आज देश में ऐसा कोई राज्य नहीं है जहाँ धरने, प्रदर्शन और हड़तालें न चल रही हों। कहीं मजदूर हड़ताल पर हैं तो कहीं किसान आन्दोलन कर रहे हैं। कहीं शिक्षक और नौजवान धरने–प्रदर्शन कर रहे हैं तो कहीं पूर्व सैनिक सड़कों पर हैं।

दिल्ली सरकार ने दिल्ली ट्रांसपोर्ट कारपोरेशन (डीटीसी) के कर्मचारियों का वेतन कम करने का तुगलकी फरमान जारी कर दिया। इस कानून के खिलाफ 21 अक्टूबर को डीटीसी के संविदा कर्मचारियों ने हड़ताल कर दी। इसी दौरान शिक्षा विभाग, नगर–निगम एवं बाल विकास और दिल्ली शहरी आश्रम सुधार बोर्ड के संविदा कर्मचारियों ने भी हड़ताल की। इनकी माँगें बड़ी ही साधारण और संवैधानिक हैं–– समान काम, सामान वेतन की व्यवस्था लागू की जाये और नौकरी की सुरक्षा की पूरी गारन्टी दी जाये।

12 सितम्बर 2018 को पूर्वी दिल्ली नगर–निगम के सफाई कर्मचारियों ने वेतन का नियमित भुगतान और कर्मियों को स्थायी करने की माँग को लेकर हड़ताल कर दी। इस हड़ताल पर सर्वोच्च न्यायालय ने टिप्पणी की कि “यह दुर्भाग्यपूर्ण और दुखद है कि सफाई कर्मचारी वेतन के नियमित भुगतान की माँग कर रहे हैं और केन्द्र सरकार ने वेतन रोक रखा है।”

हरियाणा रोडवेज कर्मचारियों ने 16 अक्टूबर को हड़ताल कर दी क्योंकि सरकार ने रोडवेज को तहस–नहस करने के लिए 720 निजी बसों को परमिट दे दिया था। सरकार ने हड़तालियों से बातचीत करना तो दूर, उलटा इसेन्सियल सर्विस मेंटिनेंस एक्ट (ईस्मा) लगाकर उन्हें डराने की कोशिश की। सरकार ने हड़ताल का नेतृत्व कर रहे कई महत्त्वपूर्ण नेताओं और सैकड़ों कर्मचारियों को बर्खाश्त करने के आदेश दे दिया। पर इससे कर्मचारियों के हौसले पस्त नहीं हुए। लगभग 20 हजार कर्मचारियों ने हड़ताल जारी रखी। सरकार के रौंगटे तब खड़े हो गये जब राज्य के अन्य सरकारी विभागों और जनमानस ने हड़ताली कर्मचारियों का जबरदस्त समर्थन किया। अन्त में न्यायालय ने हड़ताल रुकवाने में दखल दिया।

राजस्थान में भी हड़तालें हो रही हैं। 28 सितम्बर को लो फ्लोर बस ठप्प रही। 17 हजार रोडवेज कर्मचारी हड़ताल पर चले गये। इनकी माँगंे हैं कि जो कर्मचारी कच्चे हैं, उन्हें पक्का किया जाये, समय पर वेतन दिया जाये, मेडिकल की सुविधा दी जाये, रोडवेज का पूरी तरह से निजीकरण बन्द हो चाहे बस हो या डिपो, 8 हजार रिक्त पदों की भर्ती की जाये, सातवे वेतन आयोग का लाभ तुरन्त दिया जाये, पुरानी बसों की जगह नयी बसें लायी जायें, रोडवेज कर्मचारी हर महीने 5 प्रतिशत अधिक कमाई करके देने के हिटलरी फरमान से भी नाराज हैं क्योंकि कर्मचारियों को मात्र 9 हजार रुपये मासिक वेतन मिलता है और डबल ड्यूटी अलग से करनी पड़ती है।

उत्तर प्रदेश में बीटीसी और उर्दू शिक्षक नियुक्ति पत्र लेने के लिए लगातार धरना–प्रदर्शन कर रहे हैं। लाखों शिक्षामित्र समय से बढ़े हुए वेतन की माँग को लेकर धरने पर हैं। पूरे राज्य में लेखपाल वेतन बढ़ाने को लेकर हड़ताल पर चले गये। वहीं बिजली विभाग के कर्मचारी तेजी से हो रहे निजीकरण के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं।

आशा सहयोगिनी अपनी न्यूनतम मजदूरी की माँग कर रही हैं। इनको मात्र 2500 रुपये महीने मिलते हैं जबकि इन्हें तीन विभागों में काम करना पड़ता है–– स्वास्थ्य विभाग, महिला और बाल विकास तथा पंचायती राज विभाग। लेकिन सरकार इनकी जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है। इसलिए यह भी आज सड़कों पर लड़ रही हैं और यह सवाल भी है कि क्या इतने कम पैसों में काम कराना गैर–कानूनी नहीं है? क्या यह सरकार अंधी है?

इसी तरह रोडवेज हड़ताल की अगली कड़ी पांडिचेरी के रोडवेज कर्मचारी हैं, जो 29 अक्टूबर 2018 को वेतन बढ़ाने की माँग के साथ हड़ताल पर चले गये।

राष्ट्रीय स्तर पर 30–31 मई 2018 को 10 लाख बैंक कर्मचारियों की हड़ताल हुई। इनकी माँग थी–– काम के हालात सुधारे जायें, वेतन बढ़ाये जायें। पिछले 5 साल से कोई वेतन नहीं बढ़ाया गया। बैंकों में नोटबन्दी के दौरान जो ओवरटाइम किया उसका भुगतान किया जाये। 16–16 घण्टे काम के बाद नोटबन्दी में आया फटा–सड़ा खराब नोट, नकली नोट या कम नोट सभी का घाटा बैंक कर्मियों को उठाना पड़ा, उसका भुगतान किया जाये। बैंक कर्मियों ने बताया कि बैंक को घाटा उनकी वजह से नहीं है। एनपीए का नुकसान बड़े उद्योगपतियों ने बैंक के बड़े अधिकारियों और नेताओं के साथ मिलकर किया और उन्हें देश से बाहर भगाने का काम सरकार ने किया, हम जैसे छोटे कर्मचारियों ने नहीं। हमारे लिए तो कोई छुट्टी भी नहीं। रविवार में भी काम।

कर्मचारियों का 2 प्रतिशत और अपनी तनख्वाह कई गुना बढ़ा रहे हैं ये नेता। कैसी सरकार है?

लाखों अर्द्धसैनिक बलों के साथ भी भेदभाव है। इसलिए ये जवान सेना की तरह समान पंेसन और वेतन की माँग को लेकर लगातार धरने–प्रदर्शन कर रहे हैं। इस बीच पूरे देश के बेरोजगार नौजवान भी एसएससी और अन्य भर्तियों में हो रही धाँधली को लेकर सड़कों पर उतरे।

राष्ट्रीय स्तर पर ट्रांसपोर्टर भी 20 जुलाई से डीजल की बढ़ती कीमतों और डीजल को जीएसटी के अन्दर लेने की माँग को लेकर हड़ताल पर चले गये। सरकार के पास लाठी–गोली के अलावा उन हड़तालियों को देने के लिए कुछ नहीं।

यह तो हुई मजदूरों, कर्मचारियों और बेरोजगारों की बात, लेकिन आज अगर देशवासी अपनी संस्कृति और पर्यावरण को बचाना चाहते हैं तो उसे लाठी–गोली और जेल मिल रही है और उन्हें विकास विरोधी बताया जा रहा है। इसका ज्वलन्त उदाहरण है तूतीकोरिन जहाँ 13 आन्दोलनकारियों को चुन–चुनकर गोली मारी गयी।

किसान अगर अपनी फसल का समय से वाजिब दाम माँगें तो उसे भी लाठी–गोली मिलती है जैसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों का किसान क्रान्ति यात्रा के दौरान यूपी बार्डर पर मिली। पिछले साल मध्य प्रदेश के 6 किसानों की गोली मारकर हत्या कर दी गयी थी, जब वे अपनी माँगों को लेकर प्रदर्शन कर रहे थे। जमीन अधिग्रहण मामले में भी किसानों का तब दमन किया गया जब उन्होंने अपनी जमीन देने से मना किया या जमीन का सही मुआवजा माँगा। जैसे–– गाजियाबाद, नोएडा, मेरठ और जयपुर में किसानों पर लाठियाँ बरसायी गयीं और उलटा उन पर ही मुकदमे दर्ज किये गये। इसके बाद भी सरकार किसानों का मनोबल तोड़ने में कामयाब नहीं हुई। किसानों के आन्दोलन में लगातार वृद्धि इस बात का संकेत दे रही है कि वे चुप बैठने वाले नहीं हैं।

मजदूर समय से अपने वेतन और अपने हक–हकूकों की माँग करें तो लाठी–गोली मिल रही है। जैसे–– अभी दिल्ली में सफाई कर्मचारियों को मिली। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ की सड़कों पर तो आये दिन प्रदर्शनकारी लहुलुहान होते हैं। वहीं दूसरी तरफ राज्य सरकारें या केन्द्र की सरकार देश के पूँजीपतियों के लाखों–करोड़ों रुपये का कर्ज माफ कर रही है। लेकिन गरीब मेहनतकश मजदूरों और किसानों के लिए सरकार के पास पैसा नहीं है। राष्ट्रीय कोष जनता के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों के द्वारा भरा जाता है लेकिन उस पर उनका कोई हाथ नहीं।

अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर सरकार ऐसा क्यों कर रही है? ऐसी कौन सी नीतियाँ हैं जिनके द्वारा आज जनता पर निर्मम अत्याचार और शोषण हो रहा है। सरकार किसी की भी बने, लूटतंत्र रुकने के बजाय बढ़ता जा रहा है। आज देश की खराब होती हालत के चलते ही पूरा देश हड़तालों–धरना–प्रदर्शनों में तब्दील होता जा रहा है। इसकी सबसे बड़ी वजह देश में लागू उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण की नयी आर्थिक नीतियाँ हैं। नयी आर्थिक नीतियों का एक ही मकसद है–– जनता से छीनकर देशी–विदेशी पूँजीपतियों की झोली भरना।

सरकार आज किसी भी कीमत पर नयी आर्थिक नीतियों से पीछे हटने को तैयार नहीं है। सरकार किसी की भी सत्ता में आये, उसका सबसे पहला काम इन नीतियों को बढ़ा–चढ़ाकर लागू करने का ही है। इसलिए विपक्ष कहीं भी मुखर विरोध नहीं कर पा रहा है, सिवाय औपचारिक बयानबाजी और घड़ियाली आँसू बहाने के। इस स्थिति से हम समझ सकते हैं कि आज देश में विपक्ष है ही नहीं। जब तक हम इन जनविरोधी नीतियों को नहीं समझेंगे तब तक हम इन समस्याओं से नहीं लड़ सकते। इसलिए हर क्षेत्र में जबरदस्त विरोध तथा त्याग और बलिदान के बावजूद कोई भी आन्दोलन ज्यादा सफल नहीं हो रहा है और न ही सरकार पीछे हटती दिखाई दे रही है, सिवाय झूठे आश्वासन देने के।

आखिर इसकी वजह क्या है कि जनता के संघर्ष और आन्दोलन कामयाब नहीं हो पा रहे हैं? इसकी वजह एकदम साफ है कि समस्या का सही कारण न समझ पाना जिसके चलते हमारे संघर्षों का निशाना सही जगह न लगकर भटक जाता है।

हमें इसकी असली जड़ को समझना होगा। जब अलग–अलग तबके और वर्गों की विभिन्न माँगे कहीं न कहीं जाकर नयी आर्थिक नीतियों से टकरा रही हैं। चाहे वह सार्वजनिक उद्योग और सेवा क्षेत्र का निजीकरण हो, नौजवानों की भर्तियों को कम करना हो या किसानों की सब्सिडी खत्म करने का मामला हो, और यह सब नयी आर्थिक नीति का नतीजा है। ये नीतियाँ सरकार और पूँजीपतियों के पक्ष में हैं जबकि जनता के भले के लिए इन नीतियों का खात्मा जरूरी है, जो सरकार होने नहीं देती है। इन नीतियों का मतलब है–– नयी गुलामी। आज शासक वर्ग हमारे ही रंग–रूप का है, लेकिन उसकी नीतियाँ गोरे अंग्रेजों से भी ज्यादा खतरनाक हैं। इसलिए नयी आर्थिक गुलामी का हल भी एक ही है। जिस तरह से हम एकजुट होकर गोरे अंग्रेजों से लड़े थे उसी तरह जाति–धर्म, क्षेत्र से ऊपर उठकर ही हम काले अंग्रेजों की काली नीतियों से लड़ सकते हैं। इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं।