पिछले दिनों अखबार और टीवी चैनलों ने बाकी खबरों को दरकिनार करते हुए महीनों तक ज्ञानवापी मस्जिद के मामले को मुख्य खबर बनाये रखा। हालाँकि इसी दौरान असम और अन्य राज्यों में भयावह बाढ़ से लाखों लोग उजड़ गये और सैकड़ों लोग काल के गाल में समा गये। इसी दौरान महँगाई दर 14 फीसदी तक बढ़ गयी लेकिन ऐसे तमाम मुद्दों को ज्ञानवापी के हंगामे में हाशिये पर धकेल दिया गया। यह आज के मुख्यधारा की मीडिया के जन विरोधी चरित्र को भी जाहिर कर देता है।

ज्ञानवापी मस्जिद पर विवाद खड़ा करने की तैयारी बहुत पहले कर ली गयी थी। 1991 में स्थानीय पुजारियों ने मस्जिद में पूजा–अर्चना की माँग की। इन्हें स्थानीय अदालत ने डाँट–फटकार कर भगा दिया था। इसके बाद भी ऐसी कई याचिकाएँ दायर होती रहीं, जिसमें मस्जिद परिसर में हिन्दू देवी–देवताओं की मूर्तियाँ होने का दावा किया गया, लेकिन इलाहाबाद हाई कोर्ट ने उन्हें खारिज कर दिया।

इसके बाद वाराणसी के एक वकील शंकर रस्तोगी ने निचली अदालत में मस्जिद के पुरातात्विक सर्वे के लिए याचिका डाली जिसका कारण उन्होंने यह बताया कि मस्जिद का निर्माण अवैध तरीके से हुआ है। यह याचिका बाबरी मस्जिद विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के ठीक बाद डाली गयी थी।

अप्रैल 2021 में निचली अदालत ने पुरातत्व विभाग को सर्वे के आदेश दे दिये। अप्रैल 2022 में निचली अदालत ने एडवोकेट अजय कुमार मिश्रा को कमीश्नर बनाकर ज्ञानवापी मस्जिद का सर्वे और वीडियोग्राफी कराने का आदेश दे दिया। मई में सर्वे की रिपोर्ट में बताया गया कि मस्जिद परिसर में मन्दिर का मलबा मौजूद है।

मस्जिद कमेटी ने उपासना स्थल अधिनियम 1991 का हवाला देते हुए अदालत से सर्वे पर रोक लगाने का आग्रह किया था लेकिन उसे मंजूर नहीं किया गया।

उपासना स्थल अधिनियम 1991 में कहा गया है कि 15 अगस्त 1947 से पहले का जो धार्मिक स्थल जिस रूप में है या जिस धर्म का है, भविष्य में भी उसी रूप और उसी धर्म का रहेगा।

यह अधिनियम बाबरी मस्जिद विवाद के दौरान बनाया गया था ताकि भविष्य में इस तरह के विवादों को रोका जा सके। 2019 में अयोध्या विवाद पर उच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद मथुरा, काशी सहित देशभर में 100 मन्दिरों की जमीनों को लेकर दावेदारी शुरू हो गयी। इतना ही नहीं, इसी के बाद से ताजमहल, कुतुब मीनार और जामा मस्जिद आदि को विवादित बनाने के लिए भी याचिकाएँ दायर की जा चुकी हैं। लेकिन हाल ही में बीजेपी नेता और वकील अश्विनी उपाध्याय द्वारा उपासना अधिनियम को कोर्ट में चुनौती देने के हवाले से कानूनी दाँव–पेंच के जरिये इसमें बदलाव की कोशिशें की गयी हैं।

इस पूरे मामले में भाजपा के नेताओं, विधायकों, सांसदों के इतने गन्दे, जहरीले बयान आये कि उन्हें यहाँ दोहराना भी सम्भव नहीं है। हिन्दुत्ववादी लम्पटों की फौज ने इस मुद्दे को लेकर सोशल मीडिया पर साम्प्रदायिक उन्माद फैलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। हिन्दुत्ववादी संगठनों ने सोशल मीडिया पर एक अभियान चलाया जिसमें गूगल के कमेन्ट बॉक्स में ज्ञानवापी मस्जिद की जगह ज्ञानवापी मन्दिर लिखने को कहा गया। इस अभियान का मुख्य उद्देश्य था कि गूगल अपनी सेटिंग में ज्ञानवापी मस्जिद की जगह ज्ञानवापी मन्दिर दर्ज कर ले।

इस बे–सिर पैर के मुद्दे को लेकर स्थानीय हिन्दुत्ववादी लम्पटों की फौज ने ऐसा हंगामा खड़ा कर दिया कि भाजपा और आरएसएस के नेताओं को ही उनके खिलाफ बोलना पड़ा, क्योंकि विदेशों में इसे लेकर सरकार और अदालती फैसलों की आलोचना तेज हो गयी थी। इसके बाद अचानक यह मुद्दा अखबारों और चैनलों की सुर्खियों से गायब हो गया। मुद्दे के गायब हो जाने पर निश्चय ही तमाम इन्साफ पसन्द लोगों ने राहत की साँस ली। सर्वे और वीडियोग्राफी में सामने आये तथ्यों में कुछ भी ऐसा नहीं था जिसके आधार पर ज्ञानवापी में मन्दिर होने का दावा किया जा सके। इससे मन्दिर के दावेदारों का खूब मजाक बना। इसके बावजूद हिन्दुत्ववादी एक बे–सिर पैर की बात को एक जाने–माने विवाद के रूप में स्थापित करने में कामयाब हो गये। बहस इस पर होनी चाहिए थी कि क्या किसी लोकतांत्रिक देश में जहाँ 1947 के पहले की यथास्थिति को बरकरार रखने के बारे में कानून बना हुआ है, वहाँ क्या ऐसे वाहियात मुद्दों को उठाने की इजाजत होनी चाहिए, जबकि बहस इस पर हो गयी कि सर्वे में मिला पत्थर का टुकडा शिवलिंग है या फव्वारा।

भारत एक प्रचीन देश है। यहाँ की मिट्टी में कई तरह के समाज और संस्कृतियाँ पनपीं और दफन हुर्इं। ऐसे देश में कहीं खुदाई करने पर एक या एक से ज्यादा संस्कृतियों से जुड़ी चीजें मिल जाना कोई बड़ी बात नहीं। इस देश में लाखों मन्दिर और मस्जिद हैं। इनके नीचे खुदाई करने में सैकड़ों साल लगेंगे और उससे बेमतलब के विवाद के अलावा कुछ भी हासिल नहीं होगा। अगर आज किसी मस्जिद की जाँच–पड़ताल और खुदाई की इजाजत दी जाती है तो कल कोई मन्दिरों की जाँच–पड़ताल और खुदाई की भी इजाजत मागेंगा। बहुत सम्भव है कि उनके नीचे बौद्ध और जैन धर्म के चिन्ह पाये जायें। क्या न्यायालय को इस तरह के बे–सिर पैर के विवादों पर रोक नहीं लगानी चाहिए?