बहुत हो चुका ओली जी! अब विश्राम कीजिए….
अन्तरराष्ट्रीय आनन्द स्वरूप वर्मा(नेपाल में गहराता राजनीतिक संकट)
(नेपाल के प्रधानमंत्री केपी ओली द्वारा संसद भंग करने की सिफारिश से उत्पन्न राजनीतिक संकट अभी बरकरार है। इस संकट को हल करने में न्यायपालिका की भूमिका भी संदिग्ध है। अब वहाँ के जनगण की एक मात्र उम्मीद जनान्दोलन से ही रह गयी है। जनयुद्ध से हासिल हुई अनमोल उपलब्धियों–– राजाशाही का अन्त, लोकतंत्र, संघीय ढाँचा और संविधान को बचाने का एकमात्र रास्ता जनान्दोलन ही है।)
नेपाल के राजनीतिक रंगमंच पर पिछले कुछ महीनों से जो अश्लील नाटक चल रहा था, उसके पहले खण्ड का पटाक्षेप 20 दिसम्बर को प्रतिनिधि सभा के विघटन के साथ हो गया। यह सारा कुछ इतने अप्रत्याशित ढंग से हुआ कि इस नाटक के किरदार भी हैरत में आ गये। पहली बार यह देखने में आया कि कोई प्रधानमंत्री, जिसके पास लगभग दो–तिहाई बहुमत हो, वह खुद ही संसद को भंग करने की सिफारिश राष्ट्रपति से करे।
इस पूरे नाटक में कितने नायक और कितने खलनायक हैं यह तो आने वाला समय ही तय करेगा लेकिन इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने अपने इस कदम से देश को अभूतपूर्व संकट में डाल दिया है। अपनी सत्ता बचाने की ललक में उन्होंने न केवल सत्ता से ही हाथ धो लिया बल्कि ऐसी कार्रवाई को अंजाम दिया है जो उनके लिए आत्मघाती साबित हो सकती है।
अब से दो वर्ष पूर्व जब प्रचण्ड के नेतृत्व वाली माओवादी पार्टी और ओली की नेकपा–एमाले ने मिलकर नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एनसीपी) का गठन किया, तो भारत और अमरीका के फासीवादी रुझान वाले सत्ताधारियों के अन्दर जहाँ दहशत फैली वहीं नेपाली जनता को लगा कि अब देश की राजनीति एक सही दिशा लेगी। यह भी उम्मीद जगी कि कम्युनिस्टों के नाम पर जितने भी छोटे–बड़े समूह हैं उन्हें एक मंच पर लाया जा सकेगा। चुनाव के नतीजों ने जनता को और भी ज्यादा उत्साहित किया क्योंकि पिछले तीन–चार दशकों के बाद पहली बार किसी ऐसी सरकार का गठन हुआ था जो बिना किसी बाधा के अपना कार्यकाल पूरा कर सकती थी। एक स्थायी और स्थिर सरकार ही विकास की गारण्टी दे सकती है–– इसे सभी लोग मानते हैं। यही वजह है कि व्यापक जनसमुदाय ने इस सरकार से बहुत उम्मीद की थी–– बहुत ही ज्यादा।
उसे तनिक भी आभास नहीं था कि जिन कम्युनिस्ट नेताओं ने एक लम्बे संघर्ष के बाद राजतंत्र को समाप्त करने में किसी न किसी रूप में अपनी भूमिका निभायी, वे सत्ता की आपसी खींचतान में इस सीमा तक लिप्त हो जाएँगे कि उन्हें जनता के दुख–दर्द की तनिक भी परवाह नहीं होगी। इसमें कोई सन्देह नहीं कि 10 वर्षों के जनयुद्ध ने राजतंत्र को समाप्त करने में प्रमुख भूमिका निभायी लेकिन माओवादियों के अलावा अन्य वामपंथी या कम्युनिस्ट समूहों के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि इनकी कोई भूमिका नहीं थी। अपने ढुलमुल रवैये के बावजूद अन्तत: इन्हें भी राजतंत्र के खिलाफ ही खड़ा होना पड़ा।
आज जो स्थिति पैदा हुई है उसके लिए जिम्मेदार कौन है ? इसमें कोई सन्देह नहीं कि मुख्य जिम्मेदारी प्रधानमंत्री केपी ओली की है लेकिन क्या अन्य शीर्ष नेताओं को इस जिम्मेदारी से बरी किया जा सकता है ? केपी ओली ने सभी जनतांत्रिक तौर–तरीकों को दरकिनार करते हुए अगर अपने ढंग की शासन पद्धति अपनायी तो पार्टी के अन्य वरिष्ठ नेता क्या कर रहे थे ?
यह पूरा वर्ष इन नेताओं की आपसी खींचतान की खबरों से भरा रहा है। पार्टी के सेक्रेटेरिएट में 9 सदस्य थे और इसमें प्रचण्ड के पक्ष का पलड़ा भारी था। पाँच सदस्य ओली की निरंकुशता का विरोध करने में मुखर थे लेकिन इन्हीं पाँच सदस्यों में से एक सदस्य बामदेव गौतम को जब ओली अपनी धूर्त रणनीति से ‘न्यूट्रलाइज’ कर देते थे तो ये सारे लोग असहाय दिखायी देने लगते थे। कितना हास्यास्पद और शर्मनाक है कि ओली ने बामदेव गौतम को अपनी तरफ खींचने के लिए कभी संसद की सदस्यता का तो कभी पार्टी उपाध्यक्ष का और यहाँ तक कि भावी प्रधानमंत्री का भी प्रलोभन दे दिया। इससे भी शर्मनाक यह है कि गौतम उस प्रलोभन में कुछ समय के लिए आ भी गये।
इसके लिए इस वर्ष जुलाई में हुई उन बैठकों का ब्यौरा देखा जा सकता है जब ऐसा महसूस हो रहा था कि या तो केपी ओली अपनी कार्य–पद्धति को सुधार लेंगे या पार्टी में विभाजन हो जाएगा। नेपाल की जनता ने इन निन्दनीय प्रकरणों को अच्छी तरह देखा है इसलिए यहाँ दुहराने की जरूरत नहीं है। इस सन्दर्भ में इतना ही कहा जा सकता है कि अपने विरोधियों को शान्त करने और अपने निजी स्वार्थ को बचाए रखने में ओली ने सारी कलाओं का इस्तेमाल किया। अपने सहयोगियों की कमजोर नस को पकड़ने में ओली माहिर हैं लेकिन जनता की नब्ज टटोलने में उन्होंने अपने इस कौशल का इस्तेमाल नहीं किया। यह एक बहुत बड़ी त्रासदी है।
नेपाल आज हर मोर्चे पर संकट के दौर से गुजर रहा है। कोविड–19 ने इस संकट को और गहरा किया है जिसका असर देश की अर्थव्यवस्था पर साफ दिखाई दे रहा है। इस वर्ष अप्रैल में जारी विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार नेपाल में बाहर से आने वाले पैसे में 14 प्रतिशत गिरावट आने जा रही है। रिपोर्ट के अनुसार पिछले वर्ष प्रवासी नेपालियों द्वारा भेजी गयी धनराशि 8.64 बिलियन डॉलर थी और अगर इसमें 14 प्रतिशत की गिरावट आती है तो नेपाल को तकरीबन 145 बिलियन रुपये का नुकसान होगा। विश्व बैंक की रिपोर्ट से यह पता चलता है कि पिछले वर्ष जो पैसा बाहर से नेपाल पहुँचा वह सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 27.3 प्रतिशत के बराबर था।
इस वर्ष मार्च से कोई भी नेपाली नागरिक काम के लिए विदेश नहीं जा सका। इतना ही नहीं, सितम्बर 2020 तक लगभग 80 हजार नेपाली नागरिक जो विदेशों में काम कर रहे थे, स्वदेश वापस लौटने के लिए मजबूर हुए। ओली सरकार के सामने यह बहुत बड़ी समस्या थी। इस समस्या से निपटने के लिए उन्हें अपने सहयोगियों के साथ पूरा समय लगाना चाहिए था। कई दशकों बाद देश को एक टिकाऊ सरकार मिली थी। यह सरकार बहुत कुछ कर सकती थी।
2015 में नया संविधान बनने के बाद भारत द्वारा की गयी आर्थिक नाकाबन्दी से निपटने में ओली ने अत्यन्त कुशलता का परिचय दिया था, जिसने उन्हें अभूतपूर्व लोकप्रियता दी। उस लोकप्रियता का वह सकारात्मक इस्तेमाल कर सकते थे। देश का दुर्भाग्य है कि उन्होंने ऐसा नहीं किया। इतिहास ने उन्हें एक शानदार अवसर दिया था जिसे उन्होंने गँवा दिया–– ठीक वैसे ही जैसे प्रचण्ड ने सत्ता में आने के बाद एक ऐतिहासिक अवसर को गँवाया। अब तो ओली जी से यही कहा जा सकता है कि आपने देश की काफी सेवा कर ली–– अब विश्राम करें।
बेशक, पार्टी के अन्दर सतही तौर पर जो सत्ता संघर्ष दिखाई दे रहा है वह मूलत: संसदीय व्यवस्था में जनतांत्रिक मूल्यों की पुनर्स्थापना से जुड़ा है लेकिन राजनेताओं की छवि इतनी धूमिल हो चुकी है कि कोई इसे मानने को तैयार नहीं।
अनेक कारणों से प्रचण्ड की छवि काफी धूमिल हो चुकी है लेकिन उनके साथ माधव नेपाल का घनिष्ठ रूप से जुड़ा होना इस बात की गारण्टी करता है कि प्रचण्ड किसी भटकाव के शिकार नहीं होंगे। माधव नेपाल प्रधानमंत्री रह चुके हैं और उनका जनतांत्रिक मूल्यों और आदर्शों में दृढ़ विश्वास है। इतिहास ने इन दोनों नेताओं के ऊपर एक ऐसी जिम्मेदारी सौंपी है कि वे गर्त में जा रही राजनीति को उबारें और जनता के अन्दर एक बार फिर भरोसा पैदा हो। अगर जनता राजनीति से उदासीन हो गयी तो यह फासीवादी ताकतों के लिए बहुत अच्छी स्थिति होगी। नेपाल का सौभाग्य है कि बार–बार धोखा खाने के बावजूद जनता का अभी जनपक्षीय राजनीति में विश्वास बना हुआ है। इस विश्वास को और मजबूत करने की जरूरत है।
अभी यह कहना जल्दबाजी होगी कि नेपाल के मौजूदा राजनीतिक घटनाक्रम में भारत की कोई दिलचस्पी नहीं है। लोगों के मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या इस सबके पीछे नेपाल के सन्दर्भ में भारत की औपनिवेशिक मानसिकता का भी कुछ हाथ है। ऐसा इसलिए क्योंकि हाल ही में भारतीय खुफिया एजेंसी ‘रॉ’ के प्रमुख सामन्त गोयल और भारतीय सेनाध्यक्ष मनोज मुकुन्द नरवाने ने नेपाल की आधिकारिक यात्रा पूरी की। ये ऐसे लोग हैं जो नेपाल की राजनीति पर प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से प्रभाव डालते हैं। यह तो जगजाहिर है कि भारत के मौजूदा शासक केपी ओली को पसन्द नहीं करते क्योंकि आर्थिक नाकाबन्दी के दौरान उन्होंने चीन के साथ मधुर सम्बन्ध बनाये। इसे भारत की निगाह में एक कम्युनिस्ट देश द्वारा दूसरे कम्युनिस्ट देश को प्रोत्साहित करना था जिसका प्रभाव चीन के सन्दर्भ में भारत की विदेश नीति पर भी पड़ता था। वैसे, अभी तक भारत की कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी है–– उसने यही कहा है कि यह नेपाल का आन्तरिक मामला है।
यह जो संकटपूर्ण स्थिति पैदा हुई है उससे निपटने का तरीका क्या हो सकता है ? आज राष्ट्रीय रंगमंच पर जो किरदार दिखायी दे रहे हैं वे सभी कम्युनिस्ट हैं और जनता के बीच समग्र रूप से कम्युनिस्टों की छवि धूमिल हो रही है। बार–बार यह याद दिलाने की जरूरत पड़ती है कि आज के विश्व में जब अनेक देशों में फासीवादी रुझान की सरकारें सत्ता में हैं, नेपाल दक्षिण एशिया का एकमात्र देश है जहाँ घोषित तौर पर कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार है जो दो–तिहाई बहुमत से सत्ता में आयी है। ऐसे समय जब राजनीतिक नेतृत्व से जनता का मोह भंग हो रहा हो, समाज की अन्य शक्तियों को सामने आने की जरूरत है।
नेपाल इस अर्थ में भी एक अनूठा देश है जहाँ गम्भीर राजनीतिक–सामाजिक संकट के समय छात्रों–युवकों ने आगे बढ़कर कमान अपने हाथ में ले ली और राजनीति को सही दिशा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। आप 1979 को याद करिए जब अप्रैल में पाकिस्तान के नेता जुल्फिकार अली भुट्टो की फाँसी के विरोध में काठमाण्डू के असंख्य प्रदर्शनकारी छात्रों पर पुलिस की बर्बरता और लाठीचार्ज ने छात्र–संघर्ष को भड़का दिया था। उस समय इस आन्दोलन ने देशव्यापी रूप लिया और स्थिति इतनी बिगड़ी कि इसे रोकने के लिए तत्कालीन महाराज बीरेन्द्र को जनमत संग्रह की घोषणा करनी पड़ी। नेपाल के इतिहास में पहली बार भावी राजनीतिक व्यवस्था चुनने के लिए जनमत संग्रह कराने की शाही घोषणा हुई थी। छात्र आन्दोलन का एक और उल्लेखनीय स्वरूप 1989–90 में भी देखने को मिला जिसकी परिणति निर्दलीय पंचायती व्यवस्था के स्थान पर बहुदलीय व्यवस्था की स्थापना के रूप में हुई।
महाराजा ज्ञानेन्द्र के शासनकाल में छात्रों के आन्दोलन का एक और असाधारण रूप तब देखने को मिला जब 13 दिसम्बर 2003 को पोखरा में सेना द्वारा एक छात्र की हत्या की गयी थी। इस घटना की प्रतिक्रिया में पृथ्वी नारायण कैंपस के छात्रों द्वारा शुरू किये गये आन्दोलन ने धीरे–धीरे समूचे देश को अपनी चपेट में ले लिया और इसकी परिणति राजतंत्र विरोधी आन्दोलन के रूप में हुई। स्मरणीय है कि उन दिनों देश की प्रमुख संसदीय पार्टियाँ ‘प्रतिगमन’ विरोधी आन्दोलन चला रही थीं और उनकी माँग राजतंत्र को समाप्त करने की नहीं थी लेकिन छात्रों के अन्दर वह धूर्त दृष्टि नहीं होती जो राजनीतिक दलों में होती है। हालाँकि छात्रों के संगठन आमतौर पर किसी न किसी राजनीतिक दल से परोक्ष रूप से जुड़े होते हैं।
इन छात्र संगठनों ने अपनी माँगें वही नहीं रखीं जो राजनीतिक दल रख रहे थे जिनसे वे जुड़े थे। राजनीतिक दलों की माँग तो संविधान में संशोधन करने और प्रतिगमन को समाप्त करने यानी संसद को बहाल करने तक सीमित थी लेकिन छात्र संगठनों ने आन्दोलन की धार को महाराजा ज्ञानेन्द्र और युवराज पारस के खिलाफ मोड़ने में कामयाबी पायी। वे राजतंत्र को पूरी तरह समाप्त करने की माँग कर रहे थे। उस समय स्थिति इतनी गम्भीर हुई कि अमरीका की सहायक विदेशमंत्री क्रिस्टिना रोक्का काठमाण्डू पहुँचीं और उन्होंने नेपाली कांग्रेस, नेकपा एमालेै और राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी के नेताओं से मिलकर कहा कि वे अपने छात्र संगठनों से कहें कि वे राजतंत्र को समाप्त करने का नारा न लगाएँ।
आज फिर वह स्थिति आ गयी है जब देश के छात्रों–युवकों को आगे बढ़कर राजनीति की कमान सम्भालनी होगी। उनके अन्दर ही वह क्षमता है कि वे उन राजनेताओं को रास्ते पर लाएँ जो अपने निजी और संकीर्ण स्वार्थों की वजह से भटकाव के शिकार हो गये हैं। अगर ऐसा हो सका तो नेपाल की राजनीति एक बार फिर सही दिशा ले सकेगी और जनता की अपेक्षाओं को पूरा कर सकेगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, समकालीन तीसरी दुनिया के संस्थापक सम्पादक हैं और तीसरी दुनिया के देशों के जानकार हैं।)
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