एक नवउदारवादी शासन मजदूर वर्ग के खिलाफ वर्ग शक्ति सन्तुलन में एक सहज बदलाव को हर जगह लाजमी बना देता है। ऐसा कई कारणों से होता है। पहला, चूँकि पूरी दुनिया में पूँजी को एक देश के मजदूर वर्ग को दूसरे देश के मजदूर वर्ग के खिलाफ खड़ा करने का अवसर मिल जाता है। अगर एक देश के मजदूर हड़ताल पर जाते हैं तो पूँजी के पास बिना नुकसान उठाये अपने उत्पादन इकाई को दूसरे देश में स्थानान्तरित करने का विकल्प होता हैय और ऐसा करने की उसकी धमकी ही हर देश में मजदूरों के जुझारूपन को कम करने का काम करती है।

अगर मजदूरों को अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर संगठित किया गया होता, ताकि हड़तालें न केवल राष्ट्रीय स्तर पर संगठित हों, बल्कि कई देशों में एक साथ हो सकें, तो पूँजी की इस तरह की धमकी का कोई असर न होताय लेकिन अफसोस कि मजदूर वर्ग की वर्गीय कार्रवाइयाँ अभी तक अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर संयोजित नहीं हैं, जिसके कारण ऐसी धमकियों का असर पड़ता है। यह सच है कि जब मजदूर अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर संगठित थे, तब भी पूँजी उत्पादन को पूरी तरह से नये स्थान पर स्थानान्तरित करने की धमकी दे सकती थी, लेकिन यह उसी के नजरिये से ही काफी कठिन होता। तथ्य यह है कि पूँजी के मौजूदा उत्पादन क्षेत्रों में भी मजदूर अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर संगठित नहीं हैं, पूँजी के हित में काम करते हैं और हर क्षेत्र में जुझारूपन के स्तर को कम रखते हैं।

इस जानेमाने तथ्य का यह केवल एक उदाहरण है कि पूँजी का केन्द्रीकरण मजदूरों के जुझारूपन को कम करने का एक साधन है–– चूँकि पूँजी का केन्द्रीकरण बिखरी हुई गतिविधियों के एक ढाँचे में सभी जगह या बिखरे हुए भौगोलिक क्षेत्रों में सभी जगह ऐसी केन्द्रीकृत पूँजी के फैलाव से जटिलता से जुड़ा होता है। इसलिए किसी विशेष क्षेत्र या गतिविधि की किसी शाखा में मजदूरों द्वारा कोई जुझारू कार्रवाई करने पर पूँजी को किसी दूसरी शाखा या क्षेत्र में स्थानान्तरित कर दिये जाने का खतरा रहता है। नवउदारवादी वैश्वीकरण एक वैश्विक फैलाव के साथ पूँजी के केन्द्रीकरण पर जोर देता है और इसलिए मजदूरों के जुझारूपन पर एक ही जैसा प्रभाव डालने वाला अंकुश लगा देता है।

ठीक उसी दिशा में काम करने वाला दूसरा कारक यह है–– साम्राज्यवादी देशों से तीसरी दुनिया के कुछ देशों में गतिविधियाँ स्थानान्तरित हो जाने के चलते धनी देशों में मजदूरों की सौदेबाजी और हड़ताल करने की ताकत कमजोर हो जाती है लेकिन गरीब देशों के विशाल श्रम भण्डारों का भी पूरी तरह इस्तेमाल नहीं किया जाता है जिसकी वजह से इन देशों के मजदूर भी अधिक ताकत हासिल नहीं कर पाते हैं।

यह तथ्य कि गरीब देशों के विशाल श्रम भण्डार से जोड़ दिये जाने से धनी देशों के मजदूरों पर अंकुश लग जाता है और इसे ही नवउदारवाद सुनिश्चित करता है, यह जानी–मानी बात है। इन दोनों तरह के देशों के मजदूरों की दशाओं के बीच बढ़ती खाई, जो पहले पूँजीवाद की विशेषता थी, जब इसने विश्व अर्थव्यवस्था को दो भागों में विभाजित कर दिया था, जिसमें न तो श्रम और न ही पूँजी गतिशील थी, लेकिन अब इसे कायम नहीं रखा जा सकताय लेकिन नवउदारवाद हमेशा ही यह वादा करता रहा कि गरीब देशों की अर्थव्यवस्था का स्थानान्तरण की सहायता से होने वाला तीव्र विकास वहाँ के श्रम भण्डारों को उपयोग में ले लेगा, यानी ये भण्डार जो उपनिवेशवाद और अर्ध–उपनिवेशवाद की देन हैं (हालाँकि, नवउदारवादी विचारधारा इस तथ्य को अहमियत नहीं देती), अन्तत: कम हो जाएँगे।

हालाँकि इस वादे पर विश्वास किया जाता है। असल में गरीब देशों में श्रम भण्डारों के आकार को कम करने के बजाय नवउदारवादी शासन ने इसे बढ़ाया है। नवउदारवाद ने वहाँ बेरोजगारी में बढ़ोतरी की है, हालाँकि यह तथ्य खुद को नियोजित श्रमिकों की संख्या में कमी के बजाय उन दिनों की संख्या में कमी के रूप में जाहिर कर सकता है जितने दिन हर मजदूर काम करता है।

बेरोजगारी में यह बढ़ोतरी नवउदारवाद की दो विशेषताओं के कारण होती है। एक है, छोटे पैमाने के उत्पादन और छोटी कृषि को बड़ी पूँजी और कृषि व्यवसाय की घुसपैठ के लिए खोलने के नजरिये के चलते राज्य ने इन क्षेत्रों को समर्थन देना बन्द कर दिया है। दूसरी विशेषता, वस्तुओं और सेवाओं की सीमा–पार मुक्त आवाजाही के लिए अर्थव्यवस्था का खुलना है जो हर निर्माता को तकनीकी प्रगति करने के लिए बेहद मजबूर कर देता है क्योंकि उसे आयातों के खिलाफ बाजार में हिस्सेदारी की रक्षा करनी पड़ती है। चूँकि श्रम पर बचत पूँजीवाद में तकनीकी प्रगति द्वारा ग्रहण किया गया विशिष्ट रूप है, इसका अर्थ है श्रम उत्पादकता की वृद्धि दर में बढ़ोतरी और इसलिए रोजगार की वृद्धि दर में गिरावट। इस प्रकार, उजड़े हुए किसान और कारीगर अर्थव्यवस्था के पूँजीवादी क्षेत्र में जैसे–जैसे नौकरी चाहने वालों की संख्या को बढ़ाते जाते हैं, उस क्षेत्र में नौकरियों की संख्या में बढ़ोतरी कम हो जाती है, जिससे श्रम भण्डार के सापेक्ष आकार में बढ़ोतरी होती है। यह तथ्य सभी देशों में मजदूर वर्ग की स्थिति को कमजोर करता है।

तीसरा कारक जो हर जगह मजदूरों की स्थिति को कमजोर करता है, वह सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों का निजीकरण है। निजी क्षेत्र की इकाइयों की तुलना में सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों में मजदूर निरपवाद रूप से बेहतर संगठित होते हैं, यह तथ्य दो क्षेत्रों में यूनियनीकरण की सीमा से स्पष्ट है। उदाहरण के लिए, अमरीका में सार्वजनिक क्षेत्र के लगभग एक तिहाई कर्मचारी (शिक्षा के क्षेत्र सहित) यूनियन में शामिल हैं जबकि निजी क्षेत्र के केवल 7 प्रतिशत कर्मचारियों की ही यूनियन हैं। निष्कर्ष यह है कि निजीकरण मजदूर वर्ग के जुझारूपन को कम करता है। बदले में यह पूरी अर्थव्यवस्था में मजदूरों के जुझारूपन को कम कर देता है।

यही कारण है कि फ्रांस, जहाँ अभी भी एक बड़ा सार्वजनिक क्षेत्र है, मजदूरों के जुझारू संघर्षों का गवाह बना हुआ है। भारत में जहाँ गौरवशाली संघर्षों के इतिहास के साथ पर्याप्त सार्वजनिक क्षेत्र रहा है, क्रमबद्ध निजीकरण ने ऐसे संघर्षों को निस्सन्देह अधिक कठिन बना दिया हैय इसने यूनियनीकरण के ठिकाने को लघु उद्यमों के क्षेत्र में स्थानान्तरित कर दिया है।

हालाँकि जो बात ध्यान खींचती है वह यह नहीं है कि नवउदारवाद पूँजी के खिलाफ अपने संघर्ष में मजदूर वर्ग को कमजोर करता है, बल्कि यह है कि इस कमजोरी के बावजूद आज नवउदारवाद मजदूरों के जुझारूपन में बढ़ोतरी का गवाह बन रहा है। ब्रिटेन में रेल कर्मचारियों ने इस साल कई हड़तालें की हैं, जिनमें पिछली गर्मियों के दौरान, कई दशकों की सबसे बड़ी हड़ताल भी शामिल है। आज भी रेल कर्मचारियों ने नियोक्ताओं द्वारा दिये गये वेतन प्रस्ताव को बहुत तुच्छ बताकर खारिज कर दिया है तथा दिसम्बर और जनवरी में आगे की हड़ताल की धमकी दे रहे हैं। हालाँकि रेलकर्मी अकेले नहीं हैं। डाक कर्मचारी, नर्स, एम्बुलेंस कर्मचारी और दूसरे या तो हड़ताल की कार्रवाई में लगे हैं या लगने वाले हैं, यहाँ तक कि सत्तारूढ़ कंजर्वेटिव पार्टी के अध्यक्ष ने “आवश्यक सेवाओं” को चलाने के लिए सेना उतारने की बात कही है। जर्मनी में बन्दरगाह कर्मचारी, सार्वजनिक परिवहन कर्मचारी, विमानन सुरक्षा कर्मचारी, निर्माण श्रमिक, और रेल कर्मचारी ये सभी या तो हड़तालों में लगे हुए हैं या जल्द ही लगने वाले हैं। दूसरे यूरोपीय देशों का भी यही हाल है। दूसरे शब्दों में, अब तक नवउदारवादी युग की विशेषता रही श्रमिकों की सापेक्षिक निष्क्रियता खत्म हो रही है।

इस बारे में पश्चिमी प्रेस की जो विशिष्ट व्याख्या सामने आ रही है वह जुझारूपन के इस उछाल के लिए मुद्रास्फीति को जिम्मेदार ठहराती है। यह विश्वास किया जाता है कि मुद्रास्फीति, यूक्रेन युद्ध या आपूर्ति श्रृंखलाओं में कोविड–प्रेरित व्यवधानों जैसे कारकों के कारण हुई है, जो नवउदारवादी पूँजीवाद की कारगुजारियों के लिए पूरी तरह से बाहरी माने जाते हैं।

हालाँकि दो स्पष्ट कारणों के चलते यह स्पष्टीकरण अधूरा है–– एक, न तो कोविड प्रकरण और न ही यूक्रेन युद्ध नवउदारवादी पूँजीवाद की कारगुजारियों के लिए बाहरी हैं। यूक्रेन युद्ध के मामले में यह साफ है कि पश्चिमी साम्राज्यवाद के उस प्रभुत्व को बनाये रखने की कोशिशों के चलते ही युद्ध हुआ है जिसे नवउदारवादी पूँजीवाद भी मजबूत करना चाहता है। बल्कि, कोविड प्रकरण भी नवउदारवादी पूँजीवाद के लिए बाहरी नहीं है–– इसका फैलाव और तीव्रता इसलिए ज्यादा बढ़ी क्योंकि पश्चिमी देश वैक्सीन प्रौद्योगिकी पर एकाधिकारी कब्जा छोड़ना नहीं चाहते हैंय इसके अलावा, लांसेट द्वारा नियुक्त समिति की रिपोर्ट से अब यह लगता है कि कोविड की उत्पत्ति भी किसी प्रयोगशाला में हुई है, जो साम्राज्यवाद के लिए कराये गये सैन्य–सम्बन्धी अनुसंधान का नतीजा हो सकती है।

मौजूदा महँगाई नवउदारवादी पूँजीवाद के लिए बाहरी नहीं है। दरअसल, पूँजीवादी संकटों की यह विशेषता होती है कि उन्हें हल करने का प्रयास अक्सर नये संकटों की ओर ले जाता है। नवउदारवादी पूँजीवाद ने समग्र विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में, साथ ही व्यक्तिगत पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में, उत्पादन में अधिशेष के हिस्से को बढ़ाकर अति–उत्पादन की प्रवृत्ति पैदा की, जो प्रमुख साम्राज्यवादी देश अमरीका में ब्याज दरों को शून्य के करीब रखने और “मात्रात्मक सहजता” कहे जाने वाले माध्यम से अर्थव्यवस्था में भारी मात्रा में डॉलर झोंकने के जरिये काफी पहले ही जीत हासिल कर चुकी है।

अब, पूँजीपति, किसी भी कार्रवाई की योजना का निर्णय लेने में, उस योजना से जुड़े जोखिमों का मूल्यांकन करते हैं। बहुत कम ब्याज दरों पर भारी मात्रा में मुद्रा की उपलब्धता कोर्पोरेट के लिए उनके मुनाफे का हिस्सा बढ़ाने से जुड़े जोखिमों को बहुत कम कर देती है। यही कारण है कि कई अमरीकी निगमों ने पहले अवसर पर अपने मार्जिन को बढ़ाया, जिससे मौजूदा मुद्रास्फीति में तेजी आयी। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि अन्य कारकों ने भूमिका निभायी, लेकिन मौजूदा मुद्रास्फीति के इस मूल कारण को नहीं भूलना चाहिए।

यह मजदूरों के जीवन स्तर पर सीधा हमला है जिसका हर जगह मजदूर जोरदार विरोध कर रहे हैं। बदले में यह हमला नवउदारवाद की मौत का लक्षण है।

(मंथली रिव्यू से साभार, अनुवाद–– विशाल)