इसी वर्ष 14 जनवरी को अमरीका की एक मानवाधिकार संस्था ह्यूमन राइट्स वॉच ने न्यूयॉर्क में अपनी 652 पन्नों की विश्व रिपोर्ट 2020 में, जो कि इसका 30वाँ संस्करण है, लगभग 100 देशों में मानवाधिकारों की स्थिति की समीक्षा की है। अपने परिचयात्मक आलेख में, कार्यकारी निदेशक केनेथ रोथ ने कहा है कि चीन की सरकार, जो सत्ता में बने रहने के लिए दमनात्मक नीतियों पर निर्भर रहती है, दशकों बाद वैश्विक मानवाधिकार पर सबसे तीखा हमला कर रही है। वह कहते हैं कि जहाँ बीजिंग की कार्रवाई दुनिया भर के निरंकुश लोकलुभावनवादी शासकों को शह दे रही है और उनका समर्थन हासिल कर रही है, वहीं चीन की सरकार अन्य सरकारों को चीन की आलोचना से रोकने के लिए अपनी आर्थिक ताकत का इस्तेमाल कर रही है। यह बेहद जरूरी है कि इस हमले का विरोध किया जाये, जो मानवाधिकारों पर कई दशकों में हुई प्रगति और हमारे भविष्य के लिए खतरा है।

भारत के सन्दर्भ में ह्यूमन राइट्स वॉच ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि अगस्त 2019 में जम्मू–कश्मीर में भारत सरकार की बड़े पैमाने पर कार्रवाई ने कश्मीरियों के समक्ष काफी दुश्वारियाँ खड़ी की हैं और उनके अधिकारों का उल्लघंन किया है। भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार ने राज्य का विशेष संवैधानिक दर्जा रद्द कर इसे दो अलग–अलग केन्द्र शासित प्रदेशों में बाँट दिया है।

जम्मू और कश्मीर में अपनी कार्रवाई से पहले, सरकार ने राज्य में अतिरिक्त सैनिकों की तैनाती की। इण्टरनेट और फोन बन्द कर दिये और मनमाने ढंग से हजारों कश्मीरियों को हिरासत में ले लिया जिनमें राजनीतिक नेता, कार्यकर्ता, पत्रकार, वकील और बच्चों सहित सम्भावित प्रदर्शनकारी शामिल थे। विरोध प्रदर्शनों को रोकने के लिए सैकड़ों लोगों को बिना किसी आरोप के हिरासत में लिया गया या घरों में नजरबन्द कर दिया गया। ह्यूमन राइट्स वॉच की दक्षिण एशिया निदेशक मीनाक्षी गांगुली ने कहा, “भारत सरकार ने कश्मीर को पूरी तरह प्रतिबंधित करने की कोशिश की है। वह वहाँ हुए नुकसान की पूरी तस्वीर छिपा रही है। अल्पसंख्यकों पर बढ़ते हमलों को रोकने के बजाय, उसने 2019 में आलोचकों की आवाज दबाने के प्रयासों को तेज कर दिया।”

कश्मीर में भारत सरकार की कार्रवाइयों से कश्मीरियों की रोजी–रोटी और शिक्षा–दीक्षा का भारी नुकसान हुआ है। अमरीकी कांग्रेस, यूरोपीय संसद और संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद सहित कई अन्तरराष्ट्रीय मंचों पर सरकार की दमनात्मक कार्रवाइयों की आलोचना हुई। पूरे साल, संयुक्त राष्ट्र विशेषज्ञों ने भारत में गैर–न्यायिक हत्याओं, असम में लाखों लोगों की सम्भावित राज्यविहीनता, आदिवासी समुदायों और वनवासियों की सम्भावित बेदखली और कश्मीर में संचार प्रतिबन्धों सहित कई मुद्दों पर चिन्ता व्यक्त की।

भारत सरकार धार्मिक अल्पसंख्यकों की सुरक्षा करने में भी विफल रही। उसने शान्तिपूर्ण असहमति को दबाने के लिए राजद्रोह और उग्रवाद निरोधी कठोर कानूनों का इस्तेमाल किया और सरकार के कार्य और नीतियों की आलोचना करने वाले गैर–सरकारी संगठनों को बदनाम करने और उनकी आवाज दबाने के लिए विदेशी अनुदान विनिमयन और अन्य कानूनों का इस्तेमाल किया। धार्मिक अल्पसंख्यकों और अन्य कमजोर समुदायों के खिलाफ भीड़–हिंसा की घटनाओं, जिनका नेतृत्व अक्सर भाजपा समर्थकों द्वारा किया जाता है, को रोकने और उनकी जाँच करने के सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों को ठीक से लागू करने में सरकार विफल रही है। गोमांस के लिए गायों का व्यापार या हत्या की अफवाहों के बीच उग्रपंथी हिन्दू समूहों की हिंसा में 50 लोग मारे गये और 250 से अधिक घायल हुए हैं। मुसलमानों को पीटा गया और उन्हें हिन्दू नारे लगाने के लिए भी मजबूर किया गया है। पुलिस अपराधों की सही तरीके से जाँच करने में विफल रही है, उल्टेे जाँच को बाधित किया है, प्रक्रियाओं की अनदेखी की है और गवाहों को परेशान करने तथा डराने के लिए आपराधिक मामले दर्ज किये हैं।

उत्तरपूर्वी राज्य असम में सरकार ने राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर प्रकाशित किया। इसका घोषित उद्देश्य है बांग्लादेश से नृजातीय बंगालियों के गैर कानूनी प्रवासन के मुद्दे पर बार–बार विरोध प्रदर्शनों और हिंसा से उत्पन्न स्थिति में भारतीय नागरिकों और वैध निवासियों की पहचान करना। लगभग बीस लाख लोग इस नागरिकता सूची से बाहर हैं, जिनमें अधिकतर मुस्लिम हैं। सूची से बाहर रह गये लोगों में कई तो ऐसे हैं जो वर्षों से भारत में रह रहे हैं या फिर अपनी पूरी जिन्दगी यहीं गुजारी है। ऐसे गम्भीर आरोप लगे हैं कि सत्यापन प्रक्रिया मनमानी और भेदभावपूर्ण थी। हालाँकि लोगों को अपील करने का अधिकार है, सरकार अपील के बाद नागरिकता से वंचित लोगों के लिए नजरबन्दी शिविर बनाने की योजना पर काम कर रही है। सरकार ने यह भी कहा है कि नागरिकता सत्यापन प्रक्रिया पूरे देश में लागू की जाएगी और पड़ोसी देशों के सभी अनियमित प्रवासियों को शामिल करने के लिए नागरिकता कानूनों में संशोधन किया जाएगा, लेकिन मुसलमानों को इस सूची से बाहर रखा जाएगा।

अल्पसंख्यकों के अलावा आदिवासियों के खिलाफ फरवरी में सुप्रीम कोर्ट का उन लोगों को बेदखल करने का फैसला आया जिनके दावे वन अधिकार कानून के तहत खारिज कर दिये गये थे। इस फैसले से लगभग 20 लाख आदिवासी समुदाय के लोगों तथा वनवासियों पर जबरन विस्थापन और रोजी–रोटी के छीन जाने का खतरा बना हुआ है। भारत सरकार ने इस रिपोर्ट पर अपनी नाराजी जाहिर की और कहा कि किसी विदेशी संस्था का भारत के आन्तरिक मामले में हस्तक्षेप स्वीकार्य नहीं है। यदि यह मान भी लीया जाये कि यह रिपोर्ट कुछ पूर्वाग्रहों से ग्रस्त है और पूर्णत: निष्पक्ष नहीं है, तो भी प्रश्न यह उठता है कि दर्शाये गये तथ्यों को खारिज भी तो नहीं किया जा सकता। भारत के अन्दर भी इन घटनाओं का लगातार विरोध होता रहा है और सरकार अपने विरोधियों को चुप करने के लिए हर तरह की दमनात्मक और प्रतिशोध लेने वाली कार्रवाई करती नजर आयी है। क्या दुनिया के एक सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में सत्तापक्ष के इस तरह के व्यवहार को उचित ठहराया जा सकता है ?