जलवायु परिवर्तन पर अन्तरसरकारी पैनल (आईपीसीसी) की छठी मूल्यांकन रिपोर्ट ‘जलवायु परिवर्तन–2021: भौतिक विज्ञान के आधार पर’ जारी हो हुई। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण धरती के करोड़ों प्रजातियों के पेड़–पौधों, जीव–जन्तुओं और इनसानों का अस्तिव संकट में है। ओजोन परत की दरार चैड़ी हो रही है, समुद्री जल में तेजाब की मात्र बढ़ रही है। वातावरण में नाइट्रोजन और फास्फोरस का चक्र असन्तुलित हो गया है। पृथ्वी तेजी से गर्म होती जा रही है। ग्लेशियरों का पिघलना, समुद्र का जलस्तर बढ़ना, हरे–भरे इलाकों का रेगिस्तान में बदलना, जीवों और वनस्पतियों की प्रजातियों का लुप्त हो जाना, कहीं बाढ़ और कहीं सूखे का प्रकोप धरती के गर्म होने का ही परिणाम है। जलवायु परिवर्तन के चलते ही खेती के फसल चक्र में भी परिवर्तन हो रहे हैं।

जलवायु संकट को लेकर आज पूरी दुनिया में तीखी बहसें चल रही हैं। मुद्दा यह है कि जलवायु परिवर्तन प्रकृति की अनिवार्य परिघटना है या मनुष्य द्वारा धरती की स्वार्थपूर्ण, अनियन्त्रित लूट–खसोट का परिणाम है? इस संकट के लिए कौन जिम्मेदार है और इसकी कीमत किसे चुकानी पड़ रही है? इसके प्रति दुनिया के शासकों की लापरवाही और उपेक्षा का क्या कारण है? क्या यह विपदा सचमुच भयावह है या इसे बढ़ा–चढ़ाकर पेश किया जा रहा है? इसे समझने के लिए आईपीसीसी पैनल की ताजा रिपोर्ट गौरतलब है।

आईपीसीसी संयुक्त राष्ट्र द्वारा दुनिया भर की सरकारों को मिलाकर बनाया गया है। इसकी रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन से धरती और जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों का अनुमान लगाया जाता है। इस पैनल ने शोध और गहन जाँच–पड़ताल के आधार पर बताया है कि धरती के गर्म होने से लू चलने, सूखा पड़ने, भारी बरसात और समुद्री तूफान जैसी असंख्य विनाशकारी घटनाएँ हो रही हैं। आईपीसीसी कई वर्षों से ग्लोबल वार्मिग और जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों की चेतावनी देता रहा है लेकिन इस रिपोर्ट में पहले से कहीं ज्यादा ठोस प्रमाण और आकड़े हैं और धरती की तबाही के खतरे की ज्यादा स्पष्ट तस्वीर दिखाई दे रही है। आने वाले सालों में धरती का तापमान 1.5 डिग्री बढ़ने की सम्भावना इस रिपोर्ट का सबसे ज्यादा गम्भीर तथ्य है।

इस संस्था के सहअध्यक्ष बलेरी मैसन–डेलमोट्टे ने कहा है कि पहले की रिपोर्ट में सम्भावना जाहिर की जाती थी लेकिन इस बार अकाट्य प्रभाव के साथ खतरे को बताया गया है। अगर इसके बाद भी दुनिया की सरकारें इस समस्या को गम्भीरता से नहीं लेतीं, इससे निपटने का प्रयास नहीं करतीं तो यह एकदम साफ है कि धरती को विनाश की ओर ले जाने में उनकी सचेत सहभागिता है। वे विकास के नाम पर मुनाफाखोरी को बढ़ावा देने पर आमादा हैं और धरती को नष्ट करने के रास्ते पर चल रही हैं।

धरती का तापमान औद्योगिक युग के पहले की तुलना में 1.1 डिग्री सेल्यिस बढ़ चुका है, और यह 2040 तक तय की गयी अन्तिम सीमा 1.5 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच जायेगा। जबकि 2015 के पेरिस समझौते में 1.5 डिग्री तक रोके रखने पर सहमति बनी थी। अगर ऐसा नहीं हुआ तो धरती पर जीव–जन्तुओं और मनुष्य का अस्तिव खतरे में पड़ जायेगा और इससे होने वाले पर्यावरणीय नुकसान की भरपाई असम्भव हो जायेगी।

भारत के मामले में तापमान बढ़ने का नतीजा तटवर्ती इलाकों के समुद्र में डूबने, हिमालय के ग्लेशियर पिघलने, लू चलने, उमसभरी तेज गर्मी पड़ने और मानसून में गड़बड़ी के रूप में सामने आने लगा है। यहाँ पहले ही गर्मी और सर्दी के अधिकतम और न्यूनतम तापमान में बढोतरी हो चुकी है और यह आने वाले दशकों में और ज्यादा बढ़ेगा। आज गर्मी की भयावहता से पीड़ित दुनिया के कुल लोगों में से आधे भारत में हैं। अगर गर्मी में और ज्यादा बढ़ोतरी हुई तो भारत के काफी बड़े इलाके से करोड़ों लोगों को उजड़ना पड़ेगा।

इस पैनल ने यह भी बताया कि मानव जनित प्रदूषण ने मानसून के वर्षा चक्र को भी परिवर्तित कर दिया हैै, जिसका दक्षिण एशिया, दक्षिण–पूर्व एशिया और पूर्वी एशिया में बुरा प्रभाव पड़ेगा। इसके अकाट्य प्रमाण दिये गये हैं कि ग्लोबल वार्मिग मानव गतिविधियों के चलते बढ़ रहा है और इसके नतीजे असमाधेय संकट की ओर ले जायेंगे। यहाँ बस इतना और जोड़ देने की जरूरत है कि सभी मानवों की नहीं, बल्कि मुनाफे की हवस में भूखे मुट्ठीभर पूँजीपतियों की गतिविधियों ने पर्यावरण को तबाह कर डाला है, लेकिन आईपीसीसी जैसी किसी पूँजीपतियों की संस्था से इतनी बेबाकी की उम्मीद करना बेकार है। वे तो यही बतायेंगे कि इसके लिए हर मनुष्य जिम्मेदार है। हम जानते हैं कि तापमान 1.5 डिग्री बढ़ने से हुए बदलावों का ठीक करना असम्भव होगा। जैसे–समुद्र का स्तर बढ़ना, ग्लेशियरों का पिघलना आदि को पुरानी अवस्था में वापस नहीं लाया जा सकेगा।

हिन्द महासागर का जलस्तर 3.7 मिलीमीटर सालाना बढ़ रहा है। रिपोर्ट बताती है कि जलस्तर के बढ़ने से आने वाली आपदाएँ जो पहले 100 साल में आती थीं, अब हर साल आ सकती हैं। इसी वजह से मानसून भी गड़बड़ा गया हैं। भविष्य में बारिश की कमी और अधिकता एक साथ होंगी। इससे समुद्र तटीय इलाकों में किनारों की मिट्टी का कटाव, बाढ़ और गर्मी और ज्यादा बढ़ेगी। इस मामले में भी भारत सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाला इलाका है।

रिपोर्ट में दर्ज है कि अगर ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती नहीं हुई तो इस सदी के आखिर तक धरती का तापमान 2 डिग्री बढ़ जायेगा। जिस तरह साम्राज्यवादी देशों के प्रभाव में डब्लूएचओ ने पर्यावरण के मानदण्डों को और ढीला किया है, उससे विकसित देशों को धरती को तबाह करने की छूट मिल गयी है।  विकसित देश ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ा रहे हैं। अगर ऐसी ही स्थिति रही तो सदी के अन्त तक तापमान 4 डिग्री तक बढ़ने की सम्भावना है। तब धरती से जीवन लुप्त हो जाएगा।

रिपोर्ट कहती है कि घटनाओं के बारे में जो आकलन किया गया है वह औसत आँकड़ों पर आधारित है, घटनाओं के उच्चतम स्तर पर नहीं। जैसे 2 डिग्री तापमान हमेशा नहीं रहेगा, वह कभी 5 डिग्री तो कभी 10 डिग्री भी हो सकता है और कम भी। इस असन्तुलन का कितना भयावह परिणाम होगा, इसकी कल्पना करना भी कठिन है।

ग्लोबल वार्मिग के दुष्प्रभाव की कई घटनाएँ एक साथ भी सामने आ सकती हैं और एक दूसरे को तेज कर सकती हैं। इसका एक छोटा सा उदाहरण इसी साल उत्तराखण्ड और हिमाचल प्रदेश में देखने को मिला, जहाँ भारी वर्षा, भूस्खलन, बर्फ खिसकना और बाढ़ एक साथ देखने में आयी। ग्लेशियर टूटने के साथ–साथ तेज बारिश और बाढ़ की घटनाएँ भी खूब देखने को मिल रही हैं। यह सामान्य एकल घटनाओं से कई गुणा ज्यादा घातक है और देखते–देखते, बिना किसी चेतावनी के भारी तबाही मचाती हैं।

रिपोर्ट से पूरी दुनिया के सामने यह और ज्यादा स्पष्ट हुआ है कि जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिग के लिए अमरीका, जापान, यूरोपीय संघ और तेल उत्पादक देश सबसे अधिक जिम्मेदार हैं। क्योटो प्रोटोकाल के तहत इन्होंने कार्बन उत्सर्जन में 5.2 प्रतिशत कमी करने की जिम्मेदारी ली थी। अपनी जिम्मेदारी निभाने के बजाय इन देशों ने कार्बन उत्सर्जन 11 प्रतिशत और अधिक बढ़ा दिया है। इसकी भारी कीमत दुनिया के गरीबों को चुकानी पड़ रही है। पूरी दुनिया में 5 साल से कम उम्र के 1 करोड़ बच्चे हर साल खसरा, डायरिया और साँस की बीमारी से मर जाते हैं, इसकी वजह दूषित पर्यावरण और इसकी जिम्मेदार मानवद्रोही सामाजिक–आर्थिक पूँजीवादी व्यवस्था है।

आज पर्यावरण की दुर्दशा और जलवायु परिवर्तन ऐसी नाजुक स्थिति में पहुँच गया कि मानवता का विनाश सामने दिखने लगा है। घरेलू और अन्तरराष्ट्रीय विस्थापन भी इसके प्रमुख दुष्परिणामों में से एक है। अनुमानों के अनुसार जलवायु परिवर्तन के चलते 1995 तक लगभग 2.5 करोड़ लोग उजड़ चुके थे और 2050 तक 20 करोड़ से 1 अरब तक लोग उजड़ जायेंगे। इनमें से अधिकतर लोग एश्यिा, अफ्रीका, लातिन अमरीका के गरीब देशों के होंगे। क्या जलवायु परिवर्तन के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार अमरीका और यूरोप इतने लोगों की जीविका और मूलभूत अधिकारों की गारण्टी लेंगे? अपनी जमीनों से उजड़कर ये कहाँ जायेंगे, कैसे जियेंगे?

धरती माँ और मानव जाति के सच्चे हितैषी और समतामूलक समाज के महान विचारक फ्रेडरिक एंगेल्स ने हमें डेढ़ सौ साल पहले सचेत करते हुए बताया था कि “प्रकृति पर अपनी इनसानी जीत को लेकर हमें बहुत ज्यादा डींग नहीं हाँकनी चाहिए, क्योंकि ऐसी हरेक जीत के बदले प्रकृति हमसे बदला लेती है”।

अगर अभी भी धरती माँ को साम्राज्यवादियों और इनके पिछलग्गूओं की मुनाफे की हवस से नहीं बचाया गया तो न धरती माँ रहेगी और न ही मानव जाति। अगर हम अभी भी नहीं जागे तो पूरी धरती का विनाश तय है।

 

मैं जरा देर से इस दुनिया में पहुँचा

तब तक पूरी दुनिया सभ्य हो चुकी थी

                                सारे जंगल काटे जा चुके थे

                                जानवर मारे जा चुके थे

                                वर्षा थम चुकी थी

                                और तप रही थी पृथ्वी

                                आग के गोले की तरह–––––

चारों तरफ लोहे और कंक्रीट के

बड़े–बड़े घने जंगल उग आये थे

आदमी का शिकार करते कुछ आदमी

अत्यन्त विकसित तरीकों से––––

–– कुँवर नारायण