भीष्म साहनी: एक जन–पक्षधर संस्कृतिकर्मी का जीवन
जीवन और कर्म मोहित वर्माभीष्म साहनी का जन्म गुलाम भारत के रावलपिण्डी शहर में 8 अगस्त 1915 में हुआ था। पिता हरवंशलाल आर्य समाज के मंत्री थे। माँ का नाम लक्ष्मी था। वह बड़ी धार्मिक स्वभाव की महिला थी। भीष्म साहनी अपनी माँ से कहानियाँ और गीत सुनते हुए बड़े हुए। पिताजी का कपड़ों का व्यापार था। चार भाई बहनों में भीष्म साहनी सबसे छोटे थे। मशहूर फिल्म अभिनेता बलराज साहनी इनके बड़े भाई थे। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा गुरूकुल पोठोहार में हुई, जहाँ वे बड़े भाई की जिद के कारण मंत्र और व्याकरण को रटते थे। बाद में दोनों को रावलपिण्डी के स्कूल में दाखिला दिला दिया गया। पिताजी आसानी से मान गये क्योंकि व्यापार के लिए अग्रेंजी भाषा में शिक्षित होना जरूरी था। स्कूली शिक्षा पूरी होने के बाद लाहौर गवर्नमेण्ट कॉलेज से एमए और पंजाब विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की।
कॉलेज के दिनों में भीष्म साहनी नाटक करते, हॉकी खेलते, वाद–विवाद प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेते। उनके कॉलेज के सामने ही डीएवी कॉलेज था जो भगत सिंह की अनेक क्रान्तिकारी सरगर्मियों का स्थल रहा था जिसमें अक्सर नारे गूँजते, हड़तालें होती, जुलूस निकलते, लेकिन गवर्नमेण्ट कॉलेज में यह सब नहीं होता था। भीष्म साहनी अपने कॉलेज के दिनों को याद करते हुए कहते हैं कि गवर्नमेण्ट कॉलेज के लड़कों को अपनी कल्चर पर नाज था। वह खद्दरधारियों की खिल्ली उड़ाया करते थे। एक बार कॉलेज का एक छात्र, सिर पर गाँधी टोपी पहनकर आ गया था, जिसके कारण प्रिंसिपल ने उसे कॉलेज से निकाल दिया था। कॉलेज की पढ़ाई पूरी होने के बाद वे रावलपिण्डी वापस आ गये और व्यापार के काम में पिताजी की मदद करने लगे।
पिताजी चाहते थे कि दोनों बेटे पढ़–लिखकर व्यापार सम्भाले। लेकिन कुछ ही दिनों में बलराज साहनी ने व्यापार करने से इनकार कर दिया और शादी के बाद बम्बई चले गये। एमए की पढ़ाई के बाद कुछ दिनों तक भीष्म साहनी व्यापार के काम में पिताजी की मदद करने लगे। इसी दौरान उनका लाहौर, कानपुर और दिल्ली आना–जाना लगा रहता था। दिल्ली में उनकी फुफेरी बहन सत्यवती मल्लिक का घर था। वह उनकी साहित्यिक गतिविधियों का केन्द्र था। वहीं पर जैनेन्द्र, विष्णु प्रभाकर, बनारसीदास चतुर्वेदी, वात्स्यायन जैसे बडे़–बड़े साहित्यकारों से मुलाकात होती।
इस तरह आजादी से पहले वह कई कामों में लगे थे। व्यापार भी करते, कॉलेज में पढ़ाई भी कर रहे थे, गाहे बगाहे नाटक भी खेलते, थोड़ा–थोड़ा लिखने भी लगे और कुछ दिनों बाद कांग्रेस में भी सक्रिय रूप से काम करने लगे। थोडे़ दिनों बाद व्यापार के काम से मन उ़बने लगा और एक दिन उन्होंने व्यापार से तौबा कर ली।
यह दौर भारत की आजादी के संघर्ष का दौर था। भीष्म साहनी भी इस संघर्ष से अछूते नहीं रहे। वे इन संघर्षों की झलक देख रहे थे। उन दिनों गाँधी जी की लोकप्रियता बुलन्दी पर थी। भीष्म साहनी भी गाँधी जी से प्रभावित थे। आजादी के लिए हो रहे जलसे, जुलूसों, हड़तालों को उन्होंने नजदीक से देखा। प्रभात फेरी में देशभक्ति के गीत गाये जाते थे। उन दिनों ऐसे गीत खूब गाये जाते थे––
जरा वी लगन आजादी दी
लग गयी जिन्हाँ दे मन दे विच
ओह मजनूँ वण फिरदे ने
हर सहरा, हर वन दे विच!
एक जलसे का किस्सा सुनाते हुए वह कहते हैं कि “एक बार एक आदमी को हाथ में कागज की पुड़िया उठाये, यह घोषणा करते सुना था–– साहिबान, इस पुड़िया में वह नमक है जिसे आज मैंने सरकारी कानून को तोड़ते हुए बनाया है। मैंने आज नमक का कानून तोड़ा है।” जलसे के तुरन्त बाद उसे पुलिस पकड़कर ले गयी। जमाना बदल रहा था। लोग आजादी के लिए जी–जान से लड़ रहे थे। उन दिनों सिनेमाघरों में फिल्म खत्म होने पर ‘गॉड सेव द किंग’ की धुन बजायी जाती थी। चलन के अनुसार धुन सुनकर सभी दर्शक खड़े हो जाते। लेकिन अब दर्शकों में बैठे हिन्दुस्तानी दर्शक ऐसा नहीं करते थे। वे धुन बजते ही हॉल से बाहर निकल जाते। यह बड़े साहस का काम था जो गोरों को बड़ा नागवार गुजरता था।
उन्होंने अग्रंेजी दासता और जुल्म का कड़ा विरोध किया। एक संस्कृतिकर्मी के तौर पर ताउम्र इसके खिलाफ संघर्ष करते रहे। उन्होंने ब्रिटिश राज का गुणगान करने वालों को कहा है कि–– “वे भूल जाते हैं कि न्यायप्रियता की दुहाई देने वाली व्यवस्था वास्तव में कितनी क्रूर और नृशंस है।” दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान बंगाल के अकाल में तीस लाख से अधिक लोग भूख से तड़प–तड़प कर मर गये जिसकी जिम्मेदार ब्रिटिश सरकार की जन विरोधी नीतियाँ थी। इसी दौरान बंगाल से नाट्यकर्मियों की एक टोली ने रावलपिण्डी में बंगाल के अकाल को लेकर नाटक खेला था। यह नाटक रोंगटे खड़े करनेवाला नाटक था। यहीं भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) से उनकी पहली मुलाकात थी, बम्बई आने पर वे इप्टा में शामिल हो गये थे।
देश की आजादी की सरगर्मियाँ तेज होने लगीं। इसी बीच देश में साम्प्रदायिक बँटवारे को हवा मिलने लगी। मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा जैसे संगठन देश की फिजा बिगाड़ने का काम करने लगे। देश में साम्प्रदायिक दंगे तेज होने लगे। इन सबको भी भीष्म साहनी ने नजदीक से देखा। आजादी के बाद एक पत्रकार भीष्म साहनी से साक्षत्कार में पूछता है कि विभाजन का जिम्मेदार वह किसे मानते हैं? जवाब में भीष्म साहनी कहते हैं कि हम सब जिम्मेदार हैं, अग्रेंज जिम्मेदार थे। एक वायसराय ने तो यहाँ तक कहा कि अगर हिन्दू–मुस्लिम एक हो गये तो हमें हिन्दुस्तान से रुखसत होना पड़ेगा।
भीष्म साहनी के जीवन की बड़ी घटनाओं में से एक है 13 अगस्त 1947 की घटना। इस दिन वे दिल्ली में होने वाले आजादी के जश्न को देखने के लिए फ्रंटियर मेल से दिल्ली के लिए रवाना हुए। आजादी का जश्न देखा। पण्डित नेहरू ने लाल किले पर भारत का झण्डा लहराया। आजादी का शोर चारों ओर फैला था। दूसरी तरफ देश विभाजन की आग में जल उठा था। आने जाने वाली रेलगाडियाँ बन्द हो गयी थीं। वापस जाने का काई रास्ता नहीं था। वह वापस रावलपिण्डी नहीं जा पाये।
उन दिनों दिल्ली की सड़के शरणार्थियों से भरी पड़ी थीं। हर तरफ शरणार्थी अपने घर बार की चिन्ता में घूमते–फिरते रहते थे। उन दिनों का भी एक किस्सा भीष्म साहनी कहते हैं कि “एक ताँगा चलाने वाला सरदार गाया करता था––
आजादी आयी–––
घर–घाट से आजाद
रोजी–रोटी से आजाद
ठौर–ठिकाने से आजाद
आजाद ही आजाद!
देश का इतिहास करवट बदल चुका था। बाहर से आने वाले लोग दुखी थे। भीष्म साहनी ने दिल्ली की सड़कों पर अपने शहर रावलपिण्डी के लोगों को लाचार बेघर घूमते देखा। विभाजन के दर्द को उन्होंने अपनी जिन्दगी में झेला था जो बाद में उनके चर्चित उपन्यास ‘तमस’ में देखने को मिलता है। इस उपन्यास पर बाद में गोविन्द निहलानी ने फिल्म भी बनायी जो हिन्दी सिनेमा में मिल का पत्थर साबित हुई।
इस समय बलराज बम्बई में थे। कुछ रास्ता न मिलने पर भीष्म साहनी बम्बई पहुँच गये और इप्टा में सक्रिय रूप से काम करने लगे। बलराज साहनी पहले से ही इप्टा में सक्रिय थे। इप्टा से जुड़ने का किस्सा सुनाते हुए भीष्म साहनी बताते हैं कि आजादी से पहले पिताजी उनको बलराज की जासूसी करने बम्बई भेजा करते थे। पिताजी को बलराज की चिन्ता रहती थी। मुझे इस काम में बड़ा मजा आता था। पहली बार जब मुम्बई पहुँचा तो बलराज ख्वाजा अहमद अब्बास के नाटक ‘जुबैदा’ का निर्देशन कर रहे थे। यहाँ तो नाटक की रिहर्सलें चल रही थीं। माहौल बड़ा उत्साही होता था। उस समय से वह इप्टा के कार्यक्रमों में हिस्सा लेने लगे थे।
इप्टा को लोग आज भी श्रद्धा से याद करते हैं, इसलिए कि वह देशव्यापी भावनाओं, आकांक्षाओं को वाणी देता था, जनता ही उसके केन्द्र में थी। कला के स्तर पर वह न केवल लोककला की परम्पराओं से जुड़ता था, उन्हें अपनाता था, बल्कि उस कला को वर्तमान और भविष्य की अपेक्षाओं के अनुरूप ढालता भी था। नये–नये प्रयोग करता था। उसमें प्रेम धवन, शंकर शैलेन्द्र जैसे गीतकार शामिल थे। इप्टा में कुछ भी व्यावसायिक नहीं था। वह एक लहर थी, एक देशव्यापी सांस्कृतिक आन्दोलन था। इप्टा के बारे में भीष्म साहनी के विचार ऐसे ही थे। मुम्बई आने पर वे पूरी तरह से इप्टा में सक्रिय रूप से काम करने लगे।
बँटवारे के बाद वे भारत आ गये और उनका कांग्रेस पार्टी से ताल्लुक टूट गया, वे वामपंथी विचारों की तरफ आकृष्ट हुए और कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बने। कम्युनिस्ट विचारधारा के बारे में उनकी राय स्पष्ट थी। वह कहते हैं कि “कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित व्यक्ति की दृष्टि निश्चय ही सामाजिक स्तर पर अधिक स्पष्ट और सटीक होती है। वह साम्प्रदायिक नहीं होता, जातिभेद में विश्वास नहीं रखता, न रंगभेद में। उसकी मानसिकता जनजीवन से जुड़ने की होती है। उसके लिए आर्थिक–सामाजिक सरगर्मियों को आँकने की मुख्य कसौटी होती है कि वह मेहनतकश जनता के हित में है या नहीं है।” साथ ही वे कम्युनिस्ट पार्टी की त्रुटियों को भी चिन्हित करते हैं जिसमें इप्टा की कार्यनीति का बदल जाना मुख्य था। इप्टा में उन्होंने 1946 से 1948 तक सक्रिय रूप से काम किया। अध्यापकों की यूनियन में 1948 से 1950 तक सक्रिय बने रहे।
उन दिनों वे बेरोजगार थे। रोजगार के लिए वे अम्बाला चले गये। वहाँ उन्हें एक कॉलेज में अध्यापक की नौकरी मिल गयी। साथ ही अम्बाला में भी इप्टा के कार्यक्रम करने शुरू कर दिये। नाटक, गीत आदि का सिलसिला वहाँ भी शुरू हो गया। अम्बाला के अध्यापकों ने एक यूनियन बनायी। भीष्म साहनी अध्यापकों की यूनियन में सक्रिय रूप से शामिल हो गये। सरकारी अध्यापकों को नाममात्र का वेतन मिलता था। अम्बाला के अन्य कॉलेजों में भी यूनियन बनाने का काम शुरू हो गया। इस प्रकार पूरे प्रदेश में अध्यापकों की यूनियनें बन गयीं। भीष्म साहनी कॉलेज टीचर्स यूनियन के जनरल सेक्रेटरी चुन लिये गये। कुछ समय बाद उन्हें अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा।
इसके बाद वे दिल्ली आकर रहने लगे। कुछ दिन दिल्ली के श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स में, उसके बाद हिन्दू कॉलेज में और बाद में पक्की नौकरी के तौर पर मिर्जा महमूद बेग के दिल्ली कॉलेज में अध्यापन कार्य किया। इस दौरान उन्होंने लिखने का काम मुस्तैदी से शुरू कर दिया था। कहानी संग्रह छपने लगे। करोलबाग के एक कॉलेज में हर रविवार के दिन साहित्यकारों की बैठक जमने लगी। बैठक का नाम ‘कल्चरल फोरम’ रखा गया। बड़े–बडे़ साहित्यकारों का जमावड़ा होने लगा। वे सभी अपनी रचनाओं का पाठ करते, साहित्यक चर्चाएँ चलतीं। यहीं से साहित्यक पत्रिका निकालने की भी शुरुआत हुई जिसका नाम ‘साहित्यकार’ रखा। इस पत्रिका के केवल दो ही अंक प्रकाशित हुए। लेकिन आगे चलकर भीष्म साहनी ने ‘नयी कहानियाँ’ नामक पत्रिका का सम्पादन किया जो उस समय साहित्यकारों के बीच काफी लोकप्रिय रही।
इसी बीच उन्हें मास्को में अनुवाद कार्य के लिए चुन लिया गया। दिल्ली की पक्की नौकरी से इस्तीफा देकर वे मास्को पहुँच गये। मास्को के प्रकाशन गृह में विश्व की 27 भाषाओं में सोवियत पुस्तकों के अनुवाद का काम जारी था। बाद में भारत की भी तेरह भाषाओं में अनुवाद का काम होने लगा।
सात सालों तक वे रूस में रहे। सोवियत रूस के अनुभवों को याद करते हुए भीष्म साहनी कहते है कि, “मैं अपनी पत्नी शीला और दो बच्चों के साथ वहाँ गया था। मुझे रहने के लिए दो कमरों का फ्लैट मिला था। पर मेरे फ्लैट में झाड़ू–पोंछा करनेवाली एक तातार औरत को उसी अपार्टमेण्ट में तीन कमरों का फ्लैट मिला हुआ था, क्योंकि उसका परिवार बड़ा था।” इससे पता चलता है कि सोवियत रूस में मजदूरों को कितना हक हासिल था और वे कितनी अच्छी जिन्दगी जीते थे।
वहाँ की स्वास्थ्य व्यवस्था के बारे में वह बताते हैं कि एक बार उस महिला की छोटी बेटी बीमार हो गयी। वह महीने भर अस्पताल में रही। छुट्टी देते वक्त डॉक्टर ने उसके माँ–बाप को हिदायत दी कि हर सप्ताह उसे जाँच के लिए अस्पताल लाना है। घर वालों ने इसकी परवाह नहीं की तो दो सप्ताह बाद डॉक्टरनी माँ–बाप को डाँट रही थी। अगर वह बच्ची को लेकर अस्पताल नहीं आयी तो तुम्हंे अयोग्य माँ–बाप घोषित करके बेटी का लालन–पालन सरकार अपने हाथ में ले लेगी। इससे साफ पता चलता है कि सरकार अपने नागरिकों का कितना खयाल रखती थी।
शिक्षा व्यवस्था के बारे में उनका खुद का अनुभव यह है कि बाद में साहनी जी के दोनों बच्चों ने निशुल्क पीएचडी तक की शिक्षा सोवियत रूस से ही प्राप्त की।
सोवियत रूस के बारे में भीष्म साहनी कहते है कि बड़े उ़ँचे लक्ष्य लेकर वह व्यवस्था स्थापित हुई थी। यदि नाकाम रही, भले ही अपनी त्रुटियों–गलतियों से नाकाम रही हो, उसका खेद तो होगा ही। वरना कौन–सी ऐसी व्यवस्था रही है जिसने जनसाधारण के जीवन को बेहतर बनाने का बीड़ा उठाया हो?
उनका लेखन कार्य उल्लेखनीय है। उन्होंने अपने जीवन में छह उपन्यास, छह कहानी संग्रह, तीन नाटक, जीवनी: बलराज मेरा भाई, निबन्ध: अपनी बात, बाल साहित्य और पत्र–पत्रिकाओं का सम्पादन किया। उन्होंने 20 से अधिक रूसी पुस्तकों का हिन्दी अनुवाद किया। इनमें टॉल्सटाय का प्रसिद्ध उपन्यास पुनरूत्थान, लम्बी कहानियाँ और सोवियत लेखक चिंगीज आइत्मातोव की पुस्तक ‘पहला अध्यापक’ शामिल है। भीष्म जी कहते हैं कि ‘पहला अध्यापक’ से प्रभावित होकर उन्होेंने ‘झरोखे’ उपन्यास लिखा। ‘झरोखे’ से प्रोत्साहित होकर उन्होंने ‘कड़ियाँ’ उपन्यास लिखा। इस तरह उनका लेखन कार्य जारी रहा।
1970 के आसपास वे अफ्रो–एशियाई लेखक संघ के भी सदस्य रहे। इस संगठन के संचालन में सोवियत रूस की प्रमुख भूमिका रही थी। इसी दौरान उन्होंने अफ्रो–एशियाई देशों की यात्राएँ की। मिस्र, ट्यूनीसिया, सीरिया, यूनान, अफगानिस्तान, मोजाम्बिक, अंगोला, मेडागास्कर, तुर्की, वियतनाम, कम्पूचिया, उत्तरी कोरिया आदि की यात्रा भी की। यहाँ उन्हें जीवन का महत्वपूर्ण अनुभव मिला। सोवियत सत्ता के क्षरण के बाद यह संगठन भी समाप्त हो गया।
सोवियत संघ के विघटन पर वह अपनी आत्मकथा में लिखते है कि “आज सोवियत संघ की वकालत कोई नहीं करता। लेकिन इससे न तो यह साबित होता है कि पूँजीवादी व्यवस्था आदर्श व्यवस्था है और न ही यह कि अब दुनिया इसी पूँजीवादी व्यवस्था को अन्तिम सत्य मानकर इसे कबूल कर लेगी। सोवियत संघ में समाजवादी व्यवस्था के भंग होने से पूँजीवाद की श्रेष्ठता सिद्ध नहीं हो जाती। व्यवस्थाओं के अन्दर उठनेवाली विसंगतियाँ और अन्तर्विरोध, चुनौतियाँ बनकर फिर से इनसान को उनका हल ढूँढने पर विवश करेंगी, इनसान फिर से एक न्यायसंगत व्यवस्था के सपने देखने लगेगा, फिर से अपने काल की विसंगतियों से जूझने लगेगा। इससे वह सोवियत संघ के विफल प्रयास से भी बहुत कुछ सीखेगा।”
1976 से 1986 तक वे प्रगतिशील लेखक संघ में सक्रिय रहे। प्रगतिशील लेखक संघ वामपंथी विचारधारा के प्रभाव में रही है। इसके बारे में भीष्म साहनी मानते थे कि विचारधारा जीवनदृष्टि को प्रभावित करती है और मेरी रचनाएँ मेरी जीवनदृष्टि के अनुरूप हैं। साथ ही उनका यह भी यकीन था कि कोई भी लेखक केवल विचारधारा के बल पर नहीं लिखता। विचारधारा हमें नजरिया देती है, पर हमें कलाकार नहीं बनाती।
गैर मार्क्सवादी साहित्यकारों का मानना था कि साहित्य को विचारधारा का वाहक नहीं होना चाहिए। वे प्रगतिशील साहित्य पर प्रचारात्मक साहित्य होने का आरोप लगाते थे। भीष्म साहनी इससे सहमत नहीं थे। उनका कहना था कि यह मान्यता पाश्चात्य देशों की देन है, जहाँ साहित्यिक रुझान उत्तरोत्तर व्यक्तिनिष्ठ होता गया है। हमारे देश की साहित्यिक परम्परा में, प्रचार को लेकर नाक–भौं नहीं सिकोड़े जाते रहे, न ही प्रचार को इतना बुरा माना जाता है। बल्कि प्रचार को रचना का स्वाभाविक अंग समझा जाता रहा है। हमारा समूचा धार्मिक तथा नीतिप्रधान उपदेशात्मक साहित्य प्रचारात्मक ही तो है। साहित्य जीवन का दर्पण है और राजनीति जीवन का अंग। इस नाते साहित्य में भी इसका होना स्वभाविक है।
भीष्म साहनी दस सालों तक प्रगतिशील लेखक संघ के सचिव रहे। प्रगतिशील लेखक संघ के मंच से बड़े–बड़े साहित्यिक जलसे होते रहे हैं। उन्होंने अपने जीवन का बड़ा हिस्सा साहित्य लेखन करते हुए गुजारा। उनकी कृतियों को आज न केवल पाठ्यक्रम की पुस्तकों में पढ़ाया जाता है, बल्कि शोधार्थी उनकी कृतियों पर शोध करते हैं।
11 जुलाई 2003 को 87 वर्ष की उम्र में भीष्म साहनी ने दुनिया को अलविदा कह दिया। उनकी अन्तिम रचना आत्मकथा: ‘आज के अतीत’ है, जहाँ उनके संघर्षशील और रचनाशील जीवन के दर्शन होते हैं। उनका संघर्षमय जीवन आज के संस्कृति कर्मियों के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
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