एक जमाने में अफीम ब्रिटेन के कभी न अस्त होने वाले सूरज को ऊर्जा प्रदान करने वाला सबसे बड़ा स्रोत हुआ करता था। दरअसल, अफीम और उसके द्वारा किये गये विनाश की कहानी ब्रिटेन के वैश्विक शक्ति के रूप में उदय की दास्तान है। 19वीं सदी में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के जरिये भारत पर धीरे–धीरे काबिज हो रहे ब्रिटेन को दो समस्याओं का सामना करना पड़ रहा था। ब्रिटेन को तब तक चीन की चाय का चस्का लग चुका था और इस वजह से उसे वहाँ से भारी मात्रा में इसका आयात करना पड़ रहा था। दिक्कत यह थी कि चीन को चाय के निर्यात के बदले में ब्रिटेन में बनी वस्तुओं के बजाय चाँदी चाहिए थी। इस तरह चाय के चक्कर में ब्रिटेन की चाँदी चीन पहुँच रही थी और उसका खजाना खाली हुआ जा रहा था। दूसरी तरफ, भारत में बढ़ते भौगोलिक दायरे के कारण ईस्ट इण्डिया कम्पनी का खर्च भी तेजी से बढ़ रहा था। ब्रिटेन ने अफीम से एक तीर से दो शिकार किये।

ईस्ट इण्डिया कम्पनी और 1857 के बाद ब्रिटिश सरकार ने बिहार और बंगाल में किसानों को अफीम पैदा करने के लिए बाध्य किया और उसके प्रसंस्करण के लिए गाजीपुर और पटना में फैक्ट्रियाँ स्थापित कीं। यहाँ तैयार होने वाला अफीम कलकत्ता (अब कोलकाता) पहुँचाया जाने लगा और वहाँ से उसे जहाजों में भरकर चीन निर्यात किया जाने लगा। इस तरह ब्रिटेन को कमाई का एक स्रोत भी मिल गया और चाय के आयात के बदले चाँदी निर्यात करने की जरूरत भी नहीं पड़ी। ब्रिटेन का यह गन्दा धन्धा एक सदी तक चलता रहा। उसे यह बखूबी एहसास था कि अफीम सेहत के लिए बहुत खतरनाक है, लेकिन अपने साम्राज्य को बचाये रखने के लिए अफीम की बुराइयों से उसने आँखें मून्द लीं। बहरहाल, अफीम के इस कारोबार ने सिर्फ ब्रिटिश साम्राज्यवाद की जड़ें ही मजबूत नहीं कीं, बल्कि देश के अन्दर आर्थिक असमानता के बीज भी बोये। भारतीय पत्रकार थामस मैनुएल की अफीम के व्यापार और उसके वैश्विक प्रभाव पर केन्द्रित ‘ओपियम इंक’ नामक शानदार पुस्तक आयी है।

इस पुस्तक को पढ़ने के बाद पाठकों को यह भी आसानी से समझ में आ जाएगा कि बिहार में क्यों गरीबी का नाला बह रहा है और मुम्बई में क्यों समृद्धि का समुद्र लहरा रहा है।

पुस्तक में नशीले पदार्थ को लेकर अमरीका के दोगलेपन को भी उजागर किया गया है। तथ्यों, तर्कों और घटनाओं के जरिये लेखक ने बताया है कि कैसे अफीम और दूसरी नशीली दवाओं के खिलाफ अभियान के नाम पर अमरीकी खुफिया एजेंसी सीआईए ने इनके काले कारोबार को बढ़ावा देने का काम किया। अमरीका एक तरफ संयुक्त राष्ट्र के झण्डे तले सभी देशों को नशीले पदार्थों के खिलाफ अन्तरराष्ट्रीय सन्धि करने के लिए मनाता रहा और दूसरी तरफ सीआईए को इन पदार्थों की तस्करी के जरिये विभिन्न देशों में विद्रोहियों को माली मदद पहुँचाता रहा। अमरीका यह सब कभी लोकतंत्र पर खतरे के नाम पर करता था और अब इस्लामी आतंक से लड़ने के नाम पर कर रहा है। सोवियत संघ द्वारा यह आरोप लगाया गया था कि अमरीकी केन्द्रीय खुफिया एजेंसी (सीआईए) के एजेण्ट अफगानिस्तान से अफीम की तस्करी में मदद कर रहे थे, यह पश्चिम में, अफगान प्रतिरोध के लिए धन जुटाने के लिए हो रहा था, या सोवियत संघ को कमजोर करने के लिए मादक पदार्थों की लत लगाने की सोच थी। अल्फ्रेड मैककॉय के अनुसार सीआईए ने विभिन्न अफगान ड्रग लॉर्ड्स का समर्थन किया, उदाहरण के लिए गुलबुद्दीन हिकमतयार और अन्य जैसे हाजी अयूब अफरीदी। कई प्रतिरोधी नेताओं ने अपने क्षेत्रों में अफीम के उत्पादन को बढ़ाने पर ध्यान केन्द्रित किया, नशे की ‘हराम’ इस्लामी स्थिति की परवाह किये बिना। विशेष रूप से गुलबुद्दीन हिकमतयार, मुल्ला नसीम अखुन्दजादा और इस्मत मुस्लिम इसके प्रमुख पैरोकार थे। 1982 और 1983 के बीच उत्पादन दोगुना होकर 575 मीट्रिक टन हो गया। इस समय संयुक्त राज्य अमरीका मुजाहिदीन की “हथियारों की लम्बाई” का समर्थन करने वाली रणनीति का अनुसरण कर रहा था जिसका मुख्य उद्देश्य था सोवियत संघ को अफगानिस्तान से वापस धकेलना। ध्यातव्य है कि अफगानिस्तान की धरती दुनिया में सबसे ज्यादा अफीम पैदा करने के लिए भी जानी जाती है। 1994 में वहाँ 3500 टन अफीम का उत्पादन होता था, जो 2007 में बढ़कर 8200 टन हो गया। अब यह उत्पादन घटा है। संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के मुताबिक 2020 में अफगान किसानों ने 2,300 टन अफीम की खेती की। एक अनुमान के मुताबिक वैश्विक अफीम उत्पादन का 90 फीसद अफगानिस्तान में होता है।

एक दूसरा पहलू भी है। अफगान–अमरीकी मूल की पत्रकार फरीबा नावा ने 2011 में लिखी अपनी किताब ‘ओपियम नेशन : चाइल्ड ब्राइड्स, ड्रग लॉर्ड्स, ऐण्ड वन वूमन्स जर्नी थू्र अफगानिस्तान’ में इस देश में मादक पदार्थों के धन्धे से सम्बन्धित पहलुओं का उल्लेख किया था। नावा ने कहा था कि अफगानिस्तान के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 60 प्रतिशत हिस्सा वहाँ फल–फूल रहे 400 करोड़ डॉलर के अफीम के धन्धे से आता है। लेखिका ने यह भी कहा कि अफगानिस्तान की सीमा से बाहर यह धन्धा करीब 6,500 करोड़ डॉलर का है। इस पुस्तक के अनुसार अफीम का धन्धा अफगानिस्तान के लोगों के दैनिक जीवन पर सीधा प्रभाव डालता है। कई परिवार पूरी तरह अफीम उद्योग पर निर्भर हैं और इससे वे बतौर उत्पादक, तस्कर या अन्य किसी न किसी रूप में जुड़े हैं। इसके साथ ही ‘ओपियम ब्राइडस’ की संस्कृति भी विकसित हो गयी है। जिस वर्ष फसल दगा दे जाती है, किसान अफीम का कर्ज उतारने के लिए अपनी बेटियाँ तस्करों को बेच देते हैं। नावा ने इस सन्दर्भ में 12 वर्ष की लड़की दारया का जिक्र किया।

अफगानिस्तान में तालिबान के सत्ता में आने के बाद अब एक बड़ी चिन्ता यह है कि क्या अफगानिस्तान फिर से ड्रग्स (नशीली दवाओं) की तस्करी का केन्द्र बनेगा। यूरोपीय जानकारों का कहना है कि तालिबान के लिए ड्रग्स के कारोबार पर काबू पाना आसान नहीं होगा। इसकी वजह यह है कि अफगानिस्तान के कई प्रान्तों में अफीम की खेती ही बहुत से लोगों की आमदनी का एकमात्र जरिया है। इसके अलावा अपने पिछले शासनकाल के शुरुआती वर्षों में तालिबान ने ड्रग्स को अपनी आय का स्रोत भी बना रखा था। हालाँकि अपने शासन के आखिरी दो वर्षों में उसने अफीम की खेती को रोकने की कोशिश की थी। यही अफीम तालिबान आतंकियों के लिए धन का सबसे प्रमुख स्रोत है। जानकारों का कहना है कि अगर तालिबान अफीम की खेती पर काबू पाना चाहे, तब भी उसके लिए ये मुश्किल चुनौती होगी। उस हाल में जिन किसानों की आमदनी का यह मुख्य स्रोत है, उनकी बगावत का उसे सामना करना पड़ेगा। लन्दन यूनिवर्सिटी में स्कूल ऑफ ओरिएण्टल एण्ड अफ्रीकन स्टडीज के प्रोफेसर जोनाथन गुडहैण्ड ने वेबसाइट पॉलिटिको डॉट ईयू से कहा कि तालिबान के पिछले शासनकाल के दौरान अफीम की खेती पर कार्रवाई करने की तालिबान की कोशिश से किसानों के लिए मुश्किल खड़ी हुई थी।

इस बार सत्ता पर कब्जे के बाद तालिबान ने कहा है कि वह अफगानिस्तान को अफीम की खेती का केन्द्र नहीं रहने देगा। काबुल पर तालिबान के कब्जे के बाद अपनी पहली प्रेस कांफ्रेंस में तालिबान के प्रवक्ता जुबिहुल्लाह मुजाहिद ने अन्तरराष्ट्रीय समुदाय से अपील की थी कि वह अफीम की खेती रोकने में तालिबान की मदद करे। जानकारों का कहना है कि अभी तालिबान अफीम से होने वाली आय पर निर्भर नहीं है। हालाँकि उससे होने वाली आय का वह इस्तेमाल जरूर करता रहा है। अब चूँकि पश्चिमी देशों ने अफगानिस्तान के लिए अपनी सहायता रोक दी है, इसलिए ये आशंका बढ़ी है कि तालिबान की अफीम के कारोबार पर निर्भरता बढ़ सकती है।

नवम्बर 2017 में अमरीकी सेना ने तालिबान के मादक पदार्थों के संयंत्रों पर हवाई हमले किये और इनके खिलाफ विशेष अभियान भी चलाये। ‘आयरन टेम्पेस्ट’ नाम से चलाये गये इस अभियान के पीछे यह तर्क दिया गया कि इस हमले का मकसद तालिबान की कमजोर नस यानी उनके वित्तीय स्रोत पर वार करना है। तालिबान को उसके अभियान के लिए करीब 60 प्रतिशत रकम अफीम के धन्धे से मिलती है। सैकड़ों हवाई हमले करने के बाद तालिबान के सालाना 20 करोड़ डॉलर के अफीम के धन्धे पर नियंत्रण करने में असफल अमरीकी सेना ने उस समय अपना अभियान समाप्त कर दिया जब ट्रम्प प्रशासन के अधिकारी तालिबान के साथ प्रत्यक्ष शान्ति वार्ता करने लगे।

लेकिन आतंक के साथ ही अफीम के कारोबार में अमरीका कितना और किस स्तर पर संलिप्त था यह एक रहस्य है।