बड़ों के दुख की बच्चों पर छाया
साहित्य विष्णु नागरहिन्दी गोबरपट्टी का आज भी यह सौभाग्य है कि जब बड़े–बड़े मीडिया घरानों ने हिन्दी की व्यावसायिक पत्रिकाएँ लगभग बन्द कर दी हैं और जब अंधविश्वासी– साम्प्रदायिक सोच चरम पर है, तब भोपाल से बच्चों की दो गैर व्यावसायिक और महत्वपूर्ण पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही हैं–– ‘चकमक’ और ‘साइकिल’। ‘चकमक’ मासिक है जबकि ‘साइकिल’ द्वैमासिक। ‘साइकिल’ के प्रकाशन के अभी छह वर्ष हुए हैं और ‘चकमक’ का अप्रैल अंक उसका 451वाँ अंक है यानी यह पत्रिका लगभग 37 वर्ष से भी अधिक पुरानी है। इसे मेरे बच्चों ने भी पढ़ा है, जो अब चालीस से अधिक उम्र के हैं।
‘चकमक’ हिन्दी की अब तक की इकलौती ‘बाल विज्ञान पत्रिका’ है। यह बच्चों पर विज्ञान की जानकारियों का बोझ नहीं लादती, उन्हें वैज्ञानिक सोच से लैस करने की विभिन्न विधियाँ अपनाती है। शहरी मध्यवर्ग के बच्चे तो अब अमूमन मजबूरी में ही अपने स्कूल में हिन्दी पढ़ते हैं मगर ‘चकमक’ का फोकस कभी इस वर्ग के बच्चों पर रहा भी नहीं। अब तो यह एक तरह से पूरी तरह निम्न मध्यम वर्ग के उन बच्चों की वैज्ञानिक समझ बढ़ाने की पत्रिका बन चुकी है, जो या तो आज सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे हैं या इसी किस्म के निजी स्कूलों में हैं। इनकी कल्पना और ज्ञान के संसार को यह पत्रिका अनथक रूप से विस्तृत कर रही है।
इस पत्रिका में बहुत विविधता है। बच्चों के लिए लिखे साहित्य के लिए ही नहीं, उनके अपने लेखन और चित्रण के लिए भी इसमें काफी जगह है। इसका एक स्थायी स्तम्भ–– ‘क्यों–क्यों’ है। इसमें बच्चों से हर महीने में एक सवाल पूछा जाता है और अगले महीने उसका जवाब प्रकाशित किया जाता है। ये सवाल अपने ढंग के संक्षिप्त होते हैं और उनके उत्तर भी उतने ही संक्षिप्त होते हैं। जैसे मार्च अंक में पूछा गया था कि पुरुषों की मूँछें होती हैं और महिलाओं की नहीं, ऐसा क्यों है? अप्रैल अंक में बच्चों ने अनेक कोणों से इसके दिलचस्प जवाब दिये। पत्रिका का बल इस या इस तरह के सवाल के विज्ञानसम्मत उत्तर से अधिक उनकी कल्पनाशीलता को उत्तेजित करना है और केवल ऐसे ही जवाब छापे जाते हैं। इससे पहले फरवरी अंक में बच्चों से पूछा गया था कि ‘यदि तुम किसी एक ऐसी चीज को मुफ्त कर सकते हो, जो अभी पैसे से मिलती है तो वह कौन सी चीज होगी? और तुम उसे क्यों मुफ्त करना चाहते हो?’ मार्च अंक में प्रकाशित इसके अधिकतर उत्तर पढ़कर स्पष्ट होता है कि इसका जवाब देनेवाले बच्चे अभावग्रस्त परिवारों से आये हैं। ये परिवार आज भी बेहद बुनियादी समस्याओं से जूझ रहे हैं। इन बच्चों की अलग कोई समस्या नहीं रही है, इनके परिवार की समस्या ही इनकी अपनी समस्या बन चुकी है। इन्हें पूरी तरह चिन्तामुक्त अपना एक संसार बनाने की सुविधा नहीं है, जो आज सौभाग्य से मध्य और उच्च वर्ग के बच्चों को हासिल है। ये परिवार के बड़ों को विकट समस्याओं का सामना करते हुए देख रहे हैं और उससे स्वयं भी प्रभावित हैं। ‘चकमक’ ने उन्हें किसी एक चीज को मुफ्त करने का सपना देखने का मौका दिया तो इस बहाने भी उनके अपने सामाजिक–पारिवारिक संकट सामने आ गये। इनमें से किसी बच्चे की समस्या घर में गेहूँ का न होना है। किसी की चिन्ता परिवार की खराब आर्थिक स्थिति के कारण बिजली का बिल न चुका पाना है या गैस सिलेंडर न खरीद पाना है। ऐसी चिन्ताएँ बच्चों की अपनी चिन्ताएँ भी बन गयी हैं। वे इससे परे होकर सोचने–देखने–कल्पना करने में सक्षम नहीं रह गये हैं। बच्चों और बड़ों की चिन्ताएँ एक स्तर पर एकमेक हैं, जिसे किसी समाज की स्वस्थ स्थिति नहीं कहा जा सकता, भले ही यह दावा किया जा रहा हो कि भारत अगले कुछ वर्षों में दुनिया की तीसरी बड़ी आर्थिक ताकत बन जाएगा।
चौथी से नवीं कक्षा में पढ़नेवाले ये बच्चे और बच्चियाँ परिवार पर पड़नेवाले आर्थिक दबावों के बारे में काफी संवेदनशील हैं। ‘चकमक’ के प्रश्न के उत्तर में ये अपनी समस्या बताते हैं और उसका कच्चा–पक्का समाधान अपने ढंग से बताते हैं। उनके समाधान को चूँकि मुफ्त में कुछ देने तक सीमित कर दिया गया है, इसलिए उन्होंने उत्तर भी इसी दायरे में दिये हैं।
शासकीय बजरिया स्कूल, बीना (मध्य प्रदेश) की छठवीं कक्षा की बच्ची अंकित रैकवार कहती है कि उसके “घर में गेहूँ खत्म हो जाने पर हमारे दादाजी और पापाजी बहुत परेशान हो जाते हैं। जब ये दोनों परेशान हो जाते हैं तो घर का माहौल बहुत चिन्ता से भरा हो जाता है, इसलिए गेहूँ मुफ्त होना चाहिए ताकि मेरे घर का माहौल भी अच्छा बन सके।” स्पष्ट है कि घर में अनाज का न होना और उस कारण घर में अशान्ति का वातावरण और अगले दिन भूख की आशंका से छठी कक्षा की बच्ची अछूती नहीं रह सकती। यह परिवार या तो गरीब होते हुए भी किन्हीं कारणों से पाँच किलो मुफ्त अनाज की सुविधा से वंचित है या आर्थिक रूप से समर्थ होने के बावजूद किसी अन्य कारण से यह संकट बीच–बीच में झेलता रहता है।
इस माहौल के तनावों का संकेत यहाँ बहुत संयमित भाषा में दिया गया है, जिससे स्पष्ट नहीं होता कि इस हालत का वास्तविक कारण क्या है? जिसे बच्ची अपने दादाजी और पिता की चिन्ता बता रही है, कहीं वह इन दोनों के बीच उत्पन्न तनाव तो नहीं है? नौवीं कक्षा की जीआईसी केवर्स, पौड़ी गढ़वाल की सलोनी इस तकलीफ को अलग तरह से व्यक्त करती है। वह वैज्ञानिक बन कर ऐसा ‘आविष्कार’ करना चाहती है कि हवा से आटा बनाया जा सके क्योंकि ‘आजकल आटा बहुत महँगा है’।
सीतापुर, सोनतराई, छत्तीसगढ़ की पावनी कच्छप बिजली मुफ्त चाहती है ‘क्योंकि हमारे घर में बिजली के बिल भरने के पैसे नहीं होते।’ लखनऊ का उबेद गैस मुफ्त चाहता है क्योंकि अब लकड़ियाँ जल्दी मिलती नहीं और चूल्हे पर खाना बनाने से मम्मी की आँखों में धुआँ लगता है। तरहिया, उत्तर प्रदेश की अनुष्का किताबें मुफ्त चाहती है क्योंकि पुस्तकें बहुत महँगी हैं और उसका सपना किताबें पढ़कर आईएएस बनना है। मुफ्त किताबों से उसे लगता है कि उसका यह सपना साकार हो सकता है। छेरकापुर, बलौदा बाजार, छत्तीसगढ़ की चाँदनी ध्रुव की नजर में पुस्तकें और कापियाँ तो सरकार अब देने लगी है मगर कई बच्चों के पास तो बैग खरीदने तक के पैसे नहीं होते। उनके पास बैग नहीं होगा तो वे पुस्तक–कापियों को किसमें रखकर स्कूल ले जाएँगे? परसा, सरगुजा, छत्तीसगढ़ की संजना एक्का के गाँव में पानी की उपलब्धता की स्थाई समस्या है। वह चाहती है कि नल–जल योजना को बिना शुल्क गाँव–गाँव तक ले जाया जाये।
जीआईसी, केवर्स, पौड़ी गढ़वाल के पवन मन्द्रवाल के गाँव से पौड़ी तक का बस किराया पचास रुपये है, जो लोगों को बहुत भारी पड़ता है। इस वजह से बहुत से लोग एक तरफ पैदल आने या जाने को मजबूर हैं। फैजाबाद की शिफा खातून ट्रेन किराये को विकट समस्या बताती है। वह कहती है कि इस वजह से बहुत से लोग ट्रेन को दूर से देखते तो हैं मगर उनमें चढ़कर जा नहीं पाते।
कुछ बच्चों ने अपनी उम्र की नजर से भी कुछ समस्याओं को देखा है। ग्राम पावरझंडा, शाहपुरा, मध्य प्रदेश का बाली यादव बहुत भोलेपन से कहता है कि मेरी और मेरे छोटे भाई की लड़ाई अक्सर मोबाइल को लेकर होती रहती है। हम दोनों को किसी प्रश्न का उत्तर नहीं मिलता तो हम मोबाइल में उसे देखते हैं। अगर मोबाइल फ्री मिलता तो वह सबके पास होता और सब अपना–अपना काम इससे कर पाते। बुलन्दशहर की आध्या सिंह की स्ट्राबेरी खाने की इच्छा अधूरी है मगर वह पत्रिका की मुख्य थीम से हटकर इसका मुफ्त में आनन्द लेने को उत्सुक नहीं है–– ‘क्योंकि मुफ्त की चीजें खराब होती हैं।’
फैजाबाद की महक को शरारा पहनना पसन्द है लेकिन इसकी कीमत इतनी ज्यादा है कि उसके पापा का बजट इसकी अनुमति नहीं देता। पोखरमा, लखीसराय में चौथी कक्षा का विद्यार्थी सत्यम कुमार फ्री में साइकिल चाहता है ‘क्योंकि बहुत से बच्चों का यह सपना है कि मैं कभी साइकिल चलाऊँगा मगर वे खरीद नहीं पाते।’ फैजाबाद के छात्र का नाम भी सत्यम कुमार ही है। उसका कहना है कि उच्च स्तरीय क्रिकेट खेलने के लिए क्रिकेट अकादमी में प्रशिक्षण मिलना जरूरी है मगर इसकी फीस बहुत अधिक होने से बहुत से बच्चे अपनी काबिलियत साबित नहीं कर पाते।
ये बच्चे जो अपनी उम्र के हिसाब से अपने लिए छोटे–छोटे सपने देख रहे हैं, उससे भी परिवार में आर्थिक अभाव का ही अहसास होता है। हो सकता है इन बच्चों ने और भी बहुत से संकटों की बात की हो मगर एक बच्चा, एक बात के सिद्धान्त पर चलते हुए सम्भव है सम्पादक ने कुछ बातों को सम्पादित कर दिया हो।
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