“तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है

 मगर ये आँकडें झूँठे हैं, ये दावा किताबी है।”

अदम की उक्त पंक्तियाँ देश की अर्थनीति और राजनीति के बारे में स्पष्टता और साफगोई दिखती है। बीते दिनों प्रधानमंत्री ने अपना जो अभिभाषण संसद में दिया, उसमें उन्होंने गरीबों का मजाक उड़ाते हुए कहा, “आज देश के गरीब के पास अपना घर है और वह लखपती हो गया है।” जिस प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत लोगों को घर देने का दावा इस भाषण में किया जा रहा था, उसकी असलियत अखबार और मीडिया रिपोर्टों में पहले ही आ चुकी है। फिलहाल, दिल्ली की जिस संसद में वे गरीबों को घर देने के नाम पर अपनी पीठ थपथपा रहे थे, उसी दिल्ली में जनवरी के शुरुआती बीस दिनों में ठंड से एक सौ छ: लोग असमय काल के गाल में समा गये। ये वे बेघर लोग थे जिनके पास अपना कोई घर नहीं था। यह घटना सरकार के खोखले दावों को आइना दिखाती है।

2011 की जनगणना के अनुसार, उस समय तक महानगरों और उपनगरों में बेघर लोगों की संख्या में बीस प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई थी। उस समय 17–73 लाख लोग तब बेघर थे। तब से इनकी संख्या लगातार बढ़ती गयी है। ये समाज के वे सबसे वंचित और गरीब लोग हैं जो सामाजिक और आर्थिक उत्पीड़न के कारण आज हाशिये पर पहुँच गये हैं। इनका कोई घर नहीं है। ये महानगरों और उपनगरों में अस्थायी झुग्गियाँ बनाकर रहने को मजबूर हैं। इनमें से बहुत से फुटपाथ और सड़कों के डिवाइडर पर खुले आसमान के नीचे सभी मौसमों में सोते हैं। हालत यह है कि दिल्ली, मुम्बई और लखनऊ जैसे महानगरों में हर चैथा या पाँचवा व्यक्ति आज बेघर है। इनमें से ज्यादातर लोग दलित और आदिवासी समाज से आते हैं। एक ओर जहाँ लगातार आर्थिक तंगी, रोजगार का अभाव, प्राकृतिक आपदाओं आदि के कारण इन्हंे पलायन करने को मजबूर होना पड़ा है, वहीं दूसरी ओर दशकों से चली आ रही सरकारों की गरीब और मजदूर विरोधी नीतियों ने इन्हें इस हाल में लाकर खड़ा कर दिया है। आज इनका बहुत बड़ा हिस्सा इसी स्थिति में पैदा होने और ऐसी ही हालत में मरने को मजबूर है। इन बेघर लोगों में महिलाओं की स्थिति बेहद चिन्ताजनक है। सामाजिक असुरक्षा, मानसिक तथा शारीरिक उत्पीड़न महिलाओं के लिए आये दिन चिन्ता का विषय बने रहते हैं। यहाँ महिलाओं और बच्चों में कुपोषण एक बड़ी समस्या है।

बीते वर्ष कोरोना महामारी और देशव्यापी तालाबन्दी से जो आर्थिक तबाही हुई उसका सबसे अधिक दुष्प्रभाव देश की बहुतायत गरीब और मेहनतकश आवाम पर पड़ा। जहाँ देश के मुट्ठी भर उद्योगपतियों को राहत देने के लिए सरकारों ने अपना खजाना खोल दिया, वहीं जब बहुतायत अवाम की बात आयी तो सरकारों ने अपने हाथ खड़े कर दिये। इसका नतीजा यह हुआ कि सत्ताइस करोड़ लोग रोजी–रोटी के मोहताज हो गये और गरीबी रेखा से नीचे चले गये। यह सरकारों की जन विरोधी नीतियों की वजह से हुआ। समाज में तेजी से गरीबी बढ़ी। बेइन्तहा गरीबी और बीमारी ने किसी को घर का समान, तो किसी को अपना घर ही बेचने पर मजबूर किया। इस त्रासदी का सबसे खतरनाक प्रकोप इन्हीं बेघर लोगों ने सहा। तालाबन्दी में जो देशव्यापी कर्फ्यू जैसे हालात पैदा हुए उसने इनके लिए खाने–रहने का संकट पैदा कर दिया। ये भूख से मरने को मजबूर हैं। तालाबन्दी के तुरन्त बाद हुए सर्वे से पता चला कि दिल्ली के इन बेघर लोगों को लगातार तेरह दिन खिचड़ी ही खानी पड़ी। इसी समय वे हजारों छोटे बच्चे जो दूध पर निर्भर थे, उनका क्या हुआ होगा और उनका क्या हुआ होगा जो बुजुर्ग और बीमार थे ? ये सवाल हमारे दिल और दिमाग को हिला देते हैं। लेकिन इस पर प्रधानमंत्री साहेब की संसद में जबान तक नहीं हिली। 

यह शासक वर्ग के मानवद्रोही और इनसानियत विरोधी चरित्र को दिखाती है। आजादी के इतने बरस बाद भी करोड़ों लोग आज ऐसे आमनवीय हालात में रहने को मजबूर हैं। यहाँ इन लोगों के पास रोजगार का कोई स्थायी साधन नहीं है। पुरुष रिक्शा चलाने, फुटकर समान बेचने, ठेला आदि लगाने और महिलाएँ तथा बच्चे कूड़ा बीनने, उसे छाँटने और उसे अलग करने जैसा काम करते हैं। इस पर भी कमाई का बड़ा हिस्सा रिक्शे–ठेले का मालिक, बड़ा कबाड़ी आदि मार ले जाता है। स्थायी रोजगार और घर ना होने के चलते इनकी सामाजिक स्थिति बेहद खराब है। आये दिन इन्हें शारीरिक और मानसिक अपराध का शिकार होना पड़ता है। जहाँ पुरुषों को पुलिस द्वारा आपराधिक मामलों में फँसाया जाता है, वहीं महिलाओं को यौन हिंसा का सामना करना पड़ता है। आये दिन उनको उनके अस्थायी आवासों से प्रशासन द्वारा उजाड़ा जाता है। सामाजिक सुरक्षा और न्याय इनके लिए निरर्थक शब्द मात्र हैं। इनका न तो अपना कोई घर है और न ही कोई देश। अपने ही देश में ये शरणार्थी की तरह गुजर–बसर करने को मजबूर हैं। 

 इन बेघर लोगों के बारे में कोई भी राजनीतिक पार्टी बात तक नहीं करती, क्योंकि इनकी इस स्थिति की जिम्मेदार भी ये ही पार्टियाँ और इनकी गरीब विरोधी नीतियाँ हैं। यह सब इनकी ही करनी का नतीजा है। इन पार्टियों ने अपना ईमान–धर्म सब कुछ मुट्ठीभर धन्नासेठों को बेच दिया है। इन धन्नासेठों के राजनेताओं ने ‘गरीबी हटाओ’, ‘हर गरीब को पन्द्रह–बीस लाख रुपये’, ‘गरीबों को घर’ जैसे नारे खूब उछाले, लेकिन इतिहास में इनका नाम सबसे पतित, झूठे और मक्कार लोगों में शुमार किया जाएगा। अपने लाखों झूठ से ये इस सच्चाई पर पर्दा नहीं डाल सकते कि ये सब लुटेरे हैं। इनकी सनक और अय्यशी की कीमत देश का गरीब मेहनतकश, उनके बच्चे और बुजुर्ग अपनी जान देकर चुका रहे हंै। ये मुट्ठीभर लोग खून पीनेवाले जोंक हैं और इनकी खुराक मेहनत मजदूरी करने वालों का शोषण और उत्पीड़न है।

जब तक हमारे देश में मजदूर की मेहनत और उसके औजार बाजारू बने रहेंगे और इन पर चन्द पूँजीपतियों का कब्जा रहेगा, तब तक ये बदहाली और विपन्नता बदस्तूर जारी रहेगी और ये कहावत चरितार्थ होगी कि ‘अमीर और अमीर होता जाएगा तथा गरीब और गरीब।’ एक ओर बहुमंजिला इमारतें होंगी, तो दूसरी ओर करोडों लोगों का अपना कोई पता ठिकाना तक नहीं होगा।