23 जुलाई 2024 को नवनिर्वाचित एनडीए सरकार में वित्त मंत्री निर्मला सितारमण ने देश का आम बजट पेश किया। यह बजट जन–पक्षधर है या जन–विरोधी, इसे इसी नजरिये से देखने और समझने की जरूरत है, नहीं तो वित्त मंत्री का भाषण सिर्फ मोदी सरकार के महिमा–मण्डन से ज्यादा कुछ नजर नहीं आएगा।

वित्त मंत्रालय ने अपने सालाना आर्थिक सर्वेक्षण में इस बात को माना कि देश में खाद्य महँगाई बढ़ी है, परिवारों की शुद्ध वित्तीय बचत, सकल घरेलू उत्पाद का न्यूनतम 5–3 फीसदी पर पहुँच गयी है। गोल्ड और निजी कर्ज बहुत ज्यादा बढ़ गये हैं। नौजवान बड़ी संख्या में बेरोजगार हैं। इस बजट को पेश करने से पहले वित्त मंत्री ने भी इन बातों को स्वीकार किया। ऐसे में वित्त मंत्री ने संसद में 48 लाख 20 हजार करोड़ का जो भारी भरकम बजट पेश किया, उसे देख कर ऐसा नहीं लग रहा है कि सरकार इस सर्वेक्षण को लेकर गम्भीर है।

सरकार ने आने वाले वित्त वर्ष में अपनी कमाई 32 लाख करोड़ होने का अनुमान लगाया है। इसमें इनकम टैक्स से 3.46 लाख करोड़ रुपये और जीएसटी से 1.73 लाख करोड़ रुपये आय होगी। कुल मिलाकर 5 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा जनता से वसूला जाएगा जो पिछले साल की तुलना में 15 फीसदी ज्यादा है और बाकी सरकारी कम्पनियों की कमाई से लिया जाएगा। मोदी सरकार पूँजीपतियों से मात्र 2.1 लाख करोड़ रुपये ही टैक्स ले रही है। जिन कॉर्पाेरेट पूँजीवादी घरानों की सम्पत्ति देश की कुल सम्पदा का 58 फीसदी है, उनसे इतना कम टैक्स वसूलना कहाँ तक उचित है। यहाँ गंगा उल्टी बहायी जा रही है। कॉर्पाेरेट टैक्स से ज्यादा इनकम टैक्स वसूला जा रहा है।

सरकार ने विभिन्न मदों में 48 लाख करोड़ रुपये खर्च करने का अनुमान लगाया है। इसका मतलब है कि वह 16 लाख करोड़ रुपये का और कर्ज लेने जा रही है। सरकार पर कुल देशी–विदेशी कर्ज बढ़कर अब 181 लाख करोड़ के आसपास पहुँच गया है। इस पर सालाना ब्याज ही करीब 11 लाख करोड़ रुपये है। इसे भी जनता पर भारी टैक्स से वसूलकर चुकाया जाएगा। 

किसानों, महिलाओं और नौजवानों पर बोलते हुए पूरे भाषण के दौरान वित्त मंत्री की जुबान नहीं घिस रही थी, लेकिन बजट के पन्नों में हकीकत कुछ और ही है। कृषि क्षेत्र पर बात करते हुए वित्त मंत्री ने कई नारे उछाले लेकिन बजट में इस पर कुल 7 हजार करोड़ रुपये ही बढ़ाये गये, जो मुद्रास्फीति के लिहाज से देखे तो बहुत कम है। खाद खेती के लिए जरूरी लागत है, उसके बजट से सीधे 25 हजार करोड़ रुपये कम कर दिये गये जिसकी सीधी मार गरीब और मझोले किसानों पर पड़ेगी। कृषि बीमा से भी 500 करोड़ कम कर दिये गये। यही काम खाद्य सुरक्षा स्कीम के साथ किया गया, उससे भी 7 हजार करोड़ रुपये कम कर दिये गये जिससे गरीबों को दिये जाने वाले सरकारी अनाज की मात्रा कम हो जाएगी।

समग्र शिक्षा अभियान जिसमें ‘मिड डे मिल’ भी आता है, उसमें पिछले 2 सालों में लगातार बढ़ती महँगाई के बावजूद एक भी रुपया नहीं बढ़ाया गया। यही हाल पोषण स्कीम का है, इसमें 214 करोड़ रुपये कम कर दिये गये हैं। पिछले दो बजट में बच्चों को दिये जाने वाले पोषक तत्व आधारिक स्कीम में कुल 40 हजार करोड़ रुपये कम कर दिये गये। यह देश की गरीब जनता के बच्चों को कुपोषित और भूखा रखने की कोशिश है।

सरकार की आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट साफ बताती है कि बीते साल देश की जनता ने इलाज पर अपनी जेब से 17–5 हजार करोड़ रुपये खर्च किये। इसके बावजूद वित्त मंत्री ने आयुष्मान भारत योजना में एक रुपया नहीं बढ़ाया। यह सरकार की जनता के प्रति असंवेदनशीलता का खुला इजहार है कि वह उसे सस्ता इलाज भी नहीं देना चाहती।

पीएम आवास योजना में सरकार ने मात्र 2 करोड़ रुपये बढ़ाये हैं जिसका ढिंढोरा सरकार रात–दिन पीटती रहती है। सौ स्मार्ट सिटी मोदी जी के कल्पना लोक में बन कर तैयार हैं, शायद इसीलिए उसके बजट को 8 हजार करोड़ रुपये से कम करके मात्र 2–4 हजार करोड़ रुपये कर दिया गया।

यही हाल आदिवासियों के लिए बनी अनुसूचित जनजाति विकास योजनाओं के साथ किया गया जिसमें एक भी रुपया नहीं बढ़ाया गया।

बजट पेश करते समय वित्त मंत्री महिलाओं और माताओं के विकास के सम्बन्ध में लगातार बोलती रहीं। उन्होंने वात्सल्य मिशन में पिछले दो वित्त वर्षों में एक भी रुपये का इजाफा नहीं किया। यही हाल मिशन शक्ति योजना का रहा जिसमें मात्र दो करोड़ रुपये बढ़ाये गये जो हास्टल में रहने वाली बालिकाओं के साथ अन्याय है।

देशभर में 80 करोड लोग ऐसे हैं जो सरकारों की जन–विरोधी नीतियों के चलते दो वक्त की रोटी का भी इन्तजाम नहीं कर पा रहे हैं। उनके लिए राशन की व्यवस्था में भी कटौती की गयी। उसे भी पिछले तीन वित्तीय बजटों में लगातार क्रमश: 2.72 लाख करोड़, 2.12 लाख करोड़ और 2.02 लाख करोड़ रुपये कर दिया गया है। यह दिखा रहा है कि सरकार किस तरह गरीबों को गरीब कल्याण योजना में मिलने वाले पाँच किलो अनाज के बजट में लगातार कटौती करती जा रही है और गरीबों से जीने का अधिकार भी छीनती जा रही है।

आर्थिक सर्वेक्षण में दिया हुआ है कि पिछले दस सालों में मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर में मात्र 22 लाख रोजगार की वृद्धि हुई है जबकि पिछले छ: सालों में गैर कृषि क्षेत्र में 16.5 लाख रोजगार कम हुए हैं और देश में लगातार बेरोजगारी बढ़ती जा रही है। इसे हल करने के लिए सरकार को 78–81 लाख रोजगार सालाना देने होंगे। इसी को नजर में रखते हुए वित्त मंत्री ने इस बजट में ‘द प्राइम मिनिस्टर्स पैकेज फॉर एंप्लॉयमेंट एण्ड स्किलिंग’ के नाम से एक योजना पेश की। इसका बहुत ढिंढोरा पीटा जा रहा है कि इस योजना में आने वाले 5 सालों में 6 करोड़ 10 लाख युवाओं को रोजगार दिये जाएँगे। लेकिन यह सभी प्रोत्साहन आधारित योजनाएँ हैं। सरकार कोई स्थाई रोजगार नहीं देने जा रही है। प्रोत्साहन खत्म होने पर ये रोजगार भी खत्म हो जाएँगे। ये योजनाएँ बेरोजगार युवाओं को लाभ पहुँचाने के लिए नहीं, बल्कि दूसरे हाथ से मुट्ठीभर पूँजीपतियों को फायदा पहुँचाने लिए बनायी गयी हैं। इससे पूँजीपति सरकारी सब्सिडी का लाभ उठाने के लिए बड़ी संख्या में पुराने मजदूर हटा कर नये मजदूर रखेंगे।

सरकार ने पेट्रोलियम पर दी जाने वाली सब्सिडी को भी गत वर्ष के 12,240 करोड़ रुपये से घटाकर 11,925 करोड़ रुपये कर दिया है जिसका सीधा असर गरीब और मध्यम वर्ग की जेब पर पड़ेगा।

देश में लगातार रेल दुर्घटनाएँ बढ़ रही हैं, इससे अन्दाजा लगाया जा रहा था कि इस साल बजट में रेलवे की सुरक्षा को लेकर कुछ प्रावधान किये जाएँगे। पिछले साल के रेल बजट में इस पर 650 करोड रुपये खर्च किये गये थे, लेकन इस साल इस पर एक भी रुपया नहीं बढ़ाया गया है। इससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि रेलवे में जो दुर्घटनाएँ हो रही है वे ऐसे ही जारी रहेंगी और सैकड़ों लोग असमय ही काल के गाल में समाते रहेंगे। ऐसे में रेलवे की सुरक्षा पर पैसा नहीं लगाना रेल यात्रियों के जीवन के प्रति सरकार की संवेदनहीनता को दिखाता है।

इस बजट से आम जनता को कुछ राहत मिलती नजर नहीं आ रही है। ऐसे में महँगाई, बेरोजगारी, सामाजिक सुरक्षा आदि मुद्दों पर सरकार के खिलाफ जनता का गुस्सा फूट सकता है। इसके लिए भी सरकार ने इस बजट में इन्तजाम कर लिया है। सैन्य और रक्षा खर्च का बजट बीते साल 4.32 लाख करोड़ रुपये था, उसे इस साल बढ़ाकर 4.54 लाख करोड़ रुपये कर दिया गया है। इसी तरह पुलिस–प्रशासन वाले गृह विभाग का खर्च जो बीते साल 1.35 लाख रुपये करोड़ था, उसे भी बढ़ाकर 1.50 लाख करोड़ रुपये कर दिया गया है। इसका मतलब यही है कि सरकार आम जनता के असन्तोष को सेना–पुलिस का डण्डा चलाकर कुचलने जा रही है।

यह पूरा बजट जनता को दी जाने वाली नाममात्र की राहतों पर हमला है और उत्पाद शुल्क, कॉर्पाेरेट टैक्स, कैपिटल गेन टैक्स आदि में छूट के जरिये पूँजीपतियों की पूँजी को बढ़ाने वाला है। सरकार चाहती तो जनता को राहत पहुँचाने में खर्च कर सकती थी, लेकिन वह अपनी व्यवस्था को चाक–चैबन्द करने में ही लगी हुई है। ऐसे में यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि क्या यह बजट, आर्थिक संकट को कम कर पाएगा, क्या यह प्रति व्यक्ति आय जो 15,000 रुपये से भी कम है उसे बढ़ा पाएगा या नौजवान जो बेरोजगारी का भयंकर संकट झेल रहे हैं उन्हें राहत दिला पाएगा?

इन सभी समस्याओं का समाधान एक बहुत बड़े और व्यापक बदलाव की माँग करता है, क्योंकि इन समस्याओं की जड़ें इस व्यवस्था में बहुत गहराई तक हैं। अमीरी और गरीबी की खाई बहुत गहरी हो गयी है, जो दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। इसे इस तथ्य से समझ जा सकता है कि ऊपर के एक प्रतिशत अरबपतियों के पास देश की कुल आय का 22 फीसदी और कुल सम्पदा का 40 फीसदी है और मुट्ठी भर कॉर्पाेरेट घरानों के हाथ में सम्पदा 58 फीसदी है। जब आय और सम्पत्ति का संकेन्द्रण कुछ मुट्ठी भर पूँजीपतियों के हाथों में हो और देश का बहुत बड़ा हिस्सा गरीबी और भुखमरी में जीने को अभिशप्त हो। ऐसे में गहरे आर्थिक संकट को दूर करने के लिए कुछ ऐसे कदमों की जरूरत है जो इस पूरी अर्थव्यवस्था में आमूल चूल परिवर्तन ला सके। देशी–विदेशी पूँजी के मुनाफे के लिए चल रहा यह पूरा आर्थिक राजनैतिक तंत्र और उसका बजट इस व्यवस्था को गहरे आर्थिक संकट से बाहर नहीं निकाल सकता। एक शोषणमुक्त और मानव केंद्रित व्यवस्था ही इसे इस संकट से बाहर निकाल सकती है।