उत्तराखण्ड में पहले एमबीबीएस और उसके बाद आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेज के छात्रों ने फीस वृद्धि के खिलाफ जुझारू आन्दोलन चलाया। आज स्थिति इतनी भयावह हो गयी है कि सरकार और प्रशासन छात्रों की अवाज सुनने के बजाय फीस बढ़ानेवाले निजी कॉलेज मालिकों के सामने नतमस्तक हो रहे हैं।
उत्तराखण्ड राज्य में 13 निजी और सिर्फ 3 सरकारी आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेज हैं। अक्टूबर 2015 में 13 निजी कॉलेज मालिकों ने मनमाने ढंग से छात्रों की फीस 80,000 रुपये से लगभग ढाई गुना बढ़ाकर 2,15,000 रुपये कर दी। हर राज्य में निजी कॉलेजों की फीस निर्धारण के लिए एक “फीस निर्धारण समिति” होती है, जिसका अध्यक्ष हाई कोर्ट का रिटायर्ड जज होता है। सिर्फ यही समिति फीस निर्धारण का फैसला लेती है। लेकिन आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेज के मालिकों में धन्ना सेठ, रिटायर्ड अधिकारी, उद्योगपति और सरकार में बैठे मंत्री शामिल हैं। फीस बढ़ने से 2000 छात्रों के अभिभावकों पर भारी आर्थिक बोझ पड़ गया। कई छात्रों की स्थिति ऐसी है कि वे बढ़ी हुई फीस नहीं दे पायेंगे, उन्हें अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़़नी पड़ेगी। लेकिन मालिकों को छात्रों की पढ़ाई और उनके भविष्य से कोई लेना–देना नहीं। सरकार ने भी उनका साथ देकर अपना रवैया साफ कर दिया। 
कॉलेज मालिकों और कॉलेज प्रशासन के खिलाफ छात्रों ने तभी से लड़ाई शुरू कर दी थी, जब फीस बढ़ायी गयी थी। लेकिन प्रशासन ने उनकी कोई बात नहीं सुनी। उलटे उन्हें मुँह बन्द रखने की धमकियाँ दी गयीं और कॉलेज मालिकों के पालतू गुण्डे उन्हंे धमकाते रहे। लेकिन छात्रों ने हार नहीं मानी और जब कॉलेज प्रशासन ने बढ़ी हुई फीस वापस नहीं ली, तो छात्रों ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। छात्र कोर्ट में केस जीत गये और 9 जुलाई 2018 को कोर्ट ने कॉलेज मालिकों को आदेश दिया कि बढ़ी हुई फीस जिन छात्रों ने जमा की है उन्हें 2 सप्ताह में वापस की जाये। कॉलेज ने कोर्ट के आदेश को मानने से इनकार कर दिया। जाहिर है कि कॉलेजों के मालिक कानून को अपने हाथ की कठपुतली समझते हैं। कोर्ट के सिंगल बेंच फैसले को जब कॉलेज मालिकों ने मानने से इनकार कर दिया, तब 9 अक्टूबर 2018 को छात्रों ने हाई कोर्ट की डबल बेंच में दुबारा केस शुरू किया और इस बार भी फैसला छात्रों के हित में ही आया। लेकिन कॉलेज मालिक इसे भी नहीं मान रहे हैं। गौर करने वाली बात यह है कि कोर्ट के आदेश को लागू करवाने में पुलिस–प्रशासन की तरफ से कॉलेज मालिकों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गयी। इससे साफ हो जाता है कि इस अन्याय में शासन–प्रशासन सभी कॉलेज मालिकों के साथ खड़ा है।
अन्त में जब छात्रों ने देखा कि कहीं कोई सुनवाई नहीं हो रही है, तो उन्होंने धरना–प्रदर्शन शुरू कर दिया ताकि प्रशासन और सरकार की नीन्द टूटे और निजी कॉलेजों में हो रही लूट का असली चेहरा जनता के सामने आयेे। उनका धरना प्रदर्शन 63 दिनों तक चला। इसमें एक छात्र 9 दिनों तक आमरण अनशन पर बैठा रहा। सरकार और प्रशासन की तरफ से कोई उनकी सुध लेने धरना स्थल पर नहीं आया। 19वें दिन जब पुलिस आयी, तो उसने छात्रों को मीठी गोली देने की कोशिश की। लेकिन छात्र अपनी माँग पर अड़े रहे और टस से मस नहीं हुए। पुलिस पूरी योजना के तहत अँधेरे में आयी। बहाना था अनशन पर बैठे छात्र को फोर्स फीडिंग कराना और ग्लूकोज चढ़ाना। खुद उस छात्र ने मना कर दिया। इसके बावजूद पुलिस ने छात्रों के साथ जबरदस्ती की, गालियाँ दी, उन्हें पीटा, छात्राओं को भी नहीं छोड़ा। छात्र चीखते–चिल्लाते रहे लेकिन पुलिस दमन के लिए आयी थी और इनसानियत का रहा–सहा लबादा भी उतारकर फेंक दिया था। उसने बिलकुल दरिन्दों की तरह व्यवहार किया। छात्र–छात्राओं को गम्भीर चोटें आयीं, लेकिन किसी पुलिसवाले का बाल भी बाँका नहीं हुआ, क्योंकि हिंसा केवल पुलिस की तरफ से की गयी थी।
जिस पुलिस प्रशासन का कर्तव्य है कि वह कोर्ट के आदेश को लागू करवाये, वह आज उसका उलटा कर रहा है। कोर्ट का आदेश छात्रों के पक्ष में है और कोर्ट ने कॉलेज मालिकों को छात्रों की फीस वापस करने का आदेश दिया है। पुलिस प्रशासन को कॉलेज मालिकों को गिरफ्तार करना चाहिए, लेकिन वह ठीक उसका उलटा कर रही है। 
परीक्षाएँ आने वाली हैं। छात्र परेशान और हताश हैं। उन्हें कहीं से कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही है और कॉलेज मालिक उन्हें परीक्षा में बैठने नहीं दे रहे हैं। कॉलेज मालिक मनमानी पर उतर आये हैं। छात्रों ने भी कमर कस ली है और फिर से निजी शिक्षण संस्थानों में हो रही लूट के खिलाफ धरना–प्रदर्शन करने की घोषणा कर दी है।
जरा सोचिये अगर आपके साथ ऐसा होता और उन पुलिस वालों के बच्चों के साथ ऐसा होता तो क्या वे लोग धरना–प्रदर्शन नहीं करते? तब भी क्या पुलिस अपने बच्चों पर लाठियाँ बरसाती? 
आज की मौजूदा सरकारें, चाहे वह केन्द्र की हो या राज्य की, हर क्षेत्र में निजीकरण और मुनाफे की लूट को बेतहाशा बढ़ावा दे रही हैं। सरकारी स्कूलों और सार्वजनिक संस्थानों पर ताला लगा रही हैं। इन्हें निजी हाथों में कौड़ियों के दाम बेच रही हैं। शिक्षा के निजीकरण का मतलब है कि शिक्षा को बिकाऊ माल बना देना। जिनके पास पैसा नहीं है, वे शिक्षा से वंचित रह जायेंगे।  सरकारें सस्ती शिक्षा, सस्ती स्वास्थ्य सुविधाओं और सबको रोजगार जैसी मूलभूत जरूरतों को जनता से छीन रही हैं। यही वजह है कि एक तरफ लोग इलाज के अभाव में बीमारियों से मर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ मेडिकल के डॉक्टर और छात्र सड़कों पर आन्दोलन कर रहे हैं। यह अन्याय कब तक चलता रहेगा?