बीते दिसम्बर माह में विश्व असमानता रिपोर्ट (डब्लूआईआर) 2022 आयी। जिसने बताया कि दुनिया भर में अमीरी और गरीबी के बीच खाई तेजी से बढ़ी है। वहीं भारत में इस खाई का अन्तराल हिन्द महासागर और हिमालय पर्वत के अन्तर जैसा हो गया है। आँकड़े बताते हैं कि जहाँ एक ओर धनकुबेरो की संख्या बढ़ी है वहीं करोड़ों गरीब लोग रोटी तक को मोहताज हो गये हैं। यह रिपोर्ट देश के शासकों की राजनीतिक पार्टियों के झूठ और फरेब को बेनकाब करती है और बताती है कि इनकी 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था की कीमत मेहनत मजदूरी करने वाली जनता को अपनी जान देकर चुकनी पड़ रही है। इनकी नीतियों की वजह से बीते सालों में 27 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे पहुँच गये हंै।  राष्ट्रीय आय में जहाँ एक तरफ 10 प्रतिशत अमीरों की हिस्सेदारी में 57 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई और इसमें भी सबसे ऊपरी 1 प्रतिशत ने इसमंे 22 प्रतिशत की हिस्सेदारी कब्जाई है, वहीं दूसरी तरफ 50 फीसदी जनता की आर्थिक हैसियत गिर गयी है। उनकी राष्ट्रीय आय में हिस्सेदारी घटकर मात्र 13 प्रतिशत रह गयी है। यानी आवाम तेजी से गरीब हुई है। हालत यह है कि भारत दुनिया के सबसे असमान देशों की सूची में शामिल हो गया है।

 1990 तक दुनिया के एक प्रतिशत अमीर विश्व की एक तिहाई सम्पत्ति पर काबिज थे। यह आर्थिक असमानता निरंतर बढ़ती गयी। इस परिघटना के मुख्य कारण हैं–– 1991 में दो ध्रुवीय दुनिया का पतन और अमरीका की चैधराहट में एक नयी विश्व व्यवस्था का बनना, जिसके तहत सभी उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं को इस नयी विश्व व्यवस्था का हिस्सा बनने पर मजबूर होना पड़ा। दुनिया के लगभग सभी देशों ने अमरीकी चैधराहट को मान्यता देने वाले वाशिंगटन समझौता, डंकल प्रस्ताव आदि साम्राज्यवादी लूट के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर किये। इसका मुख्य उद्देश्य मुट्ठी भर धन्ना सेठो की सम्पत्ति में अकूत वृद्धि करना था। साम्राज्यवादी देशों और पूँजीपतियों की सम्पत्ति लगातार बढ़ती गयी और समस्त दुनिया में गरीबी और भुखमरी पैर पसारती रही। ऐसा ही कमोबेश भारतीय अर्थव्यवस्था में भी हुआ।

1990 में वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण के नाम पर भारत का बाजार वैश्विक साम्राज्यवादी दैत्याकार कम्पनियों के लिए खोल दिया गया। निजीकरण के जरिये सरकारों ने जहाँ सार्वजनिक उपक्रमों को कौड़ी के भाव उद्योगपतियों को देने का काम किया, वहीं विशेष आर्थिक क्षेत्र, नये श्रम कानून, भूमि अधिग्रहण कानून आदि के जरिये उद्योगपतियों को जनता का शोषण करने और उसे लूटने के लिए लिए ‘फ्री हैंड’ दे दिया। इसने मुट्ठी भर लोगों के हाथों सम्पत्ति संकेंद्रित की और बहुतायत जनता गरीबी और बदहाली की ओर धकेल दी गयी। वैश्वीकरण और निजीकरण से तेजी से बेरोजगारी बढ़ी। सरकारों ने जन कल्याणकारी कामों से अपने हाथ खींच लिये। इसने समाज में बढ़ती गरीबी के लिए कोढ़ में खाज का काम किया।   

विश्व की मेहनतकश जनता के अधिकारों पर जो साम्राज्यवादी लुटेरों ने हमला किया, उसे ही इन्होंने पूँजीवाद के स्वर्णिम दौर के रूप में प्रचारित किया। 1990 के बाद जो लूट की नयी विश्व व्यवस्था बनायी गयी थी, उसे 2008 की वैश्विक आर्थिक मन्दी ने धर दबोचा। इससे विश्व अर्थव्यवस्था की इमारत ताश के पत्तों की तरह बिखरने लगी। अरबों डॉलर की सम्पत्ति धुएँ की तरह उड़ गयी। सैकड़ों उद्योग, कम्पनियाँ और व्यापार तबाह हो गये, करोड़ों लोग बेरोजगार हो गये। साम्राज्यवादियों का स्वर्णिम दौर कभी न खत्म होने वाले आर्थिक संकट में फँस गया।

2014 के बाद बनी  ‘मोदी सरकार ने ‘अच्छे दिन’ और ‘भ्रष्टाचार मुक्त सरकार’ के नारे नाम पर नोटबन्दी और जीएसटी जैसे कानून बनाये और नये श्रम कानूनों के जरिये मेहनत मजदूरी करने वाली जनता के अधिकारों पर हमला किया। इसने जहाँ छोटे और मझोले उद्योगों की कमर तोड़ दी, वहीं लाखांे लोगों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा। 2020 में वैश्विक कोरोना महामारी और देशव्यापी तालाबन्दी, रोज कमाने खाने वाले मजदूरों पर पहाड़ की तरह टूटी। इन सब ने समाज में व्याप्त गरीबी को स्वतंत्र भारत के इतिहास में उच्चतम स्तर पर पहँुचा दिया।

आज हालत यह है कि हर 4 सेकंड में एक व्यक्ति की असमय मौत हो रही है और हर 26 घंटे में मजदूरों का शोषण कर एक अरबपति पैदा हो रहा है। हम जानते है कि अगर किसी परिवार में कमाने वाले की मौत हो जाए तो उस परिवार पर क्या बीतती है ? अगर हर परिवार में एक कमानेवाले के पीछे तीन आश्रित माने जाये तो ऊपर के आँकड़े के हिसाब से 93,600 की जिन्दगी को निगल कर एक अरबपति पैदा हो रहा है। एक तरफ एलन मस्क, मुकेश अम्बानी, बिल गेट्स, जेफ बेजोस, गौतम अडानी जैसे लोगों के बारे में बताया जा रहा है कि इन धन्नासेठों के लिए नया साल बहुत ही बेहतरीन साबित हो रहा है। ये बड़े–बड़े फार्म हाउस बना रहे है, अन्तरिक्ष में फोटोसूट कर रहे हैं, अंटीला बना रहे हैं, पाँच सितारा, सात सितारा होटल और न जाने कितने अय्यासियों के अड्डे अपने लिए बनवाये है। वहीं अगर आम जनता की बात की जाए तो लोगांे की आमदनी में लगातार गिरावट आयी है। वे दो जून की रोटी तक को मौहताज हो गये है।  असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की भारी आबादी ऐसी है जिन्हें सामान्य बीमारियो का इलाज तक नहीं मिल पा रहा है। कोरोना के बाद से अब तक बच्चों की पढ़ाई शुरू नहीं हुई है। 

यह विरोधाभास साफ–साफ दिखाता है कि किस तरह सरकारें देशी–विदेशी धन्नासेठो के साथ मिलकर गरीब जनता को लूटने और कुचलने में कोई भी कोर कसर नहीं छोड़ रही है। ये आपदाओं को अवसर में बदलना चाहते है ताकि ये देश के गरीब गुर्बा वर्ग के लोगों की हड्डियों तक का फास्फोरस बनाकर विश्व बाज़ार में बेचे और उससे मुनाफा कमाकर अपनी तिजोरियाँ भरें।