अक्टूबर 2022 में आयी वैश्विक भुखमरी सूचकांक (जीएचआई) की रिपोर्ट बताती है कि भुखमरी के मामले में भारत एक सौ इक्कीस देशों की सूची में एक सौ सातवें स्थान पर है। भारत के पड़ोसी देश श्रीलंका चैसठ, नेपाल इक्यासी, बांग्लादेश चैरासी और पाकिस्तान तिरानवे नम्बर पर हैं। यह रिपोर्ट बताती है कि देशभर में हर सौ वयस्कों में से सत्रह कुपोषण से ग्रसित हैं। 5 साल से कम उम्र के सौ में से छत्तीस बच्चे अविकसित हैं और कुपोषण की वजह से ही सौ में से चार बच्चे 5 साल की उम्र से पहले मर जाते हैं। यह भयावह स्थिति उस देश की है जहाँ के शासक देश मंे आजादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए राम राज का राग अलापते रहे हैं। यह कैसा अमृत महोत्सव है ? जब बहुत बड़ी आबादी भूखमरी से जूझ रही है उनके पास खाने को दो जून की रोटी तक नहीं है। बच्चों और गर्भवती महिलाओं को कुपोषण के चलते असमय ही अपने जीवन से हाथ धोना पढ़ रहा है। ये कैसा राम राज है ?

आयरलैण्ड की वर्ल्ड वाण्डा एजेंसी और जर्मनी के वर्ल्ड हंगर हिल्फ संगठन ने भारत मंे भूखमरी की स्थिति को काफी चिन्ताजनक बताया है। उनके अनुसार, भारत के सामने आज सबसे बड़ा सवाल भूख का है। भारत की सरकारें इन सभी रिपोर्ट को धता बता कर अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ने मंे लगी हैं। 2000 से 2022 की रिपोर्टों और अध्ययनों से भी यही जाहिर होता है कि देश में भुखमारी और कुपोषण की स्थिति लगातार विकराल होती जा रही है। संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य और कृषि संगठन ने यह बताया है कि भारत में एक बड़ी आबादी पर्याप्त भोजन की कमी से जूझ रही है। 2016–18 में 17–36 करोड़, 2017–19 में 18–3 करोड़ और 2019–21 में सबसे ज्यादा 22–4 करोड़ लोग भोजन की कमी से पीड़ित थे।

कोई भी व्यक्ति अगर पर्याप्त मात्रा में कैलोरी न ले तो वह भुखमरी और कुपोषण का शिकार हो जाता है और यह कुपोषण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में भी पहुँच सकता है। कुपोषण जहाँ क्वाशरकोर, सूखा रोग, रिकेट्स, बेरीबेरी, घेंघा रोग, रक्तहीनता जैसी भयंकर बीमारियों को जन्म देता है, वहीं ऐसे मंे मानसिक बीमारियों से भी बच पाना बहुत मुश्किल हो जाता है।

पहले लोगों तक सस्ते अनाज पहुँचाने के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली मौजूद थी, जिसके जरिये देश की बहुसंख्यक आबादी तक सब्सिडी पर राशन पहुँचाने का काम किया जाता था। इसके लिए सरकारी राशन की दुकानों का ढाँचा खड़ा किया गया था। अनाज रखने–जमा करने के लिए सरकारी गोदाम, सरकारी मण्डियाँ बनायी गयी थीं, अनाज के रख–रखाव पर, उसकी जमाखोरी पर और उसे निर्यात–आयात करने पर सरकारी नियंत्रण था। हालाँकि इनमें काफी कमियाँ थी, इस मूलभूत ढाँचे को अभी और अधिक विस्तारित और सशक्त बनाना था, लेकिन इस ढाँचे के ही चलते हमारे देश में भुखमरी–कुपोषण की समस्या इतनी भयावह कभी नहीं हुई, जितनी वह आज है।

1990 के दशक में ही हमारे शासकों ने देश में निजीकरण, उदारीकरण, वैश्वीकरण–– जिन्हें नवउदारवादी नीतियों के नाम से भी जाना जाता है, लागू कर कल्याणकारी राज्य की अपनी धारणा को तिलांजलि दे दी। इन नीतियों में ही बहुतायत जनता का नुकसान और देशी–विदेशी पूँजीपतियों का कल्याण छुपा था।1990 के बाद इन्हीं नीतियों के चलते यहाँ के शासकों ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली को और विस्तारित करने की जहमत नहीं उठायी, उल्टा लगातार इसके बजट में कटौती की गयी, इसमें भ्रष्टाचार पनपने की पूरी छूट दी गयी। यह भी छूट दी गयी कि मण्डी के धन्नासेठ और खाद्य कम्पनियाँ किसानों की फसल को औने–पौने दमों में खरीदकर, जमाखोरी कर सकें और बाहर के देशों में निर्यात कर भारी मुनाफा कमा सकें। क्या अब किसी भी समय नकली खाद्य संकट पैदा कर जनता को लूटने, उसे भूखा मारने के दरवाजे नहीं खुल गये हैं ? क्या बढ़ती महँगाई और बेरोजगारी कुपोषण और भुखमरी के असली कारण नहीं हैं ? पिछले तीन दशक में आयी सभी सरकारें लगातार कुपोषण और भुखमरी की वास्तविक स्थिति पर पर्दा डालती आयी है।

आज आलम यह है कि एक तरफ तो सरकार के रहम–ओ–करम से अडानी–अम्बानी जैसे पूँजीपति दुनिया के सबसे अमीर इनसानों में शुमार हो गये हैं और उनकी मेज पर पकवानों की कोई कमी नहीं हैं, वहीं दूसरी तरफ मजदूरों, गरीब किसानों, आदिवासियों सहित बहुसंख्यक आबादी के हकों को छीना जा रहा है और उनके हालात दिन–ब–दिन ऐसे बनाये जा रहे हैं कि उनके बच्चे भूख से बेमौत मरने को मजबूर हैं। एक तरफ बाजार, राशन के सामानों से पटे पड़े हैं, बिक ना पाने से खराब हो रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ आबादी के बड़े हिस्से की समान खरीदने की क्षमता लगातार घटती जा रही है और उनकी रसोई में अनाज के डिब्बे खाली पड़े रहते हैं।

यह नवउदारवादी नीतियों का नतीजा है। हमारे शासकों ने अमरीका की चैधराहट वाले साम्राज्यवादी समूह के सामने देश की खाद्य सुरक्षा को गिरवी रख दिया है। अगर आज हमने इस समस्या और इसके असली कारण की सही पहचान नहीं की और कुछ न किया तो आने वाले समय में खाद्य संकट और विकराल रूप ले लेगा। कुपोषण–भुखमरी जैसी समस्याओं का समाधान एक ऐसी व्यवस्था मंे हो सकता है, जहाँ मुनाफे की जगह इनसानी जिन्दगी को प्राथमिकता दी जाये।

–– उत्कर्ष