फरवरी 2018 में वित्तमंत्री अरुण जेटली ने ‘आयुष्मान भारत योजना’ की घोषणा करते हुए कहा था कि इस योजना से 10 करोड़ गरीब जरूरतमन्द परिवारों को इलाज के लिए आर्थिक मदद मिलेगी। यह एक बीमा योजना है, जिसमें 1100–1200 रुपये सालाना प्रीमियम भरना होगा। इसका ज्यादातर हिस्सा सरकार देगी। एक परिवार इलाज के लिए साल में 5 लाख रुपये तक की बीमा राशि ले सकता है। लेकिन इस योजना का लाभ उन नागरिकों को मिलेगा जिनका नाम ‘सामाजिक–आर्थिक और जाति जनगणना’ (एसईसीसी, 2011) में दर्ज होगा।

सुनने में यह योजना बड़ी अच्छी लगती है लेकिन वास्तव में यह एक मृग–मरीचिका से ज्यादा कुछ नहीं है। क्योंकि सरकार ने एसईसीसी में दर्ज होने की जो शर्त रखी है, उससे गरीब जनता का 95 फीसदी हिस्सा इस बीमा योजना से बाहर हो जाता है। अगर एसईसीसी की शर्तों को जान लें तो इस पूरी योजना की कलई खुल जाती है।

एसईसीसी के तहत सरकार ने देश भर में गरीबों की एक नयी सूची तैयार की है। गरीबों की इस नयी सूची को बड़े षडयंत्रकारी ढंग से तैयार किया गया है। इस सूची में नाम दर्ज कराने के लिए दो तरह के मानदंडोें को रखा गया है। पहला, सरकार ने 14 पैमाने दिये हैं। अगर कोई उनमें से एक पर भी खरा नहीं उतरता तो वह एसईसीसी से बाहर हो जाएगा। जैसे–– अगर उसके पास मोटर चलित दोपहिया, तिपहिया या चार पहिये वाला वाहन या मछली पकड़ने की नाव हो। इसके अलावा यदि परिवार में कोई भी व्यक्ति 10,000 रुपये प्रतिमाह से अधिक कमाता है या 50 हजार रुपये और इससे अधिक की मानक सीमा के किसान क्रेडिट कार्ड का इस्तेमाल करता है तो ऐसे लोगों को एसईसीसी के अन्तर्गत नहीं माना जाएगा। ऐसे में अगर किसी ने 5000–10,000 तक की पुरानी मोटर साइकिल खरीद ली है या जैसे–तैसे ब्याज पर पैसा लेकर अपने परिवार का गुजारा करने के लिए ई–रिक्शा या ऑटो खरीद लिया है तो वह एसईसीसी से बाहर है। ऐसे ही अगर परिवार का मुखिया 10,000–12,000 रुपये कमाकर पाँच लोगों के परिवार का पेट पाल रहा है तो वह कितना बड़ा रईस है और अपने परिवार के लिए कैसे इलाज और पढ़ाई का इंतजाम कर सकता है इस बात को भी हम सब जानते हैं।

दूसरे स्तर पर पाँच मापदंड रखे गये हैं। यदि कोई व्यक्ति इनमें से एक भी पूरा करता है, तो उसे एसईसीसी के अन्तर्गत माना जाएगा। जैसे–– बेघर लोग, निराश्रित, भिक्षुक, आदिम जनजातीय समूह आदि। ये ऐसे लोग हैं जिनको अशिक्षित होने के कारण यह भी पता नहीं होता कि बीमा योजना किस चिड़िया का नाम हैै। वे लोग भला साइबर कैफे जाकर इन योजनाओं के लिए अपना रजिस्टेªशन करा सकते हैं और अगर करा भी लंे तो क्या बीमा कम्पनियों से रुपया निकलवा सकते हैं।

दूसरा, अभी तक एसईसीसी के अन्तर्गत ग्रामीण इलाके के जो आँकडे़ आये हैं उनसे पता चलता है कि मेहनत करने वाले 39.39 फीसदी परिवार जिनमें से अधिकतर गरीबी रेखा से नीचे हैं और वे 14 मापदंडों को पूरा न करने के चलते इस योजना का लाभ नहीं ले सकते और जो परिवार अगले 5 मापदंडों को पूरा करतें हैं उनकी सँख्या 3.01 करोड़ है, निरक्षरता के चलते वे इस योजना का लाभ उठाने में सक्षम ही नहीं हैं।

अगर ऊपर कही गयी बातों को छोड़ भी दें तो क्या यह योजना अपने उद्देश्य पर खरी उतर पायेगी? हमारे देश में हर परिवार की आय का बड़ा हिस्सा इलाज पर खर्च होता है। क्योेंकि सस्ते इलाज के लिए जो सरकारी अस्पताल बनाये गये थे वे आज इलाज करने की स्थिति में ही नहीं रहे और निजी अस्पतालों की लूट के किस्से तो हम आये दिन अखबारों या न्यूज में सुनते रहते हैं। इनकी बेलगाम लूट पर किसी का कोई अंकुश नहीं है।

अगर सरकार को आम जनता के दवा–इलाज की चिन्ता होती तो वह स्वास्थ्य सेवाओं को निजी मुनाफाखोरों के हवाले नहीं करती। लेकिन सरकार की छत्रछाया में ही ये मौत के सौदागर अपना धंधा चला रहे हैं।

राँची के मेदान्ता अस्पताल ने एक किसान को इलाज के 98,506 रुपये जमा न करने के चलते दो महीने तक बन्धक बना कर रखा और राज्य के मुख्यमंत्री के हस्तक्षेप के बाद ही छोड़ा। हालाँकि वह 4 लाख रुपये पहले ही जमा करा चुका था।

गुरूग्राम, हरियाणा के निजी अस्पताल, “पारस” ने बेवजह एक मरीज के सिर का ऑपरेशन कर दिया, जिससे मरीज की हालत बिगड़ गयी। मरीज की जान तो बच गयी लेकिन अन्त मे अस्पताल ने 82 लाख रुपये का बिल परिवार वालों के हाथ में थमा दिया।

इसी तरह दिल्ली के मैक्स अस्पताल ने भी पिछले दिनों बुखार से पीड़ित एक बच्ची के इलाज का बिल 22 लाख रुपये बनाया जबकि आधुनिक तकनीकों से लैस यह अस्पताल उस बच्ची की जान भी नहीं बचा पाया था। इससे मिलती–जुलती घटनाएँ रोज ही अखबारों में आती रहती हैं और निजी अस्पतालों की स्थिति को हम अपने अनुभव से भी जानते हैं।

निजी अस्पतालों में इलाज के बारे में आयी एक रिपोर्ट कहती है कि दिल्ली एनसीआर के कई निजी अस्पताल दवाओं और उपकरणों के दाम में हेरा–फेरी करके अपने मरीजों से 1700 फीसदी तक मुनाफा वसूल रहे हैं। कई अस्पताल तो 1 रुपये मे खरीदे गये साधारण दस्ताने के लिए मरिजों से 2800 रुपये वसूल रहे हैं। ऐसी बेलगाम लूट–खसोट की फेहरिस्त बहुत लम्बी है।

अर्थशास्त्र में नोबल पुरस्कार प्राप्त अमरीका के डॉ– कैनेथ एरो ने 1963 में चेतावनी दी थी कि ‘‘स्वास्थ्य सेवा को बाजार के हवाले करना आम लोगों के लिए जानलेवा होगा’’। उनकी चेतावनी सच साबित हो रही है।

अब देश की 80 फीसदी से अधिक आबादी के पास एक ही रास्ता बचा है कि वे सरकारी अस्पतालों में इलाज करवाने के लिए अपनी किस्मत आजमायें। इनमेें होने वाली दुगर्ति से भी हम सब बाबस्ता हैं।

हमारे देश के सबसे अच्छे सरकारी अस्पताल एम्स का हाल यह है कि इसकी ओपीडी में रोजाना औसतन 10,000 से ज्यादा रोगी आते हैं जबकि यह अधिकतम 6000 रोगी ही सम्भाल सकता है। 4000 रोगियों को बैरंग वापस लौटना पड़ता है। यहाँ भर्ती होना तो युद्ध जीतने के समान है। जो यहाँ किसी तरह पर्चा बनवा भी ले तो  उनके इलाज का आलम यह है कि एक छोटी बच्ची को दिल के ऑपरेशन के लिए दिसम्बर 2022 की तारीख दी गयी, गले के कैंसर से पीड़ित एक महिला को दो साल बाद की तारीख मिली।

सरकारी अस्पताल मरीजों के दबाव, सुविधाओं की कमी, दवाइयों की कमी, डॉक्टरों व स्टॉफ की कमी और गन्दगी से बदहाल हो गये हैं। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार देश में 6,00,000 डॉक्टरों की तुरन्त जरूरत है, साथ ही एक डॉक्टर के साथ न्यूनतम एक जूनियर डॉक्टर व दो नर्स की आवश्यकता होती है, इस हिसाब से 24,00,000 डॉक्टरों व सहायक स्टाफ की तुरन्त जरूरत है। हमारे देश में मरीजों और डॉक्टरों का अनुपात वियतनाम, अल्जीरिया और पाकिस्तान से भी बदतर हालत में है।

सरकारी अस्पतालों में मरीजों को दिखाने और जाँच कराने की प्रक्रिया इतनी जटिल बना दी गयी है कि इसी भागदौड़ में किसी का डॉक्टर से मिलने का समय खत्म हो जाता है, तो कोई मरीज अपनी जान से ही हाथ धो बैठता है। अस्पतालों के बरामदे और दरवाजों पर बच्चा जननें की खबरें भी आम हैं।

‘आयुष्मान भारत योजना’ सरकारी अस्पतालों की बदहाल स्थिति को सुधारने और निजी अस्पतालों की लूट पर रोक लगाने से मुँह फेर चुकी सरकार का जनता को थमाया गया एक झुनझुना है। साथ ही, यह सरकारी खर्च पर बीमा कम्पनियों का मुनाफा बढ़ाने की एक साजिश है। यही इसका मकसद भी है। नहीं तो, कौन नहीं जानता कि इलाज की समस्या का समाधान केवल सरकारी अस्पतालों की संख्या बढ़ाकर और उनकी हालत सुधारकर ही हो सकता है। लेकिन सरकार को मेहनतकश जनता की सेहत की नहीं बल्कि बीमा कम्पनियों की सेहत की चिन्ता है।