नागरिक स्वतंत्रताओं पर हमले, सत्ता के घनीभूत केन्द्रीकरण के लिए राज्य के पुनर्गठन और भय के सर्वव्यापी प्रसार के मामले में मोदी के शासन के वर्ष इन्दिरा गाँधी द्वारा लगायी गयी इमरजेंसी के समान ही हैं। लेकिन समानता यहीं खत्म हो जाती है। दरअसल, दोनों में कई तरह की बुनियादी असमानताएँ हैं।

पहली, इमरजेंसी के समय लोगों को आतंकित करने और उन्हें “राष्ट्रवाद” का पाठ पढ़ाने के लिए पीट–पीटकर मार डालने वाली हिँसक–उन्मादी भीड़ और गली के गुण्डे नहीं थे। तब राज्य खुद ही लोगों का दमन कर रहा था। लेकिन आज हिन्दुत्व के लफंगे गिरोह भी सरकार के आलोचकों को उनके “तुच्छ जुर्मों” के लिए माफी माँगने के लिए मजबूर कर रहे हैं। इसके अलावा, इन भयाक्रान्त आलोचकों के सिर पर गिरफ्तारी की तलवार भी लटकी हुई है। कोई उस बेचैन करने वाले दृश्य को कैसे भूल सकता है जिसमें एक प्रोफेसर को फेसबुक पोस्ट में सरकार की आलोचना करने के लिए अपने घुटनों पर गिरकर माफी माँगने के लिए मजबूर किया गया।

एक नया राष्ट्रवाद

दूसरा फर्क है, इमरजेंसी के विपरीत मौजूदा दमन “राष्ट्रवाद” की विचारधारा का सहारा लेता है जिसकी व्याख्या वह हिन्दुत्व के समानार्थी के रूप में करता है। लेकिन अवसरवादी तरीके से वह भारत के उपनिवेशवाद–विरोधी राष्ट्रवाद की साख को भुनाने की कोशिश करता है, इसके बावजूद भी कि दोनों के बीच कोई समानता नहीं है। परिणामस्वरूप, जहाँ इन्दिरा गाँधी का दमन (उसके न चाहते हुए भी) उसके विरोधियों को सम्माननीय बना रहा था, वर्तमान सरकार दमन के साथ–साथ एक साजिश के तहत उन्हें अपमान के योग्य “जनता के दुश्मन” के रूप में पेश कर रही है। उनको बदनाम करने की यह साजिश तब और गहरी हो जाती है जब राज्य की संस्थाएँ सरकार के इन विरोधियों पर “भ्रष्टाचार” और तरह–तरह के “गलत कामों” के आरोप मढ़ने लगती है –– इस सबका एक ही मकसद है जनता के बीच उनकी नैतिक साख को मिट्टी में मिला देना।

तीसरा फर्क है सरकार का मीडिया पर कब्जा। इमरजेंसी के दौर में अखबारों में खबर छपने से पहले उनकी जाँच की जाती थी, जिसके विरोध में अखबारों ने अपने पेज खाली छोड़ने शुरू कर दिये, जिसके चलते लोगों की नजर में उनकी साख दरअसल और बढ़ गयी। लेकिन आज, कुछ सम्मान के योग्य अपवादों को छोड़कर, जो शायद बहुत लम्बे समय तक ऐसे न रह पायें, पूरा का पूरा मीडिया हिन्दुत्व के खेमे में खड़ा है और विरोधियों की नैतिक साख को मटियामेट करने का काम मीडिया की मिलीभगत के कारण और भी आसान हो गया है।

मीडिया की इस बदली हुई भूमिका का सम्बन्ध तब और अब के बीच चैथे अन्तर से है–– मोदी सरकार पूरी तरह से निगमों के हितों के साथ खड़ी है जबकि इन्दिरा गाँधी के शासनकाल में निगमों के साथ न सिर्फ दूरी बनाकर रखी गयी बल्कि उसकी निगम विरोधी प्रगतिशील छवि गढ़ी गयी। दरअसल आजादी के बाद के भारत में कोई भी सरकार निगमों के इतनी करीब नहीं थी जितनी की मोदी सरकार है। प्रधानमंत्री पद की शपथ के लिए अडानी के हवाई जहाज में बैठकर दिल्ली आना इसका एक उदाहरण है। इसके बरक्स यह याद करने लायक उदाहरण है कि हिन्दुत्व ब्रिगेड की घृणा के पात्र जवाहर लाल नेहरू जब आर्थिक तंगी के चलते स्विट्जरलैण्ड के सेनीटोरियम में टीबी से मर रही अपनी पत्नी कमला नेहरू से मिलने नहीं जा पा रहे थे तो घनश्याम दास बिड़ला ने उन्हें आर्थिक सहायता देने की पेशकश की थी जिसे उन्होंने ठुकरा दिया और अपने खुद के प्रयासों से किसी तरह धन जुटाया।

अल्पसंख्यक विरोधी

पाँचवा फर्क है अल्पसंख्यकों, खासकर अभागे मुसलमानों के खिलाफ रवैया। इन्दिरा गाँधी के दमन का निशाना किसी खास नर–कुल या धर्म–सम्प्रदाय या जाति के लोग नहीं थे। वह सीधा और साफ दमन था जिसके निशाने पर उसके और उसके बेटे संजय गाँधी के विरोधी थे, जो अपने छल के लिए कुख्यात था। इसके अलावा उसके पास इतिहास के पुनर्लेखन की ऐसी कोई विराट परियोजना भी नहीं थी जिसमें एक खास धार्मिक समुदाय को बदनाम करने वाले कथानक गढ़े जायें और फिर राज्य सत्ता का इस्तेमाल करके उन्हें जबरन स्कूल के बच्चों तक के गले से नीचे उतारा जाये और इस तरह बचपन से ही एक अलग धर्म को मानने वाले अपने ही देशवासियों के खिलाफ नफरत के बीज बो दिये जायें।

छठा फर्क, अनिवार्यत: इसी परियोजना से जुड़ा हुआ है–– अतार्किकता को बढ़ावा देना, तार्किक बहस के ऊपर आस्था को तरजीह देना, साक्ष्यों और यहाँ तक कि दलीलों की आन्तरिक सुसंगति के प्रति हिकारत पैदा करना। ये लम्बे समय से संघ की कार्यप्रणाली को परिभाषित करने वाली विशेषताएँ रही हैं लेकिन अब ये आधिकारिक सरकारी विमर्श को अपनी चपेट में ले चुकी हैं, यहाँ तक कि भारतीय–विज्ञान कांग्रेस भी खुद को इस विमर्श के चंगुल से मुक्त करा पाने की स्थिति में नहीं रह गयी है।

सातवाँ अन्तर है, मोदी सरकार द्वारा संस्थाओं के विनाश की शुरुआत, जो खासकर, सरकारी विश्वविद्यालयों और सरकारी सहायता से चलने वाले शिक्षा के दूसरे केन्द्रों के बारे में सही है। ये सभी संस्थाएँ “इधर कुआँ तो उधर खाई” की स्थिति में फँसी हैं। अगर वे सरकार की बात मानकर अपने पाठ्यक्रम और तौर–तरीकों में बदलाव करती हैं तो वे बौद्धिक तौर पर मृतप्राय हो जायेंगी क्योंकि बौद्धिक उत्तरजीविता के लिए आलोचनात्मक विचारों की स्वतंत्रता अपरिहार्य होती है। लेकिन अगर वे स्वतंत्र और आलोचनात्मक चिन्तन को कायम रखने पर अड़ी रहती हैं, तो उन्हें सरकारी सहायता के लिए तरसाया जायेगा और जेएनयू की तरह उन पर “राष्ट्रविरोधी” उपद्रवी तत्वों को प्रश्रय देने के आरोप लगाये जायेंगे। यह हमारे दौर की विडम्बना है कि जेएनयू से लेकर हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय, पुणे फिल्म संस्थान, टाटा इंस्टीट्यूट आफ सोशल साइंसेज और टाटा इंस्टीट्यूट आफ फण्डामेण्टल रिसर्च तक, देश के कई बेहतरीन संस्थान आज साँस लेने के लिए हाथ–पैर मार रहे हैं। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ, पहले की किसी भी सरकार ने विचारशीलता को इतना तिरस्कृत नहीं किया।

दमन

मोदी सरकार और इमरजेंसी के दौर के बीच के फर्क का सार यह है कि इमरजेंसी समाज पर या व्यापक जनता पर राज्य द्वारा थोपी गयी एक तानाशाही थी, जिसका उस समय तक बहुत ज्यादा केन्द्रीकरण हो चुका था। इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह पूँजीवादी विकास के तर्क और राजनीति के लोकतान्त्रिक स्वरूप के बीच के अन्तरविरोध का नतीजा थी, लेकिन वह निगमों का प्रत्यक्ष शासन नहीं थी। लेकिन मोदी शासन के साल न सिर्फ एक बेहद केन्द्रीकृत हो चुके राज्य द्वारा समाज पर तानाशाही थोपने के गवाह हैं बल्कि, वे समाज के एक हिस्से को दूसरे के खिलाफ खड़ा करने और उनमें नफरत की आग भड़काने को पंथ बना डालने के भी गवाह हैं, जिनके पीछे छिपकर राज्य सीधे निगमों के हितसाधन में लगा रहता है। एक शब्द में कहें तो, यह तानाशाही और फासीवाद के बीच का फर्क है। दमन के आँकड़े, मसलन कितने लोगों को जेल में डाला गया, इमरजेंसी के वक्त बहुत बुरे थे लेकिन दमन की जो सम्भावना आज पैदा की जा रही है, वह पहले से कहीं ज्यादा व्यापक और गहरी है।

मोदी के शासन काल की ऊपर जो भी विशेषताएँ गिनायी गयी हैं, वे दरअसल फासीवाद की विशिष्टता हैं–– हिँसक भीड़, “राज्य सत्ता और निगमों का एकाकार” हो जाना (जिसे मुसोलिनी की फासीवाद की परिभाषा माना जाता है), असहाय अल्पसंख्यकों को निशाना बनाना, अतार्किकता को बढ़ावा देना, विश्वविद्यालयों का विनाश, इत्यादि। ऐसा कहने का कतई यह मतलब नहीं है कि इतिहास 1930 के दशक को फिर से दोहरायेगा। सत्ता में फासीवादी तत्व जरूर मौजूद हैं लेकिन राज्य अभी फासीवादी राज्य नहीं बना है और क्योंकि आज परिस्थितियाँ 1930 के दशक से बहुत अलग हैं, इसलिए ऐसा होने की सम्भावना नहीं लगती।

यह पक्की बात है कि 1930 के दशक की तरह फासीवाद की ओर खिसकने की मौजूदा प्रवृत्ति, जो केवल भारतीय नहीं बल्कि वैश्विक परिघटना है, पूँजीवाद के गहरे संकट का परिणाम है। इस तरह का संकट अपने साथ चन्द निगमों और वित्तीय पूँजीपतियों के कुलीनतंत्र के वर्चस्व के लिए खतरा लेकर आता है, जिसे बचाये रखने के लिए वे एक और सहारे की तलाश में रहते हैं जिसे व्यवस्था की खामियों पर से लोगों का ध्यान हटाने के लिए बलि का बकरा बनाया जा सके। यह “दूसरा” काल्पनिक खतरा कुछ अभागे अल्पसंख्यक होते हैं जिन्हें लोगों के गुस्से का निशाना बनाया जा सकता है। ऐसी स्थितियों में कारपोरेट पूँजी कुछ “श्रेष्ठतावादी” सीमान्त समूहों (अति आधुनिक समाजों में भी अल्पसंख्यकों के खिलाफ घृणा फैलाने वाले ऐसे समूह पाये जाते हैं) को चुनकर भारी वित्तीय समर्थन के बल पर उन्हें राजनीतिक पटल के केन्द्र में धकेल देती है, और इस तरह विख्यात पोलिश अर्थशास्त्री माइकल कलेकी के शब्दों में “नवोदित फासीवाद के साथ बड़े व्यवसाय की साझेदारी” अस्तित्व में आती है।

यही भारत में भी हुआ है। विश्व अर्थव्यवस्था में 2008 के बाद से लगातार ठहराव बना हुआ है जिसके चलते नवउदारवादी पूँजीवाद सम्भावनाहीन होता जा रहा है। मोदी का मौजूदा राजनीतिक महत्व इस बात में निहित है कि उसने बड़े व्यवसाय और हिन्दुत्ववादी भीड़ के बीच इस साझेदारी को प्रभावी बनाने में प्रमुख भूमिका निभायी है।

तथापि 1930 के दशक और आज के बीच एक बुनियादी फर्क है जो इस तथ्य में निहित है कि तत्कालीन पूँजीवादी देशों के कारपोरेट–वित्तीय कुलीनतंत्र राष्ट्र–आधारित थे और दूसरे देशों के वैसे ही कुलीनतंत्रों से उनका तीखा झगड़ा था। फासीवाद के साथ अनिवार्यत: जुड़ा हुआ सैन्यवाद का गुणगान ऐसी स्थिति में अपरिहार्यत: युद्ध की ओर ले जाता है।

इसके दो नतीजे हुए–– पहला, युद्ध की तैयारी के लिए सैनिक खर्चों में बढ़ोत्तरी, जिसके लिए मुख्यत: सरकार ने उधार लेकर वित्त का प्रबन्ध किया, जिसके चलते फासीवादी देश तेजी से महामन्दी और उससे जुड़ी आम बेरोजगारी के संकट से बाहर निकल गये (सबसे पहले जापान 1931 में बाहर निकला और उसके बाद 1933 में जर्मनी) इस तरह युद्ध की तबाही और महामन्दी से उबरने के बीच एक छोटा सा अन्तराल था जिस बीच फासीवादी सरकार दरअसल काफी ज्यादा लोकप्रिय हो गयी थी क्योंकि उसने बेरोजगारी पर विजय पा ली थी। दूसरा परिणाम था, युद्ध के जरिये फासीवाद द्वारा खुद को स्वाहा कर डालना। निस्सन्देह फासीवाद के इस विलोप की भारी कीमत चुकानी पड़ी, लेकिन इसका मतलब था–– फासीवाद का सफाया।

इसके बरक्स आज हमारे सामने ऐसे कोई कारपोरेट–वित्तीय कुलीनतंत्र मौजूद नहीं हैं, जिनके बीच तीखी प्रतिद्वंद्विता हो। वे सभी वैश्विक पूँजी के ढाँचे में फिट हो चुके हैं, जो नहीं चाहती है कि दुनिया युद्ध के जरिये अलग–अलग “आर्थिक इलाकों” में विभक्त हो जाये। इसके बजाय वह ऐसी दुनिया की हामी है, जो पूँजी के लिए, खासकर वित्तीय प्रवाह के लिए खुली हो। इससे युद्ध की सम्भावना खत्म हो गयी है, ऐसा नहीं है। लेकिन आज के युद्ध नेतृत्वकारी ताकतों द्वारा उन राज्यों के खिलाफ चलाये जा रहे हैं जो या तो वैश्विक वित्तीय पूँजी के वर्चस्व के दायरे से बाहर हैं या फिर उसको चुनौती दे रहे हैं।

इसी प्रकार, क्योंकि वित्तीय पूँजी वित्तीय घाटे को नापसन्द करती है और क्योंकि किसी भी राष्ट्र राज्य में वैश्विक वित्तीय पूँजी का दबदबा कायम रहना चाहिए (अन्यथा वह एक साथ देश से उड़नछू हो जायेगी और विकट वित्तीय संकट पैदा कर देगी) इसलिए सरकारी खर्च बढ़ाकर, यहाँ तक कि सैन्य खर्चों में बढ़ोत्तरी के जरिये भी, वित्तीय घाटे को पाटा नहीं जा सकता। न ही पूँजीपतियों पर टैक्स बढ़ाकर इसकी भरपाई की जा सकती है, क्योंकि स्पष्ट तौर पर वित्तीय पूँजी इसका विरोध करेगी। लेकिन केवल यही तरीके हैं जिनके जरिये रोजगार बढ़ाने वाले सरकारी खर्चों के लिए वित्त जुटाया जा सकता है (अगर मजदूरों पर टैक्स लगाकर वित्त जुटाया जाता है तो इससे मालों की सकल माँग में कोई बढ़ोत्तरी नहीं होगी क्योंकि मजदूरों की अधिकांश आय खाने–पीने पर ही खर्च हो जाती है)। इस तरह समकालीन फासीवाद नवउदारवादी पूँजीवाद द्वारा पैदा की गयी बेरोजगारी की समस्या का कोई समाधान प्रस्तुत कर पाने में असमर्थ है। और कारपोरेट पूँजी द्वारा वित्तपोषित होने के कारण यह नवउदारवादी पूँजीवाद को भी चुनौती नहीं दे सकता।

इसका मतलब है–– न तो वह मेहनतकश लोगों के जीवन की भौतिक परिस्थितियों को बेहतर बनाकर राजनीतिक वैधता हासिल कर सकता है, और न ही वह पुराने फासीवादी दौर की तरह युद्ध के जरिये खुद की अलग पहचान बना सकता है। न ही वह पूरी तरह से संसदीय चुनाव संस्था से किनारा कर सकता है, क्योंकि वे चुनाव ही हैं जिनके जरिये वैश्विक वित्तीय पूँजी के वर्चस्व को बेशकीमती वैधता हासिल होती है। (यह महत्वपूर्ण बात है कि आज लातिन अमरीका में सत्ता में आयी जिन प्रगतिशील सरकारों के खिलाफ हम तख्तापलट होते देख रहे हैं, वे वही हैं जिन्होंने नवउदारवादी नीतियों को छोड़ने का साहस दिखाया था। लेकिन ये तख्तापलट, संसदीय तख्तापलट हैं जिन्हें लोकतंत्र की रक्षा के नाम पर अंजाम दिया गया है। ये पहले के सीआईए प्रायोजित उन तख्तापलट जैसे नहीं हैं जिनके जरिये ईरान में मुसादेह या ग्वाटेमाला में अरबेंज या चिली में अलेन्दे को हटाया गया था।

यही वह सन्दर्भ है जिसके तहत एक बेहद क्षीण सम्भावना है कि चुनावी प्रक्रिया में अनुचित हस्तक्षेप और चर्चा के केन्द्र से भौतिक जीवन के मुद्दों को हटाकर कट्टर युद्ध–प्रिय राष्ट्रवाद को ले आने, जो मौके–ब–मौके होने वाले आतंकवादी हमलों के चलते सम्भव हो पाता है, (यहाँ आतंकवाद और राज्यसत्ता में मौजूद फासीवादी तत्वों के बीच के द्वंद्वात्मक रिश्ते को समझने की जरूरत है, जिनमें से हरेक, दरअसल, दूसरे को खुराक प्रदान करता है) के बावजूद मोदी सरकार लोकसभा चुनाव में हार सकती है। लेकिन उसके बाद जो भी सरकार बनेगी, अगर वह किसानों और समाज के दूसरे मेहनतकश तबकों को परेशानी से निकालने के लिए नवउदारवादी नीतियों से किनाराकशी नहीं करती, तो वह भी कुछ समय के बाद आम समर्थन खो देगी। परिणामस्वरूप अगले चुनाव में फिर से फासीवादी तत्व जीतकर सत्ता में आ जायेंगे।

समाज का फासीवादीकरण

इस तरह सरकार बनाने के मामले में दोलन जैसी स्थिति बनी रहेगी। फासीवादी तत्व कभी खत्म नहीं होंगे बल्कि इसके विपरीत इन दोलनों के जरिये वे समाज और राजनीति का उत्तरोत्तर फासावादीकरण करते जायेंगे। उदाहरण के लिए, जिस तरह भाजपा को हराकर मध्यप्रदेश की सत्ता सम्भालने वाली कांग्रेस पार्टी की सरकार उसका अनुसरण करते हुए हिन्दुत्व के आधार पर समर्थन जुटाने की कोशिश कर रही है, (और बाद में जिस तरह कांग्रेस को तोड़ कर वापस भाजपा सत्ता में आयी) वह इस परिघटना का एक उदाहरण है कि किस तरह सरकार बनाने की प्रक्रिया में होने वाले दोलनों के चलते धीरे–धीरे समाज का फासीवादीकरण हो रहा है।

संक्षेप में, समय के साथ उन फासीवादी तत्वों के दबाव के चलते हम समाज का फासीवादीकरण होते देख सकते हैं जो वास्तव में सत्ता में हों, या उसके बाहर हों, ताकतवर बने रहेंगे। यह फासीवादीकरण का एक ऐसा मामला होगा जिसमें समाज के ऊपर, दरअसल, 1930 के दशक के शास्त्रीय तरीके का कोई फासीवादी राज्य नहीं थोपा गया होगा, बल्कि यह एक तरह के ‘स्थायी फासीवाद’ का मामला होगा, जो तब तक कायम रहेगा जब तक कि फासीवाद को पैदा करने वाली परिस्थितियों का ही उन्मूलन न कर दिया जाये।

यह संयोग नवउदारवादी संकट का ही एक रूप है। भारत में इस फासीवादीकरण का प्रभावी ढंग से मुकाबला करने के लिए जरूरी है कि नवउदारवादी पूँजीवाद के वर्तमान शासनकाल के परे जाकर सोचा जाये जो एक अन्धी बन्द गली में फँस गया है और पूरी दुनिया को संकट में घसीट चुका है, जहाँ से बाहर निकलने का कोई रास्ता अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प तक को दिखायी नहीं दे रहा है–– व्यापार प्रतिबन्ध लगाने के सिवाय (जो नवउदारवाद के कुछ–कुछ नकार जैसा है)। मौजूदा नवउदारवादी पूँजीवादी व्यवस्था में किसी तरह की सेंध तभी लगायी जा सकती है जब मेहनतकश आबादी के जीवन की भौतिक दशाओं में फौरी सुधार के लिए कोई कार्ययोजना बनायी जाय।

यह सब कहने का कतई यह अर्थ नहीं है कि आने वाले लोकसभा चुनावों में हिन्दुत्ववादी ताकतों की हार सुनिश्चित करना और इसके लिए तमाम धर्म–निरपेक्ष ताकतों की एकता कायम करना किसी भी तरह से कम महत्वपूर्ण है। लेकिन जबकि यह हमारे समाज और राजनीति के फासीवादीकरण को रोकने की दिशा में उठाया गया पहला कदम है, इसको पूरी तरह से रोकने के लिए इससे कहीं ज्यादा की दरकरार होगी। सर्वोपरि, इसके लिए एक ऐसे कार्यक्रम की जरूरत होगी जो नवउदारवादी पूँजीवाद के सताये लोगों को राहत प्रदान कर सके। जब ऐसी राहत दी जायेगी (और इसके बाद उसको कायम रखने के लिए समुचित कदम उठाये जायेंगे) केवल तभी हम मोदी शासन की फासीवादी विरासत को परास्त कर सकेंगे।   

(साभार–– फ्रण्टलाईन, 12 अप्रैल 1919)

अनुवाद–– ज्ञानेन्द्र सिंह