सेन्ट्रल विस्टा पुनर्विकास परियोजना की घोषणा मोदी सरकार ने सितम्बर 2019 में की थी। इस परियोजना में नया संसद भवन, एकीकृत केन्द्रीय मंत्रालय, प्रधानमंत्री आवास, उपराष्ट्रपति आवास बनने हैं और राष्ट्रपति भवन से इण्डिया गेट तक के तीन कीलोमीटर लम्बें राजपथ की सटावट की जानी है। शान्ति भवन, शास्त्री भवन, निमार्ण भवन व नेशनल म्यूजियम जैसी 15 इमारतों को भी जमीदोंज करके नयी इमारतें बनायी जानी हैं। भारत जैसे गरीब देश में बन रही विलासिता की इस योजना का घोषणा के दिन से ही भारी विरोध हो रहा है।

यह परियोजना चार वर्षों में पूरी होनी है। इस पर 20 हजार करोड़ से अधिक की रकम खर्च होगी। अब तक 1300 करोड़ की रकम जारी की जा चुकी है। सबसे पहले संसद भवन और प्रधानमंत्री आवास बनेगा। इनका निर्माण 2022 तक पूरा होना है। इस दैत्यकार परियोजना को पूरा करने की जिम्मेदारी कई देशी–विदेशी कम्पनियों को दी जा चुकी है। यह परियोजना इतनी बडी है कि इसे बनाने के लिए हुए सलाह–मशवरे पर ही 971 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं।

देश में लॉकडाउन की वजह से आज जनता के रोजी–रोटी के कामों पर भले ही पाबन्दी लगी हो लेकिन सेन्ट्रल विस्टा के निमार्ण का काम जारी है। ताकि “फकीर” प्रधानमंत्री का 1300 करोड़ की लागत से बनने वाला महल तय समय–सीमा पर तैयार हो सके। प्रधानमंत्री के महल पर खर्च होने वाली रकम कितनी बडी है इसका अन्दाजा इन तथ्यों से लगाया जा सकता है–– भारत में आम मजदूर की मजदूरी लगभग 300 रुपये रोजाना है और मान लिया जाये कि उसे साल में 365 दिन काम मिलें तो प्रधानमंत्री के महल में खर्च होने वाली रकम 1,20,370 मजदूरों की पूरे साल की मजदूरी के बराबर होगी या, कोई चाहे तो इस रकम से भारत के सबसे महँगे शहर बैगलूरू में 4000 से ज्यादा शानदार कोठियाँ बना सकता हैं।

अस्पतालों की कमी के कारण कोरोना महामारी में बहुत से लोगों की जान नहीं बचायी जा सकी। सेन्ट्रल विस्टा की पूरी परियोजना पर खर्च होने वाली रकम से 2000 मल्टी स्पेशलिटी हॉस्पिटल तैयार किये जा सकते हैं।

प्रधानमंत्री का कहना है कि यह परियोजना “आत्मनिर्भर भारत” का प्रतीक होगी। वह देश के प्रधानमंत्री हैं चाहते तो इसे “विश्व गुरू भारत”, “महाशक्ति भारत” या किसी और भारत का प्रतीक भी बता सकते थे, उनकी मर्जी। दरअसल पहली कोरोना लहर के समय से ही उनके दिमाग में “आत्मनिर्भर” शब्द चढ़ा हुआ है। हालाँकि देशी–विदेशी कम्पनियों को ठेका देकर बनाया जाने वाला सेन्ट्रल विस्टा “आत्मनिर्भर भारत” का प्रतीक कैसे है, यह समझ से परे है। इस तरह की लफ्फाजी उनकी आदत में शामिल है।

नौकर अकसर मालिक की नकल करने लगते है। “गैर–जरूरी” सेन्ट्रल विस्टा को “बेहद जरूरी” साबित करने के लिए सरकारी नुमाइन्दों ने भी मालिक जैसी ही लफ्फाजी की है। उनमें से कुछ इस तरह हैं––

पहला, मौजूदा संसद भवन में बैठने की जगह और आधुनिक तकनीक की कमी है। जब कभी परिसीमन होगा तो राज्य सभा व लोकसभा में बैठने की जगह कम पड़ सकती है। खुद प्रधानमंत्री का दावा है कि नयी इमारत से सांसदों के काम करने की क्षमता बढेंगी और उनमें आधुनिक कार्य–संस्कृति पैदा होगी। इसलिए नया संसद भवन बनाना जरूरी है।

दूसरा, मंत्रालय अलग–अलग इमारतों में बने होने से इनके बीच तालमेल की समस्या है, एक साझा केन्द्रीय साचिवालय में ही सारे मंत्रालय बन जाने से मंत्रालयों में अपसी तालमेल बढे़गा।

तीसरा, अलग–अलग बने मंत्रालयों के किराये में सालाना 1000 करोड़ रुपये का खर्च आता है। इस योजना से यह खर्च भी कम होगा।

शायद मौजूदा सरकार पूरे देश को अपनी ही तरह अक्ल का दुश्मन समझती है। ये सभी दलीले इस हद तक बेतुकी है कि सुनने वाले को मानसिक आघात लग सकता है। आइये, जान का जोखिम लेकर इनकी थोड़ी तार्किक जाँच–पड़ताल करेंे।

हम नहीं कहते, लेफ्टिनेंट जरनल अनुज श्रीवास्तव ने सुप्रीम कोर्ट में दावा किया है कि “रेट्रीफिटिंग” की तकनीक से पुरानी इमारतों को नयी जरूरतों के हिसाब से ढाला जा सकता है। मौजूदा संसद भवन के बारे में सरकार द्वारा बतायी जा रही समस्याओं को इस तकनीक से बेहद कम खर्च में बहुत आसानी से दूर किया जा सकता है। लोकसभा और राज्य सभा दोनों के कुल सदस्यों की कुल संख्या 790 हैं। मौजूदा संसद भवन की इमारत 6 एकड़ में बनी है। बिल्कुल साधारण गणित के हिसाब से एक सांसद के हिस्सें में लगभग 30 वर्ग मीटर से ज्यादा जगह आती है। दिल्ली में इतनी जगह में दो–तीन परिवार रहते हैं। कमाल है मान्यवर सांसदों को इतनी जगह में भी तंगी महसूस हो रही हैं।

आज के तकनीकी दौर में हजारों टैरा–बाइट डाटा रोज एक देश से दूसरे देश में जाता है। दुनिया के अलग–अलग छोर पर बैठे लोग वीडियो कॉल से रूबरू बात कर सकते हैं। सैकडों–हजारों किलोमीटर दूर रखे कम्प्यूटर सिस्टम को एक साथ जोड़ा जा सकता है। ऐसे में कन्धे से कन्धा सटाकर बैठने से कौन सा समन्वय बढ़ेगा। इसके बजाय तंत्र के केन्द्रीकरण से मानवीय गतिविधियों का केन्द्रीकरण होगा यानी भीड़–भाड़ बढे़गी। सभी मंत्रालयो का दिल्ली में होना भी जरूरी नहीं है। जनजाति मंत्रालय झारखण्ड में या वन मंत्रालय मध्य प्रदेश में और इसी तरह सभी मंत्रालय अलग–अलग प्रदेशों में बना देने से कौन सी समस्या आ जाएगी। उल्टा, इससे दिल्ली की भीड–भाड़ घटेगी और आम जनता की मंत्रालयों तक पहुच आसान हो जाएगी। इससे अलग–अलग राज्यों के विकास में भी वृद्धि होगी और एक ही शहर में बढ़ रहा जनसंख्या घनत्व भी कम होगा। सरकार कह रही है कि मंत्रालयों के एक जगह आ जाने से समन्वय बढेगा लेकिन संसद में जहाँ सदस्य एक साथ बैठते हैं हम अकसर ही जूतम–पैजार के दृश्य देखते है। इस हिसाब से सांसद और उनके मंत्रालय जितने दूर–दूर रहें उतना अच्छा।

1000 करोड की बचत के दावे के बारे में प्रसिद्ध वास्तुकार माधव रमन का कहना है कि यह 1000 करोड़ रुपये भारत सरकार के ही पास उनकी संचित निधी में जाते हैं तथा इस रकम का इस्तेमाल इन इमारतों के रख–रखाव में होता है। नयी इमारतें संख्या और आकार दोनों में पुरानी से कहीं ज्यादा बड़ी हैं तो निश्चित रूप से खर्च घटने के बजाय बढ़ेगा। सरकारी कारकूनों को या तो यह साधारण सी बात मालूम नहीं हैं या वे जनता को आला दर्जें का मूर्ख समझते हैं।

सेन्ट्रल विस्टा परियोजना सरकार के ही बनाये एफएआर (तल क्षेत्र अनुपात) के नियमों का भी उल्लंघन करती है। वरिष्ठ वास्तुकार नारायण मूर्ति ने बीबीसी को एक साक्षत्कार में बताया था कि एफएआर सभी नागरिकों पर लागू होता है। यह हमें बताता है कि हम किसी खाली जगह में कितना निर्माण कर सकते हैं। उससे अधिक करने पर दिल्ली के नगर निगम को उसे तोड़ने का अधिकार है। अगर सरकार ही निर्धारित सीमा से डेढ़ गुना ज्यादा निर्माण कर रही हो तो वह दूसरों को क्या सीख देगी। लगता है कि वास्तुकार नारायण मूर्ति जी पूराने जमाने के उसूली आदमी है जो इस सरकार से नियम मानने की आशा कर रहे है जिसने देश के संविधान को ही तार–तार करने का बीड़ा उठा रखा है।

मई माह में ही 60 पूर्व नौकरशाहों ने प्रधानमंत्री व शहरी विकास मंत्री हरदीप सिंह पुरी को चिट्टी लिखी। उन्होंने बताया कि राजधानी के केन्द्र में मौजूद यह इलाका शहर के फेफड़ों की तरह काम करता है। यहाँ की धनी हरियाली जैव–विविधता का भण्डार है। पुरानी इमारतों को ढहाने से बहुत बड़े स्तर पर धूल और मलवा पैदा होगा, साथ ही निर्माण कार्य के लिए बडे पैमाने पर खुदाई होगी। इन तमाम गतिविधियों के चलते चार साल तक रोजाना करीब 700 ट्रक मिट्टी और मलवा लेकर आवाजाही करेंगें, जिससे होने वाले पर्यावरणीय नुकसान की भरपाई करना मुश्किल है। मंत्री जी के कारिन्दों ने ही शायद उस चिट्टी को कूडे़दान में फेंक दिया होगा।

दिल्ली दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में से एक है। सेन्टर फॉर पॉलिसी रिसर्च की सीनियर फेलो मंजू मेनन ने कहा कि नये संसद भवन को पर्यावरणीय मंजूरी दिये जाने को कई महत्त्वपूर्ण आधारों पर चुनौती दी गयी है। इसके दूरगामी प्रभावों का कोई आकलन नहीं किया गया। स्मॉग टावर खडे़ करने और पौधों को दूसरी जगह लगाने जैसे कदमों की नाकामी सारी दुनिया जानती है।

सरकार शायद 1985 में बने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र योजना बोर्ड के प्रावधान को देखना भी भूल गयी जिसमें दिल्ली में कोई भी नयी सरकारी इमारत बनाने पर रोक लगायी गयी थी।

20 फीसदी की गहरी खाई में गिर रही विकास दर की गिरावट देखकर अर्थशास्त्रियों के होश फाख्ता हैं। पिछले एक साल में 23 करोड़ लोग कंगाल हो चुके हैं। इन बदनसीबों के झुण्ड सड़कों और कूड़ाघरों के इर्द–गिर्द नमुदार होने लगे हैं। प्रधानमंत्री मोदी जी जब “फकीर” थे तो उसके लाखों रुपये के सूट, करोड़ों रुपये की विदेश यात्राएँ और विज्ञापनों के खर्चें चर्चा में रहते थे। जब वह “फकीर” से “सन्यासी” बनने की ओर बढ़े तो उनके लिए 9 हजार करोड़ रुपये में खरीदें गये दो अत्याधुनिक हवाई जहाज सुर्खियों में आये। आजकल वह “सन्यासी” बने घूमते हैं तो 20 हजार करोड़ की लागत से तैयार हो रही उनकी सेन्ट्रल विस्टा पूरी दुनिया में सुर्खियाँ बटोर रही है। इनकी ऊँची शान का एहसास करने के लिए यह हरदम याद रखना जरूरी है कि यह उसी भारत के “प्रधान सेवक” हैं जो सबसे ज्यादा बाल मृत्यु वाले देशों में शामिल है और इनमें भी 68.2 फीसदी बच्चे पौष्टिक भोजन न मिलने के चलते मरते हैं, 13 करोड़ लोग भूखे सोते हैं। इनके राज में विश्व गुरू बनने की ओर तेजी से बढ़ रहा भारत वैश्विक भुखमरी सूचकांक–2020 में 107 देशों में 94वें स्थान पर है। यही भारत जिसे “सन्यासी” मोदी जी इसी साल जनवरी में “वैक्सीन गुरू” बना चुके हैं इसमें 11 हजार की आबादी पर सिर्फ एक डॉक्टर है। “सन्यासी” तो ऐसी चीजों से ऊपर उठ चुके हैं लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन दुखी होकर कहता है कि भारत में मौजूदा संख्या से 11 गुणा ज्यादा डॉक्टरों की जरूरत है।

“सन्यासी” मोदी जी की सकारात्मकता की छत्रछाया में आज भारत की नदियाँ और मैदान लाशों से पटे पडे हैं। शमशानों और कब्रिस्तानों की चैखटों पर मुर्दों की लम्बी कतारें लगी हैं। ऑक्सीजन के लिए लोग सड़कों पर खाली सिलेण्डर लिए अपनों को साँसे देने की उम्मीद में दौड रहे हैं। अस्पताल में भर्ती होना तो दूर बुनियादी दवाएँ भी लोगों को नहीं मिल पा रही हैं। इस खौफनाक मंजर के लिए जिम्मेदार सरकार सेन्ट्रल विस्टा के लिए मरी जा रही है। “जब रोम जल रहा था नीरो बंसी बजा रहा था” हमारी आने वाली नस्लें इसकी जगह शायद यह कहा करेंगी–– “जब भारत लाशें ढो रहा था मोदी महल बनावा रहा था।”