हवा में जहर कौन घोल रहा है ?
पर्यावरण समर्थप्रदूषण में अव्वल और हमेशा सुर्खियों में रहने वाली राजधानी दिल्ली, हर साल की तरह इस साल भी दुनियाभर में सबसे प्रदूषित शहर बनी रही। यह खुलासा हाल में प्रकाशित ‘स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर रिपोर्ट’ में किया गया है। इसके साथ कलकत्ता दूसरे और मुम्बई चैदहवे स्थान पर हैं।
जनवरी 2023 की शुरुआत में राजधानी में ‘औसत वायु गुणवत्ता सूचकांक’ (एक्यूआई) साढ़े सात सौ के पार चला गया, जो सेहत के लिए जानलेवा है। दिल्ली–एनसीआर में भी कमोवश यही हाल था, जो निर्धारित साठ की सीमा से काफी ज्यादा है। एक्यूआई के जरिये 2–5 माइक्रोन से बारीक धुएँ के कणों को मापा जाता है जो सीधे फेफड़े से होते हुए दिल के जरिये खून में मिल सकते हैं और साँस सम्बन्धी कई बीमारियों को जन्म दे सकते हैं। ऐसी हवा के सम्पर्क में आते ही आँखों में जलन और साँस लेने में भारीपन लगने लगता है।
चिन्ता की बात यह है कि वायु प्रदूषण की समस्या अब कुछ एक शहर में न होकर देशव्यापी रूप लेती जा रही है। बिहार, मध्य प्रदेश से लेकर कर्नाटक के शहर भी गम्भीर वायु प्रदूषण के संकट से गुजर रहे हैं। 27 दिसम्बर को हरियाणा के फरीदाबाद में जहाँ एक्यूआई साढ़े तीन सौ पार रहा, वहीं गुरुग्राम में यह तीन सौ सतहत्तर रहा। यही हाल बिहार के कटिहार, मध्य प्रदेश के ग्वालियर और उत्तर प्रदेश के कानपुर और लखनऊ जैसे शहरों का है। डब्ल्यूएचओ की 2016 रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के बीस सबसे प्रदूषित शहरों में चैदह शहर भारत के थे।
वायु प्रदूषण की समस्या अपनी कोख में स्वास्थ्य से जुड़े हजारों संकटों को छुपाये रहती है। दूषित वायु का हमारे शरीर के अंगों और स्वास्थ्य पर बेहद घातक प्रभाव पड़ता है। पाँच साल से कम उम्र के नवजातों पर और बच्चों पर इसके दीर्घकालिक असर देखने को मिलते हैं। अगर जल्दी इस समस्या का सही इलाज नहीं ढूँढा गया तो आने वाली पीढ़ियाँ कई जानलेवा बीमारियों की गिरफ्त में होंगी। डब्ल्यूएचओ के अनुसार दुनियाभर मंे अस्थमा और श्वास सम्बन्धी बीमारियों से होने वाली मौतों में सबसे अधिक मृत्यु भारत में होती है। लैंसेट के एक शोध में बताया गया है कि 2019 में भारत मंे सोलह लाख सत्तर हजार लोगों की समय से पहले मौतों और 28–8 अरब डॉलर के नुकसान का कारण बढ़ता वायु प्रदूषण था।
वायु प्रदूषण का मुख्य कारण निजी वाहनों से निकलने वाला धुआँ और फैक्ट्रियों से निकलने वाली जहरीली गैसें हैं। फैक्ट्रियों के मालिक पर्यावरण की परवाह नहीं करते और पर्यावरण सम्बन्धी नियमों को ताक पर रखकर फैक्ट्री चलाते हैं। सरकार यह सब जानते हुए भी इन फैक्ट्री मालिकों और वाहन बनाने वाली कम्पनियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं करती और पर्यावरण का नाश करके उन्हें मुनाफे को बरकरार रखने की सुविधा देती है और वायु प्रदूषण का सारा दोष उत्तर भारत के किसानों और बढती जनसंख्या पर मढ़ती है। सरकार अगर चाहे तो बजट में छोटी सी राशि आवन्टित कर पराली जलाने से होने वाले प्रदूषण की समस्या हल कर सकती है, लेकिन सरकार ऐसा नहीं करती और पराली जलाने वाले किसानों को कानून के शिकंजों में फँसाकर उनका उत्पीड़न करती है। वह किसानों पर जुर्माना लगाती है और पराली जलने की घटनाओं में कमी को बढ़ा–चढ़ाकर पेश कर लोगों को गुमराह करती है। रही बात बढती जनसंख्या को प्रदूषण का कारण बताने की, तो यह एक झूठी दलील है। भारत की बहुसंख्यक आबादी जिसमें छोटे किसान, मजदूर और आदिवासी आते हैं, उनके पास न ही मोटर गाड़ी हैं और न ही फैक्ट्री है। इन की ऊर्जा सम्बन्धी जरूरतें, उच्च और मध्यम वर्ग से कई गुना कम हैं। वे खतरनाक हालातों मंे खेतों, खदानों, फैक्ट्रियों, जंगलों आदि में बिना सुरक्षा उपकरणों के काम करने पर मजबूर हैं और वायु प्रदूषण की मार भी सबसे अधिक निम्न वर्ग पर ही पड़ रही है। बहुत से ऐसे उदाहरण सामने आयें है, जिससे पता चलता है कि कई शहरों में काम करने वाले मजदूरों की औसत आयु सिर्फ चालीस साल रह गयी है। यह व्यवस्था द्वारा उनपर किया गया अघोषित हमला है।
इस गम्भीर समस्या के प्रति जब सरकारों को इससे निपटने के लिए ठोस कदम उठाने चाहिए तो वे सिर्फ झूठी बयानबाजी कर रही हैं। साथ ही उन कम्पनियाँ को खूब फायदा पहुँचा रही हैं जिनकी निर्मम लूट ही इस पर्यावरण के विनाश का कारण हैं। ऐसी कम्पनियाँ संकट के समय में भी मुनाफा कमाने के लिए एयर फिल्टर और ऑक्सीजन थेरेपी जैसे उत्पाद बनाकर बेंच रही हैं। यह अति आवश्यक बन गया है कि अब मानवता और प्रकृति से प्रेम करने वाला हर इनसान आगे बढ़कर इस लूट–मुनाफे पर टिकी व्यवस्था पर सवाल करे और नये विकल्पों की खोज करे।
––समर्थ
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