात का भी खुलासा किया कि वह जो कुछ कह रहे हैं व्यक्तिगत हैसियत से नहीं, बल्कि पार्टी की ओर से कह रहे हैं।

नेपाल की राजशाही के खिलाफ निरन्तर सक्रिय रहने वाले चन्द्रशेखर का भी कहीं पता नहीं था। शायद उन्हें भी गुजराल साहब की तरह यही लगता रहा हो कि राजशाही के समाप्त होते ही ‘सिनो–अमरीकन ऐक्सिस’ सक्रिय हो जायेगी। सामाजिक न्याय का बिगुल बजाने वाले वी पी सिंह ने भी कभी यह जानने की कोशिश नहीं की कि दोरजी को भारत सरकार ने क्यों जेल में डाल रखा है। बेशक, सीपीआई (एमएल) ने खुलकर भूटान के जनतान्त्रिक आन्दोलन का समर्थन किया और दोरजी की रिहाई की माँग की। इस पार्टी के कार्यकर्ताओं ने 14 अगस्त की रात में तिहाड़ के बाहर धरने में भी भाग लिया।

एक लम्बी अदालती प्रक्रिया के बाद 2 जून 1998 को दिल्ली के चीफ मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट ने कुछ शर्तों के साथ दोरजी को जमानत पर रिहा किये जाने का आदेश दिया। इस प्रकार तकरीबन 14 महीने तिहाड़ जेल में बिताने के बाद दोरजी जमानत पर रिहा हो गये लेकिन अपनी मृत्यु से कुछ समय पहले तक उन्हें दिल्ली की सीमा में कैद करके रख दिया गया था। 21 अप्रैल 2010 को भारत सरकार ने अन्तिम तौर पर प्रत्यार्पण से सम्बन्धित मुकदमा वापस ले लिया और दोरजी अपने ऊपर लगाये गये सभी प्रतिबन्धों से मुक्त हो गये।

भारत सरकार ने भूटान के राजा के साथ साँठगाँठ करके पूरे 12 साल तक दोरजी को दिल्ली की सीमा में कैद कर रखा था। उनपर दिल्ली से बाहर जाने पर रोक लगी थी। दिल्ली के लाजपत नगर में रहते हुए, प्रतिबन्धों के बावजूद उन्होंने भूटानी जनता के जनतान्त्रिक संघर्षों में अपने को पूरी तरह झोंक दिया था। अब उन्हें यह बात अच्छी तरह समझ में आ गयी थी कि देश के अन्दर जब तक अपने विचारों को नहीं पहँुचाया जायेगा, राजा को कोई खतरा नहीं है।

लगभग कुछ ऐसा ही रवैया भूटान के एक दूसरे प्रताड़ित नेता, जिन्होंने 11 वर्ष राजा की जेल में बिताये थे, टेकनाथ रिजाल को भी झेलना पड़ा था। वह चाहते हुए भी, एम्स के डॉक्टरों के सहयोग के बावजूद दिल्ली में रहकर अपना इलाज इसलिए नहीं करा सके क्योंकि सरकारी खुफिया एजेंसी के लोग उनके पीछे पड़े थे। वे लगातार उन्हें डराते धमकाते रहे ताकि राजा की नीतियों के खिलाफ भारत में वह कुछ कर न सकें। भारत सरकार का यह रवैया नेपाली जनता के राजतंत्र विरोधी संघर्ष के एकदम विपरीत था। नेपाल की राजाशाही के खिलाफ भारत में रहकर वहाँ के राजनीतिकर्मियों ने काफी काम किया, लेकिन भूटानी ऐक्टिविस्टों को इसकी इजाजत नहीं थी। यह एक अजीब सी परिघटना भूटान के सन्दर्भ में देखने को मिली।

शरणार्थियों को जब किसी तीसरे देश में बसाने की अमरीकी योजना सामने आयी उस समय भी भारत की चुप्पी ने लोगों को हैरानी में डाल दिया। अमरीका के अलावा आस्ट्रेलिया, कनाडा, डेनमार्क, नीदरलैंड्स, न्यूजीलैंड और नॉर्वे ने इन्हें अपने यहाँ बसाने की जिम्मेदारी ली। शरणार्थियों का मानना था कि जिन देशों ने अपने यहाँ इतने बड़े पैमाने पर लोगों को बसाने की उदारता दिखायी है, वे सभी अगर चाहते तो भूटान नरेश पर दबाव डाल कर इस समस्या का समाधान ढूँढ सकते थे।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि ऐसे बहुत सारे लोग इस अमरीकी प्रस्ताव से सहमत थे जिन्होंने भूटान की धरती को कभी देखा ही नहीं या जो देश से निष्कासित किये जाने के समय इतने छोटे थे कि उनकी स्मृतियों में भूटान है ही नहीं। लेकिन व्यापक समुदाय ने इसका विरोध किया। टेकनाथ रिजाल ने तो साफ शब्दों में कहा कि हम इस गुलामी के प्रस्ताव को किसी भी हालत में स्वीकार नहीं करेंगे। उन्होंने इसे अमरीकी साजिश का एक और नमूना बताया।

दरअसल तमाम प्रलोभनों के बावजूद लोग पश्चिमी देशों में जाकर बसने के बजाय अपने ही देश में तंगहाली में जिन्दगी गुजारने के पक्षधर थे। यह मानसिकता केवल बुजुर्गों में नहीं, बल्कि उन नौजवानों में भी थी जो शान्ति मार्च के जरिये जबरन भूटान की सीमा में प्रवेश करने के अभियान में लगे थे।

क्या यह सचमुच अमरीकी साजिश का एक और नमूना था? शरणार्थी शिविरों की हालत का जायजा लेने के लिए भूटान सॉलिडारिटी सहित विभिन्न संगठनों के अध्ययन दलों की रिपोर्ट को देखें तो पता चलता है कि इन शिविरों में रहने वाले युवकों के अन्दर भूटान सरकार और भारत सरकार दोनों के प्रति कितना गुस्सा पनप रहा था। यह गुस्सा शुरुआती दिनों में भूटान के राजा के प्रति था लेकिन समय बीतने के साथ और खासतौर पर इनके शान्ति मार्च के भारत द्वारा किये गये हिंसात्मक दमन के बाद खलनायक के तौर पर राजा का स्थान भारत सरकार ने ले लिया था।

पिछले 16 वर्षों के दौरान शरणार्थी शिविरों में एक नयी पीढ़ी विकसित हो चुकी थी। 17 से 35 वर्ष की आयुवर्ग के लोगों की संख्या तकरीबन 40 हजार थी। चूँकि शिविरों में बसे शरणार्थी मुख्य रूप से ल्होत्सम्पा थे इसलिए नेपाल की घटनाओं पर वे बारीकी से नजर रखते थे। वे देख रहे थे कि माओवादियों के नेतृत्व में चले 10 वर्षों के सशस्त्र संघर्ष ने राजशाही को लगभग समाप्त कर दिया। वे यह देख रहे थे कि उनके शान्तिपूर्ण संघर्ष का कोई नतीजा नहीं निकल रहा है।

भूटानी शरणार्थियों के बीच यह विचार दिनोंदिन जोर पकड़ता जा रहा था कि अब सशस्त्र संघर्ष के जरिये ही भूटान के निरंकुश राजतंत्र को झुकाया जा सकता है। काठमांडो से प्रकाशित दैनिक अखबार ‘कान्तिपुर’ ने 7 नवम्बर 1996 को एक समाचार भी प्रकाशित किया था कि भूटान में एक ऐसी कम्युनिस्ट पार्टी का गठन हो चुका है जो सशस्त्र संघर्ष में विश्वास करती है और यह पार्टी देश के अन्दर तथा शरणार्थियों के बीच गुप्त रूप से सक्रिय है। ‘कान्तिपुर’ में प्रकाशित समाचार में भूटान कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय समिति के सदस्य नवीन ने यह बताते हुए कि भूटान का निरंकुश राजतंत्र उन्हें हथियार उठाने के लिए मजबूर कर रहा है, कहा कि हमारी पार्टी द्वारा राजशाही के खिलाफ आन्दोलन की तैयारियों को देखकर ही अमरीका ने शरणार्थियों की एक बड़ी तादाद को यहाँ से हटाने का षडयंत्र तैयार किया है।

वाशिंगटन के मौजूदा प्रस्ताव का मकसद जल्द से जल्द शरणार्थी शिविरों को समाप्त करना और भूटान नरेश को राहत पहँुचाना है। यही अमरीका के दूरगामी हित में है। हिमालय में बसे देशों में पैर जमाकर ‘भारत पर निगरानी रखने तथा चीन को घेरने’ की अमरीकी साजिश का यह अगला पड़ाव होगा।

27 दिसम्बर 2006 को भूटान के विदेशमंत्री ने नेशनल एसेंबली में शरणार्थी शिविरों में माओवादी तत्वों और विचारों की पैठ हो जाने का समाचार देते हुए कहा कि ऐसी हालत में राजनीति से पूरी तरह ओतप्रोत ऐसे लोगों को “भूटान में प्रवेश की अनुमति देने का मतलब ‘रेडीमेड आतंकवादियों’ का आयात करना है जो हिंसा, आतंक और अस्थिरता का वही खेल खेलेंगे जो उन्होंने नेपाल में खेला है।”

उपरोक्त घटनाओं की पृष्ठभूमि में देखें तो निश्चय ही अमरीका की उदारता और मानवीयता के पीछे किसी गहरी साजिश की पुष्टि होती है। दरअसल नेपाल में अपनी नीतियों की प्रारम्भिक विफलता के बाद अमरीका ने अपना रुख भूटान की ओर मोड़ लिया। उसकी लाख कोशिशों के बावजूद नेपाल में राजतंत्र को बचाया नहीं जा सका और वहाँ के माओवादी सत्ता के करीब पहँुचते चले गये।

यह भी अनायास नहीं था कि भूटान नरेश जिग्मे सिंगे वांग्चुक ने अचानक 15 दिसम्बर 2006 को अपने ज्येष्ठ पुत्र जिग्मे खेसर वांग्चुक (वर्तमान नरेश) को सत्ता की बागडोर पूरी तरह सौंप दी जबकि पूर्व घोषित कार्यक्रम के अनुसार यह सत्ता परिवर्तन 2008 में होना था। इसने सबको हैरानी में डाल दिया। भूटान नरेश ने समय से पूर्व सत्ता की बागडोर सौंपने के पीछे के कारणों का खुलासा भी नहीं किया। वैसे, युवराज खेसर अमरीका के काफी करीब माने जाते हैं और यह भी चर्चा थी कि नये संविधान का मसौदा युवराज खेसर की ही देखरेख में अमरीकी विशेषज्ञों ने तैयार किया था ताकि राजशाही को थोड़ा मानवीय रूप दिया जा सके।

दिसम्बर 2006 में भारत के चर्चित और प्रतिष्ठित पत्रकार कुलदीप नय्यर की मुलाकात नेपाल स्थित अमरीकी राजदूत जेम्स एफ मोरियार्टी से हुई। एक समाचार एजेंसी के अनुसार नय्यर ने जानना चाहा कि शिविरों में शरणार्थी जीवन बिता रहे भूटानियों को उनके देश भूटान भेजने के बजाय अमरीका ने क्यों इतनी बड़ी संख्या में इन्हें अपने देश ले जाने का प्रस्ताव रखा? जवाब में मोरियार्टी ने कहा कि “शरणार्थी शिविरों में आतंकवादी गतिविधियाँ देखने को मिली हैं। इसका असर भारत के उत्तर पूर्व के हिस्से पर पड़ेगा। हम भारत को मदद पहँुचाने की कोशिश कर रहे हैं।”

भूटान के शासकों की धूर्तता और पाखंड का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि उसने अपने ‘सकल राष्ट्रीय आनन्द’ (ग्रॉस नेशनल हैप्पीनेस) की अवधारणा को सारी दुनिया में जोरशोर से प्रसारित किया और यह बताना चाहा कि धरती पर अगर कहीं कोई स्वर्ग है तो वह भूटान है। जिस देश की 1/6 आबादी को न्यूनतम मानव अधिकारों की माँग करने की सजा के तौर पर भीषण दमन और उत्पीड़न का शिकार बनाते हुए देश से बाहर खदेड़ दिया गया हो, उनकी जमीनों और बागानों पर कब्जा कर लिया गया हो उस देश को ‘सकल राष्ट्रीय आनन्द’ वाले देश के रूप में प्रचारित करने से बड़ा पाखंड और क्या हो सकता है! नेपाली पत्रकार सी के लाल और अनुराग आचार्य ने ठीक ही इसे ‘ग्रॉस नेशनल मिजरी’ और ‘ग्रॉस नेशनल शेम’ कहा है।

मार्च 1998 में भाजपा नेता अटलबिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री बने और गृहमंत्री का पद लाल कृष्ण आडवाणी ने सम्भाला। इससे पहले एक बार और वाजपेयी को प्रधानमंत्री बनने का सौभाग्य मिला था लेकिन इस पद पर वह 16 मई 1996 से 1 जून 1996 तक (सोलह दिन) ही रहे लेकिन इस बार उनके पास अच्छा खासा बहुमत था। यह एनडीए की सरकार थी जिसके संयोजक जार्ज फर्नांडीज थे जो इस सरकार में रक्षा मंत्री बन गये थे। स्वाभाविक है कि भूटानी शरणार्थियों का नेतृत्व जो लोग कर रहे थे उन्हें इस सरकार से काफी उम्मीद थी। इसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि नेतृत्वकारी वर्ग का बहुत बड़ा हिस्सा न केवल हिन्दू था बल्कि काफी हद तक हिन्दुत्ववादी मानसिकता से भी ग्रस्त था।

भाजपा के सत्ता में आते ही उसे लगा कि अब शरणार्थी समस्या का समाधान हो जायेगा। इनके नेतागण भाजपा के शीर्ष नेताओं से लेकर विश्व हिन्दू परिषद के अध्यक्ष अशोक सिंघल से भी कई बार मिले। वैसे भी दक्षिणी भूटान की हिन्दू आबादी को प्रताड़ित किये जाने की खबरें काफी पहले से इन लोगों को मिल रही थीं। 1996 में भाजपा की सरकार बनने के पाँच दिन बाद ही 21 मई को विश्व हिन्दू परिषद का एक प्रतिनिधिमंडल राजधानी थिम्पू में भूटान नरेश से मिला, लेकिन इसने शरणार्थियों की समस्या पर कोई बातचीत नहीं की। प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व विहिप (विश्व हिन्दू परिषद) के कार्यकारी अध्यक्ष अशोक सिंघल कर रहे थे और इसमें संगठन के उपाध्यक्ष श्रीशचन्द दीक्षित और आचार्य गिरिराज किशोर शामिल थे।

1990 में भी विहिप का प्रतिनिधिमंडल भूटान नरेश से मिला था। प्रतिनिधिमंडल को यह जानकारी मिली थी कि दक्षिणी भूटान के कुछ इलाकों में चल रही संस्कृत पाठशालाओं को खत्म कर उन्हें सेना की बैरकों का रूप दे दिया गया है। ऐसे अनेक गाँवों के नाम बदल दिये गये हैं जिनसे संस्कृत अथवा हिन्दू संस्कृति की गन्ध आती थी। लामीधारा गाँव में एक संस्कृत पाठशाला का अस्तित्व था जिसका अब कहीं नाम निशान भी नहीं था। लामीधारा का नाम बदलकर मंडेय गाँव कर दिया गया और यहाँ से अधिकांश नेपाली मूल के भूटानियों को बाहर निकाल दिया गया। अशोक सिंघल इन्हीं मुद्दों पर भूटान नरेश से बातचीत करना चाहते थे, लेकिन वह कुछ कहते इससे पहले ही शाही सरकार की ओर से राजा ने अयोध्या के प्रस्तावित राम मंदिर के लिए चाँदी की एक अलंकृत र्इंट उन्हें भेंट की। प्रतिनिधिमंडल के सदस्य अपनी शिकायत दर्ज कराये बिना गदगद भाव से वापस आ गये। 1996 में भी इस टीम ने भूटान नरेश से मिलने की केवल औपचारिकता पूरी की।

अपने निधन से कुछ माह पूर्व 9 सितम्बर 2015 को अशोक सिंघल ने अमरीका के वर्सेस्टर (मेसाच्यूसेट्स) में ‘हिन्दू सनातन सेवा समाज’ के एक समारोह में हिस्सा लिया जिसका आयोजन अमरीका में बसे भूटानी शरणार्थियों ने किया था। उसमें उन्होंने अपने सम्बोधन में कहा, “नेपालीभाषी भूटानी लोगों को उनके मूल देश से इसलिए निकाल बाहर किया गया क्योंकि वे हिन्दू धर्म का पालन कर रहे थे।” इसके बाद उन्होंने नेपाल स्थित शरणार्थी शिविरों में शरणार्थियों की जो कठिनाइयाँ देखी थीं उनका वर्णन किया और उनकी इस बात के लिए प्रशंसा की कि ‘कठिनाइयों के बावजूद उन्होंने अपनी संस्कृति को बचाये रखा और हिन्दू धर्म के मार्ग पर चलते रहे।’

किसी ने उनसे नहीं पूछा कि इन शरणार्थियों की मदद भारत सरकार ने क्यों नहीं की जबकि 1998 से 2004 तक यानी छ: वर्ष से भी अधिक समय तक उनके ही विचारों पर चलने वाली वाजपेयी सरकार का अस्तित्व था। दरअसल भारत के हिन्दूवादी नेताओं की दिलचस्पी राजा तक ही सीमित थी जिसकी वजह से ‘दुश्मन कम्युनिस्ट चीन से भारत बचा हुआ है।’

2008 तक शरणार्थियों की समस्या लगभग समाप्त हो गयी। शिविरों में बमुश्किल 6–7 हजार बचे रहे और अन्य सभी विदेशों में बस गये। एक भी शरणार्थी भूटान सरकार द्वारा ही बनायी गयी उस श्रेणी में नहीं आया जिस श्रेणी का नाम ‘वास्तविक भूटानी’ दिया गया था।

शरणार्थियों के समर्थन का छलावा

2014 में नरेन्द्र मोदी की सरकार आयी और इसके गृहमंत्री अमित शाह ने बड़े जोशखरोश के साथ भारत के नागरिकता बिल में संशोधन का ऐलान किया जिसके तहत पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के हिन्दू, बौद्ध, सिख धर्म के लोगों को भारत में नागरिकता दी जायेगी। इसमें भी भूटान का कहीं उल्लेख नहीं है जबकि एक लाख से अधिक हिन्दुओं को भूटान के राजा ने जबरन देश से बाहर निकाल दिया, उनकी नागरिकता समाप्त कर दी और उन्हें विदेशों में जाकर शरण लेनी पड़ी। हिन्दुओं के हितों की रक्षा करने के मोदी–शाह के पाखंड का यहाँ पूरी तरह पर्दाफाश होता है।

दरअसल इस ‘हिन्दू हित रक्षा’ के पीछे मुसलमानों के प्रति नफरत वाला एजेंडा काम करता है। यह देखा जाता है कि इस ‘हित रक्षा’ में किस हद तक मुसलमानों की भर्त्सना की जा सकती है। अगर भूटान के इन असहाय नागरिकों को प्रताड़ित करने वाली सत्ता किसी मुस्लिम शासन व्यवस्था वाली रही होती तब इन्हें अपने यहाँ रखने का फायदा भी मिलता। जाहिर सी बात है कि भूटानी नागरिकों के हिन्दू होने से कोई सरोकार नहीं है–– असली सरोकार इससे है कि उनसे इन हिन्दुत्वादियों के मुस्लिम विरोधी एजेंडा को मदद मिलती है या नहीं।

ताजा आँकड़ों के अनुसार अब तक 1,13,000 शरणार्थी अमरीका तथा अन्य छ: देशों में बसाये जा चुके हैं। शरणार्थी शिविरों में अभी भी 6 से 8 हजार शरणार्थी इस उम्मीद में पड़े हैं कि शायद उनकी स्वदेश वापसी हो सके। उन्हें अभी भी भारत से उम्मीद है कि वह कम से कम एक बार भूटान सरकार से इसके लिए अनुरोध कर दे।

(जनचौक से साभार)