उपनिवेशवाद–विरोधी राष्ट्रवाद के विपरीत हिन्दुत्व “राष्ट्रवाद” अर्थशास्त्र को नहीं समझता है। वजह साफ है। उपनिवेशवाद विरोधी राष्ट्रवाद के केन्द्र में औपनिवेशिक शोषण की समझ थी। यही कारण है कि यह सभी पिछले शासकों और औपनिवेशिक शासकों के बीच अन्तर को समझता था–– पिछले शासकों ने किसानों से आर्थिक अधिशेष वसूल किया था और इसे देश के भीतर ही खर्च किया, जिससे रोजगार पैदा हुआय उपनिवेशवाद ने किसानों से अधिशेष को निचोड़ा और इसे विदेशों में भेज दिया जिसने घरेलू रोजगार को तबाह कर दिया। मुगलों और अंग्रेजों को बराबरी पर लाकर हिन्दुत्व इस बुनियादी फर्क को मिटा देता है, क्योंकि यह अर्थशास्त्र को समझ नहीं पाता है।

विमर्श में बदलाव

यह विडम्बना ही इसकी खाशियत रही है। जिस दौर में नव–उदारवादी पूँजीवाद की हवा निकाल रही है, कॉर्पोरेट–वित्तीय कुलीन वर्ग एक नया वैचारिक अवलम्ब चाहता है, जो पहले इस्तेमाल किये गये विचारों से अलग हो, यानी ऊँचे जीडीपी विकास दर का वादा और इससे सबका फायदा होने की सम्भावना। जब विकास मन्द हो जाता है तो यह पर्याप्त नहीं होता। सरकारी नीतियों को इस कुलीनतंत्र के पक्ष में लगा देना और फिर भी नीचे से किसी भी विद्रोह को रोकने के लिए एक विमर्श में बदलाव की जरूरत होती है, जो हिन्दुत्व मुहैया करता है। यह कॉर्पोरेट–हिन्दुत्व गठबंधन बनाने का आधार है जो वर्तमान में देश पर शासन कर रहा है।

यदि हिन्दुत्व अधिक अर्थशास्त्र–प्रेमी होता और आर्थिक संकट से उबरने के लिए आर्थिक शासन को ठोक–पीत के दुरुस्त करने का प्रयास करता, जो कि नव–उदारवाद के विरोधाभासों के कारण अनिवार्य रूप से उत्पन्न हुए संकट को दूर करने में सहायक होता (हालाँकि यह नोत्बन्दी और वस्तु एवं सेवा कर, या जीएसटी जैसी भारी भूल के चलते बिगड़ गया), तो कॉरपोरेट्स के लिए इसकी उपयोगिता सीमित होती। यह गठबंधन टूट गया होता। लेकिन आर्थिक मामलों में हिन्दुत्व की अज्ञानता ने इसे कॉरपोरेट्स के साथ अच्छे आसन पर बिठा दिया हैय और गठबंधन जारी है।

विमर्श में यह बदलाव उपनिवेशवाद–विरोधी संघर्ष से वशीयत में हासिल हुई है, जहाँ जनता को राहत देने का वादे के मामले में राजनीतिक संरचनाओं ने एक–दूसरे के साथ जो होड़ किया, यह एक ऐसे अति–राष्ट्रवाद की वशीयत है, जिसका उपनिवेश–विरोधी राष्ट्रवाद से कोई लेना–देना नहीं है और बहुत हद तक लोगों के जीवन की माली हालत को दरकिनार कर देता है। उलटे यह एक यूरोपीय अति–राष्ट्रवाद की ओर वापस आ गया है जो दो विश्वयुद्धों के बीच के वर्षों के दौरान अपनी चरम परिणति तक पहुँच गया था।

राजनीतिक प्रभाव

यह बदला हुआ विचार भारतीय राजनीति में अभूतपूर्व है जिसके कारण विपक्ष इतना अपाहिज हो गया है। पुराने विमर्श के प्रति वचनबद्ध वामपंथी दंग रह गयेय सिर्फ अब जाके उनमें कुछ हलचल की शुरुआत हुई है। कांग्रेस अभी अपना मन नहीं बना पा रहा है कि क्या पुराने विमर्श से चिपके रहना है, या नहीं चाहते हुए भी, हिन्दुत्व अति–राष्ट्रवाद के नये विमर्श का अनुसरण करना है।

हाल के लोकसभा चुनावों के दौरान विमर्श में इस बदलाव का महत्त्व स्पष्ट रूप से प्रकट हुआ। भारतीय जनता पार्टी की जमीन पहले ही खिसक चुकी थीय और सत्ता में उसकी निरंतरता को एक शक्तिशाली किसान आन्दोलन चुनौती दे रहा था। लेकिन पुलवामा और बालाकोट हमले ने अति–राष्ट्रवादी विचारों को मजबूत करते हुए इसे एक नया जीवन–दान दिया। जिन किसानों ने चुनाव के कुछ दिन पहले ही दिल्ली में सरकार के खिलाफ मार्च किया था, उन्होंने दुबारा सत्ता में लाने के लिए मतदान किया।

कॉर्पोरेट–वित्तीय कुलीन वर्गों के लिए इस विमर्श की उपयोगिता हाल के घटनाक्रमों से स्पष्ट है। आर्टिकल 370 और 35–ए के कमजोर किये जाने की आड़ में, जो जम्मू–कश्मीर का जबरन संयोजन के समान है और जो हिन्दुत्व के अति–राष्ट्रवाद के लिए र्इंधन की तरह है, सरकार ने अर्थव्यवस्था के संकट को दूर करने के नाम पर 1–45 लाख करोड़ की कॉर्पोरेट कर रियायतें पेश की हैं। आम तौर पर कॉरपोरेट पॉकेट्स के लिए सार्वजनिक धन के इस मुफ्त हस्तांतरण के विरोध की सारी उम्मीद, कश्मीर में “विजय” का जश्न मनाते हुए अति–राष्ट्रवाद के शोर–शराबे में डूब गयी।

                यह तथ्य कि टैक्स में इस छूट का अर्थव्यवस्था में गतिविधि के स्तर पर और इसलिए रोजगार और उत्पादन पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा, हालाँकि बिलकुल स्पष्ट है, लेकिन शायद ही इसे व्यक्त किया गया है। चूँकि टैक्स में छूट की भरपाई एक बड़े राजकोषीय घाटे से नहीं की जायेगी, क्योंकि यह वैश्वीकृत वित्त पूँजी को दूर भगा देगा, जिस के लिए सरकार इच्छुक नहीं है, इसलिए इसे मेहनतकश लोगों से संसाधन निचोड़ कर पूरा किया जायेगा।

                इसका कारण यह है कि अपनी आय का उपभोग करने की प्रवृत्ति मेहनतकश लोगों में उन कॉर्पोरेट लोगों की तुलना में अधिक है जो उनकी अतिरिक्त आय का एक हिस्सा बाँटने के बजाय मुनाफे के रूप में अपने पास रख लेते हैंय यहाँ तक कि ऐसी अतिरिक्त आय से वितरित लाभांश का उपभोग करने की प्रवृत्ति भी कम है। और चूँकि कॉर्पोरेट द्वारा पूँजी निवेश बाजार के आकार में अपेक्षित वृद्धि पर निर्भर करता है, जिसमें वर्तमान कर–पश्चात मुनाफे में वृद्धि से रत्ती भर भी बदलाव नहीं होता है, इसलिए इस तरह की टैक्स छूट के चलते ऐसा कोई अतिरिक्त निवेश नहीं होगा। इसलिए कुल मिलाकर माँग में गिरावट आएगी, जिससे संकट और बदतर होगा। इतना ही नहीं, कुल माँग में इस तरह की गिरावट के साथ, अगली अवधि में निवेश में गिरावट होगी, जो अर्थव्यवस्था को चक्करदार ढलान की ओर ले जायेगी।

आय का बँटवारा

यह संकट खुद ही आय असमानता में भारी वृद्धि के कारण उत्पन्न हुआ है, जो नव–उदारवादी पूँजीवाद ने भारत में ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व में फैलाया है। इसने मेहनतकश लोगों, जैसे–– किसानों, श्रमिकों, कारीगरों, कारीगरों और मछुआरों की आय को कॉर्पोरेट–वित्तीय कुलीन वर्ग की ओर स्थानांतरित कर दिया है। इस बदलाव के चलते होने वाली माँग में कमी के प्रभावों को लम्बे समय से आकस्मिक कारकों के एक समुच्चय के जरिये छिपाया गया, मुख्य रूप से परिसम्पत्ति मूल्य के बुलबुले, भारत में भी और वैश्विक स्तर पर भी। लेकिन इस तरह के कारकों का अन्त होने के साथ ही संकट सतह पर आ गया। नव–उदारवादी पूँजीवाद की संरचनात्मक दुर्बलता से उत्पन्न इस समस्या को नरेंद्र मोदी की नोटबन्दी और जीएसटी ने सिर्फ और अधिक बढ़ाने का काम किया है। और अब संकट के समाधान के नाम पर सरकार मेहनतकश लोगों की आय को पहले से भी ज्यादा कॉर्पोरेटस की ओर स्थानांतरित कर रही है, जबकि यह कार्रवाई पहले ही संकट का कारण रही है।

लेकिन जब तक सरकार हिन्दुत्व के अति–राष्ट्रवादी विमर्श को जीवित रखने में सफल होती है, तब तक वह अपनी आर्थिक गलतियों से ध्यान हटाने का इंतजाम करती रह सकती है। असली सवाल यह है कि यह अपने अति–राष्ट्रवादी विमर्श की तिजारत करने में कैसे सफल हुई?

हालाँकि इसके कई कारण हैं, लेकिन लोगों के मन में भय और असुरक्षा के उपदेश की व्याप्तता को कम करके नहीं आँकना चाहिए। सरकार की कोई भी आलोचना, या किसी तर्क के दूसरे पहलू को किसी भी तरह सामने लाना, “राष्ट्रद्रोह”, राष्ट्रविरोधी और “टुकडे़–टुकडे़” गिरोह से जुड़े होने के आरोपों का कारण बन जाता है, जिसमें न्यायपालिका से थोड़ी भी राहत की उम्मीद नहीं, जो कार्यपालिका का अनुसरण करती हैय राजनीतिक विरोधियों को प्रवर्तन निदेशालय और केन्द्रीय जाँच ब्यूरो द्वारा कथित वित्तीय गड़बड़ियों के लिए धमकी दी जाती हैय और उसके बाद “ट्रोल्स” और हुड़दंगियों की फौज होती है, जिसे किसी के भी खिलाफ छोड़ा जा सकती है, आम तौर पर पुलिस मुँह फेरकर खड़ी रहती है। इस सन्दर्भ में और हिन्दुत्व अति–राष्ट्रवाद की परियोजना के आगे मीडिया का लगभग पूरी तरह से आत्मसमर्पण को देखते हुए, इस तस्वीर का केवल एक पक्ष प्रस्तुत किया जाता हैय आश्चर्य की बात नहीं कि इसी पक्ष को कई लोगों द्वारा सच मान लिया जाता है।

एक छद्मावरण

कुल माँग में कमी के कारण उत्पन्न संकट के बीच एक कॉर्पोरेट समर्थक और मेहनतकश विरोधी आय वितरण रणनीति अपनाना उत्पादकता के विरुद्ध है, यह समय के साथ स्पष्ट होता जायेगाय लेकिन यह सिर्फ हिन्दुत्व की अति–राष्ट्रवादी परियोजना को ही चरम सीमा तक ले जायेगा। इरादा यही है कि जनता को “सदमा और भय” की गिरफ्त में रखा जाय ताकि अर्थव्यवस्था से ध्यान भटकाने और सरकार की आर्थिक विफलताओं को क्षद्मावरण में छुपाने का काम आसानी से होता रहे।

 हालाँकि इसमें देश के लिए दोहरा खतरा है। हिन्दुत्व के अति–राष्ट्रवाद के “सदमा और भय” की वृहद् परियोजना, जैसे “एक देश–एक भाषा”, या पूरे देश के लिए नागरिकों का एक राष्ट्रीय रजिस्टर, या नागरिकता संशोधन विधेयक, एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक समाज और राजनीति के रूप मेंय खुद हमारे अस्तित्व के लिए ही खतरा पैदा करते हैं। साथ ही, कॉर्पोरेट समर्थक और मेहनतकाश विरोधी आर्थिक नीतियों से अर्थव्यवस्था का संकट भी और अधिक गहरा जायेगा। चूँकि ऐसी आर्थिक नीतियाँ “सदमा और भय” परियोजनाओं को उकसावा देती हैं, इसलिए देश एक दुश्चक्र में फँस गया है जो धारा को पलटे जाने तक जारी रहेगा।

(प्रभात पटनायक आर्थिक अध्ययन और योजना केन्द्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नयी दिल्ली के मानद प्रोफेसर हैं। यह लेख ‘द हिन्दू’ से आभार सहित लेकर अनूदित किया गया है।)