बीते साल देश में इमारतों और पुलों के गिरने के कई हादसे हुए, जहाँ मलबे में सैकड़ों गाड़ियाँ, ठेले, रिक्शे दब गये, वहीं सैकड़ों मासूमों को अपनी जिन्दगियाँ गँवानी पड़ी। कुछ हादसे ऐसे भी रहे जिनके मलबे में भारतीय राजनीति और उसकी प्रशासनिक संस्थाएँ दम तोड़ती हुई नजर आयीं। ऐसी ही एक घटना गुजरात में बीते अक्टूबर महीने में हुई। जब वहाँ के मोरबी इलाके में मच्छु नदी पर बना झूला पुल (मोरबी पुल) ढह गया। वहाँ मौजूद एक व्यक्ति जिसने कई मासूम जाने बचाई थी, उस हृदयविदारक दृश्य को बताते हुए कहा कि एकाएक नदी में सैकड़ों लोगों के चीखने पुकारने की आवाजें गूंजने लगी। कई लोग पुल के जाल से लटके हुए थे। किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि अचानक आखिर हुआ क्या ? इस हादसे में 140 से ज्यादा लोग और 41 मासूम बच्चे असमय ही काल के गाल में समा गये। इस पर बयान देते हुए सम्बन्धित अधिकारी ने कहा कि भगवान की मर्जी से यह हादसा हुआ।

ऐसा बयान किसी अधिकारी या प्रतिनिधि द्वारा पहली बार दिया गया हो ऐसा नहीं है। इतिहास में अक्सर ही क्रूर सत्ताएँ अपने कुकर्मों को छुपने के लिए ईश्वर का सहारा लेती आयी हैं, तो क्या इसे महज झूठ कहा जाये ? नहीं, यह बेहयाई है, मानवीय जिन्दगियों के साथ क्रूरता है। अगर ऐसी घटना किसी गैर–भाजपा शासित राज्य में हुई होती तो क्या इनके नेता वहाँ के मुख्यमंत्री से इस्तीफा माँगते हुए नजर नहीं आते ? यह दुर्घटना मोदी और अमित शाह के गुजरात में घटित हुई है, इसलिए सरकार भाजपा के नेता और गोदी मीडिया ने चुप्पी साध ली। इस पर संवेदनहीनता इस कदर थी कि जब प्रशासनिक अधिकारियों को पीड़ितों की मदद करनी चाहिए थी उस वक्त ये अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ते नजर आए। कमोवेश यही हाल राज्य के मुख्यमंत्री का भी रहा। जो प्रधानमंत्री के आने की सूचना मिलने पर अस्पताल की बद–इन्तजामियाँ छुपाने, नये बेड, पानी के कूलर और पुताई कराने में लग गये कि कही मोदी के गुजरात मॉडल की सच्चाई सामने न आ जाये। मोदी के पूरे दौरे में मीडियाकर्मी इस घटना को लेकर मँुह में दही जमाये नजर आये। संवेदनहीनता की पराकाष्ठा तो तब हो गयी जब मोदी और भाजापा के अंधभक्तों ने इनसानियत को तार–तार करते हुए यह प्रचारित करना शुरू किया कि इस घटना के जिम्मेदार अर्बन नक्सल हैं। ऐसा इसलिए कि आने वाले विधानसभा चुनावों में इसका फायदा भाजापा को मिल सके और सभी विपक्षी चुनावी पार्टियों को इसका जिम्मेदार बनाया जा सके, जिससे गुजरात मॉडल पर कोई सवाल न उठे और उसके दामन पर खून का छींटा न दिखे।

भले ही सरकार पर सवाल उठाना देशद्रोह का पर्याय बना दिया गया हो और सवालों पर पहरे हों, लेकिन सवाल बदस्तूर पूछे जाएँगे। यह सवाल कि इतने मासूमों की जानें किसने ली, पूछा जाना चाहिए। क्यों पुल की मरम्मत के लिए ठेकेदारों के चुनाव के लिए निविदा नहीं निकली गयी ? क्या नियुक्त ठेकेदार इस काम को कर पाने में सक्षम था ? क्या ऑरेवा, जो एक दीवार घड़ी बनाने वाली कम्पनी है, वह एक पुल की मरम्मत कर सकती है ? इस कम्पनी को ठेकेदार नियुक्त करने वाला अधिकारी कौन था ? पुल की वास्तविक स्थिति के लिए कौन सी रिपोर्ट जमा की गयी ? पुल को फिर से खोलने की अनुमति किससे ली गयी ? क्या पुल की मरम्मत और जीर्णोंद्धार का काम हुआ या सिर्फ रंगाई पुताई करके उससे वसूली की जाने लगी ? क्यों एक व्यापारिक समूह को फायदा पहुँचाने के लिए सभी नियमितताओं को ताक पर रखा गया ? क्या इस पर सम्बन्धित अधिकारियों और कम्पनी पर गैर इरादतन इनसानी जिन्दगी को नुकसान पहँुचाने और हत्या का मामला दर्ज नहीं होना चाहिए ?

साफ तौर पर यह हृदय विदारक घटना सरकार, प्रशासन और कम्पनी के आपसी फायदे और मिलीभगत का नतीजा है जिसकी वजह से कई लोगों को अपनी जिन्दगी गँवानी पड़ी। अगर सवाल नहीं पूछे गये तो ये शासक हमेशा की तरफ अपने गुनाहों का ठीकरा ईश्वर पर फोड़ते रहेंगे और देश को मठ और खुद को मठाधीश समझ बैठेंगे।