एक उत्कृष्ट जनपक्षधर, अन्तरराष्ट्रीय बुद्धिजीवी एजाज अहमद का 9 मार्च को इरविन, कैलिफोर्निया में निधन हो गया। उन्होंने न केवल समकालीन दुनिया की विभिन्न घटनाओं का मार्क्सवादी दृष्टिकोण से विश्लेषण किया, बल्कि मार्क्सवाद पर किये जानेवाले हमले और घुसपैठ से मार्क्सवादी सिद्धान्त का बचाव किया, खास तौर पर ऐसे लोगों से जो मार्क्सवादी होने का दावा करते थे लेकिन खुद ही इन प्रवृत्तियों के शिकार थे। अपनी क्लासिकीय रचना–– इन थ्योरी : क्लासेज, नेशंस, लिटरेचर्स में उन्होंने उत्तर–संरचनावाद और उत्तर–मार्क्सवाद जैसी प्रवृतियों की आलोचना प्रस्तुत की, जो उस समय पश्चिमी अकादमिक जगत में मार्क्सवाद की कीमत पर और वास्तव में किसी भी व्यवहारिक कार्य की कीमत पर तेजी से फैशन बनती जा रही थी। यह तथ्य कि लिंग, नस्ल, साम्राज्यवाद और पर्यावरण जैसे कई मुद्दों पर जो आज लोगों को उत्तेजित करने वाले हैं, उन पर मार्क्स ने बहुत कम लिखा था, जिसने मार्क्सवाद विरोधियों के इस प्रयास को सुविधाजनक बनाया।

हालाँकि उत्तर–संरचनावाद और उत्तर–मार्क्सवाद के खिलाफ होते हुए भी, एजाज मूल रूप से मार्क्सवाद की अपूर्णता से अच्छी तरह वाकिफ थे, जहाँ तक पहुँचा कर इसके मार्गदर्शकों ने इसे छोड़ा था, लेकिन साथ ही उन्होंने क्रान्तिकारी व्यवहार की केन्द्रीयता पर भी जोर दिया था जिसे इसके मार्गदर्शकों ने रेखांकित किया था। क्रान्तिकारी कार्रवाई को केन्द्रीय महत्त्व देने के मामले में ही मार्क्सवाद बाकी सभी प्रवृत्तियों से अलग रहा है। इसी तरह, एजाज ने असली मार्क्सवादी अवधारणाओं की शक्ति पर प्रकाश डाला, जबकि मार्क्सवाद को अधिक “पूर्ण” या अधिक “यथार्थवादी” बनाने के नाम पर उसमें विजातीय अवधारणाओं का घालमेल करने, उसे हल्का करने या बदलने के सभी प्रयासों को खारिज कर दिया।

हालाँकि, उल्लेखनीय यह है कि मार्क्सवाद को कायम रखने में, एजाज आर्थिक निर्धारकों पर अति–निर्भरता की ओर नहीं फिसले, जो कि मार्क्सवाद का बचाव करने वाले ऐसे सभी प्रयासों से अलग और खास है। यह वास्तव में काफी स्वाभाविक रहा होगा क्योंकि फ्रांसीसी दार्शनिक लुई अल्थूसर ने जिस संरचनावादी मार्क्सवाद का बीड़ा उठाया था, जो इन वैकल्पिक प्रवृत्तियों वाले कई लोगों के लिए शुरुआती कदम था, उसने मार्क्सवाद के केन्द्र–बिन्दु से आर्थिक निर्धारक को हटा दिया था। (एंगेल्स की इस टिप्पणी के सन्दर्भ में कि “आर्थिक” निर्धारक “अन्तिम रूप से” निर्धारक होता है, अल्थूसर ने कहा था कि “पहले से अन्तिम तक, अन्तिम रूप का यह एकाकीपन कभी नहीं आता”)।

इसके अलावा, आर्थिक निर्धारक के विचार में कुछ भी गलत नहीं हैय इसके विपरीत, यह मार्क्सवाद द्वारा विमर्श में किये गये परिवर्तन का सार है, और इसके अभाव में चलनेवाले सामाजिक और राजनीतिक विश्लेषण के अनुत्पादक ठहराव को तोड़ता है। मार्क्सवादी नेता बी– टी– रणदिवे की जानबूझकर उत्तेजक, जानबूझकर अतिरंजित टिप्पणी मुझे याद है जिसमें उन्होंने आँखों में एक चमक के साथ (हालाँकि उसमें सच्चाई का एक मजबूत आधार भी था) कहा कि “अगर इब्राहिम–रहीमतुल्लाह का व्यापारी घराना महामन्दी के दौरान ध्वस्त नहीं हुआ होता, तो भारत का विभाजन टाला जा सकता थाष्य यह टिप्पणी, हालाँकि पहली नजर में “न्यूनीकरणवादी” प्रतीत होती है, लेकिन विभाजन पर चर्चा के लिए एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है जो आमतौर पर उदारवादी प्रवचन में पूरी तरह से गायब होती है (जैसे बड़े पूँजीपति वर्ग की एक बड़े, एकीकृत बाजार की लालसाय आजादी से पहले के बड़े पूँजीपतियों के बीच किसी मुस्लिम प्रतिनिधि की अनुपस्थिति, जो देश के एकमात्र बड़े मुस्लिम स्वामित्व वाले घराने के पतन के कारण हुआ थाय इत्यादि)।

चर्चाओं में ऐतिहासिक गहराई

हालाँकि, पश्चिम के विपरीत, भारत में मार्क्सवादी विमर्श पर, कम से कम हाल–फिलहाल, अर्थशास्त्रियों और आर्थिक इतिहासकारों का प्रभुत्व था। एजाज ने राजनीतिक अर्थव्यवस्था के बारे में पूरी जानकारी होने के बावजूद उनमें सुधार किया। उन्होंने ऐसा आर्थिक निर्धारकों के महत्त्व पर विवाद करके नहीं, बल्कि अलग–अलग मुद्दों पर अपना विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए शायद ही कभी उनके चक्कर में पड़े बिना ऐसा किया। इसके बजाय, उन्होंने जो चीज अपनी चर्चा में लायी वह थी एक ऐतिहासिक गहराई–– केवल व्यापक रूप से समान दिखने वाली घटनाओं को एक साथ समेटने के बजाय उनके बीच भेद किये जाने पर जोरय और प्रत्येक घटना की जटिल ऐतिहासिक जड़ों तक जाना। मार्क्सवाद के प्रति इसी दृष्टिकोण के चलते, यानी आसानी से उपलब्ध आर्थिक निर्धारकों पर वापस आने की अनिच्छा, और प्रत्येक घटना की ऐतिहासिक जड़ों को श्रमसाध्य रूप से खोलने कि वजह से, एजाज ने मार्क्सवाद के अनोखे चरित्र का सृजन किया। इसी अर्थ में वे वास्तव में मौलिक मार्क्सवादी विचारक थे।

निस्सन्देह इस विशेषता के अच्छे के साथ–साथ बुरे पक्ष भी थे। इसने छात्रों के नये युवा दिमागों को पसन्द आयी, जो मार्क्सवाद के नाम पर अर्थशास्त्र की पढ़ाई से खीझे हुए थे, सभी बौद्धिक उत्तेजनाओं से वंचित थे क्योंकि मार्क्सवाद को दर्शन, साहित्य, संस्कृति और सौन्दर्यशास्त्र जैसे दूसरे क्षेत्रों में लागू करने का वादा किया गया था, और एजाज जिन विजातीय प्रवृत्तियों के खिलाफ लड़ रहे थे, वे वास्तव में इन युवा दिमागों में घुसा दिये गये थे। मार्क्सवाद को अर्थशास्त्र के प्रमुख दायरे से बाहर निकालकर, एजाज के काम ने इसे एक बार फिर युवाओं के लिए रोमांचक बना दिया। दूसरी ओर, हालाँकि, इसमें भेदभाव करने की अपनी प्रवृत्ति से उत्पन्न होने वाली एक भयावहता थी जो समान सामाजिक और राजनीतिक घटनाओं (एक जैसी आर्थिक जड़ें होने के अर्थ में समान) को व्यवहार में लाने के लिए व्यापक वर्गीकरण को रोकती थीय विस्तार में जाने पर एक जैसी परिघटनाओं को एक साथ मिलाकर जाँचने–परखने में बाधक बनने की प्रवृत्ति थी।

भारत में फासीवाद की ओर मुड़ने के बारे में

एजाज के मार्क्सवाद का यह अनोखा चरित्र, यानी कॉमिन्टर्न से प्रेरित न होने के बावजूद कम्युनिस्ट होना है, जो इसके प्रति लगाव की ताजगी का एक महत्त्वपूर्ण कारण है, यह भी उनके बौद्धिक बनावट का एक उत्पाद था। उदाहरण के लिए, हिन्दुत्व पर उनके लेखन और भारत में फासीवादी उभर पर विचार करें। इस मुद्दे पर उनके लेखन के पूरे संग्रह में, प्रसिद्ध कम्युनिस्ट नेता जॉर्जी दिमित्रोव का शायद ही कोई उल्लेख है, जो राखस्टाग अग्नि काण्ड में मुख्य आरोपी थे, तथा बाद में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के अध्यक्ष बने और कॉमिन्टर्न की सातवीं कांग्रेस में फासीवाद के बारे में बुनियादी कम्युनिस्ट सिद्धान्त को विकसित किया। कोई भी पारम्परिक कम्युनिस्ट, या उस शैली से सम्बन्धित मार्क्सवादी, अपने विश्लेषण में दिमित्रोव का सहारा लेता कि क्या भारत फासीवादी दिशा में जा रहा है, लेकिन एजाज ने ऐसा नहीं किया। उनका विश्लेषण समृद्ध है, चाहे कोई इससे सहमत हो या नहीं, लेकिन पारम्परिक कॉमिन्टर्न–प्रेरित मार्क्सवाद के चैखटे तक ही सीमित नहीं है। यही कारण है कि यह बहुत ही ताजगी भरा है और रहस्यमय नहीं है, और आज के छात्रों और युवा पाठकों को अपील करता है। यह एक ऐसे दिमाग की उपज है जो अनिवार्य रूप से पश्चिम में प्रशिक्षित है, पश्चिमी बौद्धिक परम्परा में डूबा हुआ है, और इसलिए कॉमिन्टर्न मार्क्सवाद के कई उबाऊ लक्षणों से मुक्त है, लेकिन फिर भी साम्यवाद के प्रति वफादार है।

पश्चिम में कई नये वामपंथियों के विपरीत, एजाज पारम्परिक कम्युनिस्ट पार्टियों पर अपनी नाक–भौं नहीं सिकोड़ते थेय इसके विपरीत, वे किसी भी अर्थपूर्ण व्यवहारिक कार्रवाई को आगे बढ़ाने के लिए परम्परागत वामपंथियों के साथ मिलकर काम करने में दृढ़ विश्वास रखते थे, जो उनके अनुसार मार्क्सवाद का सार था।

वे कुर्सीतोड़ या अकादमिक मार्क्सवादी होने से बहुत दूर थे। इस मायने में वे बहुत ही भारतीय थे–– भारत दुनिया के उन कुछ देशों में से एक है जहाँ युवा लोग अभी भी पारम्परिक वामपंथ की ओर आकर्षित हैंय पाकिस्तान में जहाँ एजाज का परिवार विभाजन के बाद पलायन कर गया था, आजादी के तुरन्त बाद कम्युनिस्टों को दबा दिया गया था, जिसके चलते कम्युनिस्ट अवधारणाएँ, विमर्श और इतिहास काफी पहले हाशिये पर चले गये, तथा एजाज जैसे युवा और आमूल–परिवर्तनवादी दिमाग वाले छात्रों को उस विरासत तक पहुँचने से रोक दिया गया। लेकिन उस विरासत के प्रति सैद्धान्तिक जानकारी की वजह से एजाज के भीतर लगाव पैदा हुआ और उनके साथ हमेशा बनी रही, जिसे वे भारत वापस आने और 1980 के दशक के अन्त में इस देश को अपना घर बनाने के बाद ही पूरा कर सकते थे।

‘घर वापसी’

उनकी ‘घर वापसी’ एक और कारण से महत्त्वपूर्ण थी। प्रगतिशील लेखक संघ के प्रारम्भिक दिनों से ही देश में साहित्यिक सिद्धान्त, संस्कृति और सौन्दर्यशास्त्र पर चर्चा की जीवन्तता काफी कम हो गयी थी। निस्सन्देह, बंगाल, केरल, तमिलनाडु और महाराष्ट्र ऐसे क्षेत्र थे जहाँ इस तरह की चर्चा जारी थी, लेकिन उत्तर भारत के अधिकांश हिस्से में इसका नुकसान हुआ था। यह चर्चा प्रगतिशील, विशेष रूप से कम्युनिस्ट आन्दोलन से प्रेरित थी, और उस आन्दोलन के कमजोर होने से सुस्त पड़ गयी थी, जिसके पीछे शुरू में “सामाजिक न्याय” आन्दोलन और बाद में साम्प्रदायिक फासीवादी हमला एक प्रमुख कारक था। एजाज के आने से यह चर्चा फिर से जीवन्त हो गयीय सुधी श्रोता अब एक बार फिर से वास्तव में जानकार व्यक्ति की ओर मुखातिब हो सकते थे और उन मुद्दों पर फिर से चर्चा कर सकते थे जिन्हें काफी समय से भुला दिया गया था। एक वक्ता के रूप में उनकी काफी माँग थी। जिस स्पष्टता के साथ उन्होंने जटिल समस्याओं के बारे में अपनी अन्तर्दृष्टि प्रस्तुत की, उसे हर जगह दर्शकों ने खूब सराहा।

जैसा कि अनगिनत मुस्लिम प्रवासियों के मामले में हुआ, विभाजन ने एजाज के जीवन में एक प्रमुख भूमिका निभायी। उत्तर प्रदेश में अपने पुश्तैनी गाँव से कम उम्र में उजड़ गये और ऐसे माहौल में पले–बढ़े जो एक जवान लड़के को बिलकुल अजीब लगा होगा और वे पाकिस्तान में अपनी प्रारम्भिक शिक्षा के बाद एक बार फिर विदेश चले गये। उन्होंने संयुक्त राज्य अमरीका और कनाडा के कई विश्वविद्यालयों में अध्यापन करते हुए एक खानाबदोश जीवन बिताया, लेकिन किसी एक स्थान पर बसने में असमर्थ रहे। मेरे एक अमरीकी मित्र, जो एक जाने–माने मार्क्सवादी अर्थशास्त्री हैं, वे याद करते हैं कि एजाज से नियमित रूप से एक निश्चित अवधि में न्यूयॉर्क के एक पार्क में मुलाकात होती थी, जहाँ एजाज अपने बच्चे को पार्क में लेकर आया करते थेय वे उस समय बच्चे की देखभाल कर रहे होते थे, जब उनकी पत्नी काम पर गयी होती थी। मेरे अर्थशास्त्री मित्र भी बिलकुल इसी तरह के मिशन पर थे। औरत–मर्द के पारम्परिक काम के बँटवारे से बिलकुल उलटा था जहाँ पति बच्चे की देखभाल करे, जबकि पत्नी काम पर जाये, यह न केवल वैवाहिक जीवन में काम के निष्पक्ष विभाजन के प्रति एजाज की प्रतिबद्धता को प्रमाणित करती है, बल्कि अपने स्वयं के कैरियर के प्रति कुछ हद तक अपरम्परागत दृष्टिकोण के अनुसार भी, उनका कुछ हद तक नौकरी “पकड़ने” (और प्रिय जीवन के लिए उस पर टिके रहने) के प्रति उदासीन रवैया था।

जब एजाज भारत लौटे तभी उनको एक ऐसी जगह मिली, जिसे वे घर कह सकते थेय तथ्य यह है कि उन्होंने अपने जीवन का सबसे लम्बा हिस्सा, दो दशकों से भी अधिक समय इस देश में बिताया, उस अपनेपन की भावना को बताता है जिसे उन्होंने यहाँ अनुभव किया होगा। वह नेहरू मेमोरियल संग्रहालय और पुस्तकालय के फेलो और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज में विजिटिंग प्रोफेसर बनेय बाद में उन्होंने जामिया मिलिया इस्लामिया में खान अब्दुल गफ्फार खान पीठ पर नियुक्त हुए। उन्होंने भारतीय इतिहास कांग्रेस के सत्रों में भाग लिया, द मार्क्सिस्ट और सोशल साइंटिस्ट जैसी वामपंथी पत्रिकाओं के लिए लिखा और फ्रंटलाइन में अक्सर उनकी रचनाएँ प्रकाशित हुर्इं। उन्होंने सफदर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट (सहमत) द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में नियमित रूप से भाग लिया। उनकी रचनाएँ तुलिका बुक्स से प्रकाशित हुर्इं और एक नये प्रकाशन, लेफ्टवर्ड बुक्स से भी जुड़े।

लेकिन वे यहाँ भी नहीं बस सके, इस बार किसी आन्तरिक बेचैनी के कारण नहीं, बल्कि नौकरशाही की झंझटों के कारण। भले ही इस समय तक उन्होंने अपनी पाकिस्तानी नागरिकता छोड़ दी थी, लेकिन केवल यह तथ्य कि एक समय वह एक पाकिस्तानी नागरिक थे, भारत सरकार की नजर में उन्हें जीवन भर निशाना साधने के लिए पर्याप्त था। इस वजह से न केवल उन्हें भारतीय नागरिकता नहीं मिल पायी, बल्कि बार–बार वीजा नवीनीकरण की माँगों के कारण भारत में उनके प्रवास में विराम लग गया। फिर भी जब तक नरेंद्र मोदी सरकार सत्ता में नहीं आयी, तब तक उन्होंने समस्या का मुकाबला कुशलता से किया, जिसके ठीक बाद उन्होंने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, इरविन से तुलनात्मक साहित्य के अध्यक्ष पद का निमंत्रण स्वीकार करने का फैसला किया, जिस पर पहले फ्रांसीसी दार्शनिक जाक देरीदा विराजमान थे। एजाज के लिए देश छोड़ना एक दुखद क्षण था लेकिन आखिरकार उन्होंने ऐसी जगह बसने का इरादा किया जिसे वे अपना कह सकें और कैलिफोर्निया के एकान्त वातावरण में जाने का फैसला किया, और वह भी जीवन के ऐसे समय में जब कोई यात्रा का आनन्द नहीं लेना चाहता हैय लेकिन विभाजन की विरासत ऐसी थी कि इसमें कोई मदद मिलाने वाली नहीं थी।

यह आखिरी बार था जब वे भारत आये थेय वे फिर कभी वापस नहीं आये। एजाज एक अद्वितीय व्यक्तित्व, साम्यवाद और “पश्चिमी मार्क्सवाद” (एक प्रमुख प्रभाव के रूप में ग्राम्शी के साथ) का एक उल्लेखनीय मिश्रण थे, पश्चिमी उत्तर प्रदेश की संस्कृति और मार्क्सवादी अक्खड़पन, जो मूर्खों को आसानी से नहीं झेल पाता, काम की खातिर लम्बे समय तक अकेलेपन को स्वीकार करने के लिए इच्छुक क्रान्तिकारी बुद्धिजीवी की तपस्या के साथ–साथ स्वादिष्ट भोजन और पुरानी हिन्दुस्तानी फिल्मों से प्यार। उनका जाना, देश के राजनीतिक और बौद्धिक जीवन में एक अपूरणीय शून्य छोड़ गयाय उनके कई दोस्तों के लिए, जिनमें खुशाकिस्मती से मैं खुद भी शामिल हूँ, यह एक त्रासद नुकसान है।