हिन्दू–मुस्लिम सौहार्द के विलक्षण पैरोकार काजी नजरुल इस्लाम
जीवन और कर्म शैलेन्द्र चौहानकाजी नजरुल इस्लाम हिन्दू–मुस्लिम सौहार्द के विलक्षण पैरोकार और महत आकांक्षी बांग्ला कवि–लेखक थे। वे आधुनिक बांग्ला काव्य और संगीत के क्षेत्र में एक युग प्रवर्तक थे। प्रथम महायुद्ध के बाद आधुनिक बांग्ला काव्य में रवीन्द्रनाथ टैगोर के बाद केवल काजी नजरुल इस्लाम ही एक निर्भीक और सशक्त रचनाकार रहे हैं। रवीन्द्रनाथ के बाद काजी नजरुल साहित्य और संगीत की युगलबन्दी के प्रख्यात कवियों और साहित्यकारों में सर्वाेपरि हैं। नजरुल ने लगभग 4,000 गीतों की रचना की तथा कई गानों को आवाज दी जिन्हें ‘नजरुल गीति’ नाम से जाना जाता है।
उल्लेखनीय है कि काजी नजरुल इस्लाम को अंग्रेजी साहित्य का उतना प्रगाढ़ ज्ञान नहीं था, फिर भी उनकी अन्तश्चेतना इतनी विलक्षण थी कि अंग्रेजी के कई पुराने कवियों की रचनाओं के बरक्स उनकी रचनाएँ रखी जा सकती हैं। उनमें काव्य का एक नूतन सौष्ठव और स्वरूप झाँकता है। विविध भाषाओं के इन्द्रधनुषी आकाश में बांग्ला साहित्य का अवदान सम्भवत: सर्वाधिक वैशिष्ट्यपूर्ण और सुपठित है। यहाँ यह कहना उचित होगा कि भारतीय वाङमय उस महासागर की तरह विस्तीर्ण और अथाह है जिसमें अनेक नाले–नदियाँ अपने अस्तित्व को भुलाकर एक साथ विलीन हो जाते हैं और एक नवीन रूप सृजित हो जाता है।
कहा जा सकता है कि नजरुल के जीवनदर्शन और प्रतिभा से, 20वीं शताब्दी के प्रथमार्द्ध में साहित्य और संगीत के मेलजोल से एक नये इतिहास की रचना का मार्ग प्रशस्त हुआ। पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश दोनों ही जगह उनकी कविता और गीतों की बृहत व्याप्ति है।
नजरुल का जन्म 24 मई, 1899 को पश्चिम बंगाल के वर्धमान जिले में आसनसोल के निकट चुरुलिया गाँव में एक गरीब मुस्लिम परिवार में हुआ था। उनकी प्राथमिक शिक्षा धार्मिक (मजहबी) शिक्षा के रूप में हुई। इनके पिता काजी फकीर अहमद मस्जिद में इमाम थे और माँ जाहिदा खातून एक घरेलू महिला। दस वर्ष की अल्पवय में ही पिता का साया सर से उठ गया। तब नजरुल ने उसी मस्जिद में मुअज्जिन (अजान देने वाला) का कार्य सम्भाला। उन्होंने ग्रामीण नाट्य समूह ‘लेटो’ दल के साथ काम करते हुए कविता, नाटक और साहित्य के बारे में सीखा। ‘लेटो’ पश्चिम बंगाल की लोक गीत शैली है, जो आमतौर पर उस क्षेत्र के मुस्लिम समुदाय के लोगों द्वारा किया जाता है (उस क्षेत्र का लोक उत्सव है)। तदनन्तर किशोरावस्था में विभिन्न थिएटर समूहों के साथ काम करते–करते उन्होंने कविता, नाटक और साहित्य का अध्ययन किया।
उनके चाचा फजले करीम एक संगीत मंडली (नाटक कम्पनी) के साथ थे जो पूरे बंगाल में घूमती और शो करती थी। नजरुल ने मंडली के लिए गाने लिखे। इस दौरान नजरुल ने बांग्ला भाषा को लिखना सीखा। 1910 में उन्होंने नाटक कम्पनी छोड़ दी और सिअरसोल राज हाई स्कूल, रानीगंज, आसनसोल में प्रवेश ले लिया। वहाँ जुगान्तर से सम्बद्ध शिक्षक निबारनचन्द्र घटक के प्रभाव में आये। इसके बाद वह माथरुन इंगलिश स्कूल में प्रविष्ट हुए। यहाँ विद्वान कवि कुमुदरंजन मलिक के सम्पर्क में आये। यहाँ उनकी साहित्यिक रुचि विकसित हुई। लेकिन पारिवारिक कारणों से वह आगे पढ़ाई जारी नहीं रख पाये और वह लोक कलाकारों के एक समूह ‘कावियाल्स’ से जुड़ गये।
उन्होंने 1914 में दरियापुर स्कूल में प्रवेश ले लिया। जहाँ संस्कृत, बांग्ला, फारसी और अरबी भाषा सीखी। इसके बाद कभी बांग्ला, तो कभी संस्कृत में पुराण पढ़ने लगे। आगे इसका असर उनके लेखन में भी नजर आने लगा। उन्होंने पौराणिक कथाओं पर आधारित ‘शकुनी का वध’, ‘युधिष्ठिर का गीत’, ‘दाता कर्ण’ जैसे नाटक लिखे। काली, शिव और कृष्ण पर भजन भी लिखे। मुझे लगता है कबीर और नजीर अकबराबादी के बाद हिन्दू मिथकों और प्रतीकों पर साहित्य रचना करने वाले वह सम्भवत: अकेले आधुनिक और बड़े कवि हैं। सूफी परम्परा का प्रभाव भी उन पर अवश्य था। खुसरो, रूमी, फिरदौसी को भी उन्होंने पढ़ा था।
नजरुल 1917 में ब्रिटिश–इंडियन आर्मी में भर्ती हो गये। उनकी तैनाती कराची छावनी में हुई। यहाँ वह कराची के स्थानीय कवियों के सम्पर्क में आये और पठन–पाठन पर अधिक समय दे सके। इसी समय बोल्शेविक क्रान्ति से प्रभावित हुए और साम्यवादी विचारों के प्रति आकर्षित हुए। 1919 में उनकी एक कविता पुस्तक ‘मुक्ति’ और एक गद्य की पुस्तक ‘बौंदुलेर आत्मकहिनी’ प्रकाशित हुई। सेना में रहकर अंग्रेजों के औपनिवेशिक–साम्राज्यवादी चरित्र को उन्होंने समझा और 1920 में सेना से त्यागपत्र दे दिया।
बंगाल वापस लौटकर वह बंगाली मुस्लिम लिटरेरी सोसाइटी से जुड़ गये। इसी वर्ष उनका उपन्यास ‘बन्धनहारा’ (बंधन–मुक्ति) आया। 12 अगस्त 1922 को उन्होंने अपनी पत्रिका ‘धूमकेतु’ प्रकाशित की जिसमें स्वतंत्रता के पक्ष में क्रान्तिकारी साहित्य छपता था। तभी उनकी सर्वाधिक चर्चित और महत्वपूर्ण कविता ‘बिद्रोही’ बिजली नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई। ‘आनन्द का आगमन’ कविता के प्रकाशन के बाद ब्रिटिश शासन ने उन पर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज कर दिया। ‘विद्रोही’ कविता की कुछ पंक्तियाँ देखें ––
मैं महाविद्रोही अक्लान्त
उस दिन होऊँगा शान्त
जब उत्पीड़ितों का क्रन्दन शोक
आकाश वायु में नहीं गूँजेगा
जब अत्याचारी का खड्ग
निरीह के रक्त से नहीं रंजेगा
मैं विद्रोही रणक्लान्त
मैं उस दिन होऊँगा शान्त
पर तब तक
मैं विद्रोही दृढ़ बन
भगवान के वक्ष को भी
लातों से देता रहूँगा दस्तक
तब तक
मैं विद्रोही वीर
पी कर जगत का विष
बन कर विजय ध्वजा
विश्व रणभूमि के बीचों–बीच
खड़ा रहूँगा अकेला
चिर उन्नत शीश
मैं विद्रोही वीर––
इसके बाद नजरुल ‘बिद्रोही कोबी’ के नाम से पहचाने जाने लगे। कविता ‘विद्रोही’ काफी लोकप्रिय हुई, जिसने उन्हें भरपूर प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि दी। कविता में अंग्रेजी सरकार के खिलाफ बागी तेवर थे। इस कविता का कई भाषाओं में अनुवाद हुआ। अत: ब्रिटिश हुकूमत की आँखों में वह हमेशा ही गड़ते रहे। 20वीं शताब्दी के तीसरे दशक में बंगाल में केवल वही एक सशक्त और निर्भीक कवि थे। अत: 23 जनवरी 1923 को उन्हें गिरफ्तार करके जेल भेज दिया गया। इसी वर्ष अप्रैल में जेल सुपरिंटेंडेंट के अभद्र व्यवहार और अशालीन भाषा के प्रतिरोध में उन्होंने 40 दिनों का उपवास किया। गाँधी जी का प्रभाव रहा होगा। उसी वर्ष दिसम्बर में वे जेल से बाहर आ गये।
1924 में उनकी एक और पुस्तक ‘बिषेर वंशी’ प्रकाशित हुई। यह पुस्तक भी अंग्रेज सरकार ने प्रतिबन्धित कर दी। इसके बाद उन्होंने ‘श्रमिक प्रजा स्वराज दल’ नाम से एक समाजवादी राजनीतिक पार्टी बनायी और साम्राज्यवादी–दमनकारी अंग्रेजी सत्ता के विरोध में वे चेतना फैलाने का काम सक्रिय रूप से करने लगे।
25 अप्रैल 1925 को काजी नजरुल इस्लाम ने एक हिन्दू लड़की प्रमिला देवी से शादी कर ली, जिसका काफी विरोध हुआ था। प्रमिला ब्रह्म समाज से आती थीं। मुस्लिम मजहब के ठेकेदारों ने नजरुल से कहा कि प्रमिला को धर्मपरिवर्तन करना होगा लेकिन नजरुल ने एकदम मना कर दिया। इसी समय उन्होंने लांगल नाम से एक साप्ताहिक पत्र भी प्रकाशित किया। 1926 में वे परिवार सहित कृष्णानगर में रहने लगे।
1927 में उनका बांग्ला गजलों का प्रथम संग्रह आया। वह बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने अनेक मौलिक और अनुदित साहित्यिक रचनाओं, जैसे–– उपन्यास, लघुकथा, नाटक, निबन्ध, अनुवाद और पत्रकारिता आदि का सृजन किया। उन्होंने बाल साहित्य भी लिखा। वे कुशल गायक और अभिनेता भी रहे। बांग्ला फिल्म ‘ध्रुव भक्त’ के डायरेक्टर और रवीन्द्रनाथ टैगोर के उपन्यास ‘गोरा’ पर आधारित फिल्म के संगीत निर्देशक भी बने। 1928 में वे संगीत की सुप्रसिद्ध कम्पनी एचएमवी के साथ जुड़ गये। उसके बाद उनके गीत राष्ट्रीय रेडियो पर प्रसारित होने लगे। 1930 में उनकी पुस्तक ‘प्रलय शिक्षा’ आयी। फिर उन पर देशद्रोह का मामला दर्ज हुआ और किताब प्रतिबन्धित कर दी गयी। गाँधी–इर्विन समझौते के बाद रिहा हुए। तीन वर्ष बाद 1933 में उनका एक निबन्ध संग्रह ‘मॉडर्न वर्ल्ड लिटरेचर’ भी आया।
1939 में वह कलकत्ता रेडियो में आ गये। तभी उनकी पत्नी प्रमिला देवी गम्भीर रूप से बीमार पड़ीं। पैरालिसिस का अटैक पड़ा। उनके इलाज के लिए नजरुल ने अपनी किताबों के कॉपीराइट तक बेच दिये। उधारी बढ़ गयी। वे गम्भीर आर्थिक संकट में आ गये जिससे वह कभी उबर नहीं सके। गरीबी पर लिखी उनकी एक कविता में उनकी यह बेबसी स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। उसकी कुछ पंक्तियाँ हैं––
गरीबी सर्वाधिक असह्य वस्तु है
जो घर में मुझसे, मेरी पत्नी और बच्चों से
रोज मिलती है।
इन परिस्थितियों के चलते 1940 में वे गहन अवसाद से ग्रस्त हो गये। दो वर्ष बाद उनकी स्थित और गम्भीर हो गयी। दुर्याेग से 1942 में 43 वर्ष की आयु में वह अपनी आवाज और याददाश्त खोते हुए एक अज्ञात बीमारी से पीड़ित होने लगे। यह देखकर 1950 में उनके प्रशंसकों और समर्थकों के एक समूह ने उन्हें यूरोप भिजवाने की व्यवस्था की। वह पत्नी सहित लन्दन और फिर आस्ट्रिया गये। वहाँ वियना में डॉ हेंस हॉफ के साथ एक मेडिकल टीम ने उनमें ‘पिक्स डिजीज नामक’ बीमारी का पता लगाया। यह एक दुर्लभ और लाइलाज न्यूरोडीजेनेरेटिव बीमारी थी जिसमें याददाश्त खोने के साथ–साथ बोलने पर भी प्रभाव पड़ता है और बोलने की शक्ति चली जाती है। 15 अगस्त 1953 को वह वापस कलकत्ता लौट आये। नजरुल के स्वास्थ्य में लगातार गिरावट आती जा रही थी। बीमारी के कारण वे अलग–थलग पड़ गये और अलगाव में रहने के लिए विवश हो गये। उनकी ऐसी मानसिक हालत के कारण उन्हें राँची (झारखण्ड) मनोरोग अस्पताल में भी भर्ती कराया गया।
कई वर्षों तक वहाँ रहे लेकिन उनकी हालत में सुधार नहीं हुआ। इसके बाद उनका जीवन बहुत कष्टप्रद रहा। उनकी पत्नी उनकी देखभाल करती रहीं। 1962 में प्रमिला देवी की मृत्यु हो गयी। यह बहुुुत पीड़ादायक था। अगले दस वर्ष इसी दुख और पीड़ा में बीते। लेकिन इन सब परेशानियों के बावजूद यह तो स्पष्ट है कि उनका इतिहास गौरवशाली था। समाज में चेतना प्रसार और स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए उनका अवदान चिरस्मरणीय रहेगा। साहित्य में तो वह अग्रणी पंक्ति में थे ही।
भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में नजरुल की राष्ट्रवादी सक्रियता और क्रान्तिकारी साहित्य सृजन ही औपनिवेशिक ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा उनके लगातार कारावास का कारण बने। जेल में रहते हुए ही नजरुल ने “राजबन्दीर जबनबन्दी” (“राधारमण”, ‘एक राजनीतिक कैदी का बयान’) लिखा था। दृष्टव्य है, उनके लेखन ने बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के दौरान वहाँ के मुक्ति संघर्ष को प्रेरित किया। नजरुल ने अपने लेखन में स्वतंत्रता, मानवता, प्रेम और क्रान्ति जैसे विषयों को मुख्य आधार बनाया। उन्होंने कट्टरता और रूढ़ियों का विरोध किया। नजरुल जीवनपर्यन्त राष्ट्रीय एकता और साम्प्रदायिक सद्भाव के मजबूत आधार–स्तम्भ बने रहे। साम्यवाद में उनकी अटूट आस्था थी लेकिन उन्हें अहसास था कि धर्मभीरु जन इस रोग से मुक्त होने में असमर्थ हैं। इसलिए धार्मिक कट्टरता के विरुद्ध, सौहार्द और सद्भाव के पक्ष में वह सृजनशील भी रहे और सक्रिय भी रहे। उनकी कविता ‘साम्यवादी’ की पंक्तियाँ हैं––
गाता हूँ समता का गान
जहाँ आकर एक हो गये
सब बाधा व्यवधान
जहाँ मिल रहे हैं हिन्दू–बौद्ध–मुस्लिम–ईसाई
गाता हूँ समता का गान–––
द्वितीय महायुद्ध के बाद नजरुल के साहित्य का बृहत् पठन–पाठन आरम्भ हुआ। तब तक वह बीमारी के गिरफ्त में आ चुके थे। नजरुल के साहित्य को पढ़ने के बाद यह अन्दाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि काव्य में मुक्ति, विद्रोह, लैंगिक समानता, साम्प्रदायिक सौहार्द और प्रेम आपस में पूरी तरह गुँथे हुए हैं। इसके लिए वे धार्मिक प्रतीकों, मिथकों और मान्यताओं को अपने ढंग से अपनाते हैं। स्त्री समानता पर वह न केेेेवल वैचारिक प्रतिबद्धता और व्यवहारगत उदाहरण प्रस्तुत करते हैं अपितु कविता इस तरह लिखते हैं, कि कृष्ण को चुनौती देते हुए कहते हैं कि ‘अगर तुम राधा होते’ तो वह महसूस करते जो एक स्त्री राधा के रूप में महसूस करती है। उनकी एक कविता से––
अगर तुम राधा होते श्याम
मेरी तरह बस आठों पहर तुम,
रटते श्याम का नाम
वन–फूल की माला निराली
बन जाति नागन काली
कृष्ण, प्रेम की भीख माँगने
आते लाख जनम
तुम, आते इस बृजधाम
उन्होंने बंगाली भाषा में ग़जल को भी समृद्ध किया। एक पुस्तक भी आयी। उन्हें अपने कार्यों में अरबी और फारसी शब्दों के व्यापक उपयोग के लिए भी जाना जाता है। इस पर गुरुदेव को भारी आपत्ति भी रही। ‘रक्तो’ की जगह ‘खून’ का प्रयोग उन्हें बहुत नागवार गुजरा। यह विडम्बना रही कि नजरुल इस्लाम के साहित्य और संगीत के सन्दर्भ में तत्त्वमूलक और तथ्यपूर्ण विस्तृत मूल्यांकन नहीं हो सका। इस क्षेत्र में बहुत थोड़े–से आलोचकों ने ध्यान दिया। यह खेद का विषय है कि उनकी समस्त आलोचनाएँ प्राय: एकांगी रहीं। वे युक्तिसंगत नहीं थीं। उनके अत्यन्त निकटस्थ मित्रों ने उनके बारे में कुछ समीक्षाएँ अवश्य छपवायीं। बीच–बीच में ऐसे कुछ मोड़ आये जहाँ उनका काव्य और संगीत अपने प्रकृत स्वरूप को खो बैठा। यह उन्होंने जानबूझकर भी किया। दरअसल अन्तर्वस्तु उनके लिए महत्वपूर्ण था रूप गौण। इस सबके बावजूद नजरुल बांग्ला भाषा के अन्यतम श्रेष्ठ सामाजिक चेतना के कवि रहे।
नजरुल की सम्पूर्ण रचनाओं का कहीं भी कोई ब्योरा तिथिवार नहीं मिलता। लेकिन यदि किसी को नजरुल की सम्पूर्ण रचनाओं का विधिवत अध्ययन करना हो तो उसे पश्चिम बंगाल में स्थित बालीगंज के पुस्तकालय को अवश्य देखना चाहिए। इसी पुस्तकालय में उनकी सम्पूर्ण रचनाएँ सम्भालकर रखी हुई हैं। हिन्दी में उनपर बहुत कम लिखा गया। उनकी मृत्यु के बाद 1976 में कवि विष्णुचन्द्र शर्मा की उनके जीवन पर एक किताब ‘अग्निसेतु’ नाम से आयी। एक जन गीतकार और सुर–साधक के रूप में भी नजरुल सर्वाेच्च स्थान के अधिकारी हैं।
1972 में बांग्लादेश सरकार के निमंत्रण पर नजरुल का परिवार उन्हें ढाका, बांग्लादेश ले गया। वहाँ ससम्मान उन्हें पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ बांग्लादेश की नागरिकता प्रदान की गयी। उन्हें बांग्लादेश ने ‘राष्ट्रकवि’ घोषित किया। चार साल बाद 29 अगस्त 1976 को बांग्लादेश में उनकी मृत्यु हो गयी। वहाँ उनकी इच्छानुसार उन्हें ढाका विश्वविद्यालय के सामने दफनाया गया।
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