पंजाब में 32 प्रतिशत आबादी मजहबी या रामदासिया समुदाय से आनेवाले दलितों की है, लेकिन उनके पास सिर्फ 3 प्रतिशत जमीन का ही मालिकाना है। इतनी बड़ी आबादी के लिए यह जमीन खेती करने के लिए अपर्याप्त है। इसलिए इस समुदाय की बड़ी आबादी बड़े किसानों के खेतों में 350 रुपये दिहाड़ी पर खेती का काम करती है। 2011 की जनगणना के अनुसार पंजाब में 11 लाख श्रम बल कार्यरत था जिसमें से लगभग 50 प्रतिशत खेतिहर मजदूर था। इनमें अधिक संख्या दलितों (मजहबी या रामदासिया) की है। इसके अलावा खेती से जुड़े व्यवसाय पर भी बड़ी आबादी का जीवन निर्भर है। लेकिन ये खेत मजदूर, खेती से जुड़े अलग–अलग व्यवसाय करने वाले लोग और छोटे किसान भी बड़ी संख्या में नये कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहे देशव्यापी किसान आन्दोलन में बढ़–चढ़कर हिस्सेदारी और समर्थन कर रहे हैं। ऐसा क्यों ?

दरअसल सरकार और सरकार पोषित मीडिया लगातार इस झूठ का प्रचार कर रही है कि यह कृषि कानून छोटे किसानों और खेत मजदूरों के हित में है, लेकिन खुद भूमिहीन खेत मजदूर, छोटे किसानों और खेती किसानी से जुड़े दूसरे व्यवसायों में लगे लोगों का मानना है कि यह कानून उनके हित में नहीं, बल्कि इससे उन्हें नुकसान होगा, यह सिर्फ बड़े कार्पाेरेट घरानों–– अडानी–अम्बानी को ही फायदा पहुँचाएगा। तीनों कानूनों से यह साफ पता चलता है कि ये कानून छोटे किसान, खेतिहर मजदूर और खेती से जुड़े दूसरे व्यवसायों में मजदूरी करने वाले लोगों के हित में नहीं, बल्कि नुकसानदेह है। ये कानून उनसे मौजूदा रोजगार और काम–धन्धे को छीन कर उन्हें बड़े कार्पाेरेटों का गुलाम या बेरोजगार बना देंगे।

किसान और उसके खेत में काम करने वाले मजदूर के बीच एक सम्बन्ध होता है। हालाँकि इसमें कोई दो राय नहीं कि धनी किसान खेत मजदूरों का शोषण करता है। खेत की बुआई, निराई, फसल कटाई और उसे मण्डी में ले जाकर बेचने तक सब काम मजदूर ही करता है, फिर भी मजदूर सिर्फ दिहाड़ी पाता है जिससे वह अपने परिवार का किसी तरह गुजारा करता है जबकि फसल बेचने के बाद जो बचता है वह किसान रख लेता है। लेकिन नये कृषि कानून क्या इस शोषण को कम करेंगे या उसे और ज्यादा बढ़ा देंगे ? जाहिर है कि ये कानून मजदूरों के हित में नहीं बनाये गये हैं। कैसे ?

पहली बात यह कि एक बार निजी मण्डी स्थापित होने और सरकारी मण्डी तबाह होने के बाद पूँजीपति सस्ते में किसानों को फसल बेचने के लिए मजबूर करेंगे जिससे किसानों की आय कम होगी या वे तबाह हो जायेंगे। परिणामस्वरूप उनके खेतों में काम करने वाले मजदूरों की दिहाड़ी भी कम हो जायेगी और खेत मजदूरों का जीवन और बदतर हो जाएगा। आय कम होने से पहले से ही बदहाल खेत मजदूर का परिवार शिक्षा, स्वास्थ्य और भर पेट भोजन जैसी मूलभूत जरूरतों से और भी दूर हो जाएगा।

दूसरा, कृषि क्षेत्र बड़े पूँजीपतियों के हाथ में आ जाने के बाद वे बड़ी सँख्या में बड़ी–बड़ी आधुनिक मशीनों को लाकर मजदूरों को खेती से बाहर धकेल देंगे। पहले जिस फसल के उत्पादन में दस मजदूरों की जरूरत होती थी एक बार मशीनंे आ जाने के बाद उस काम को दो मजदूरों से कराया जायेगा। बाकि आठ मजदूरों को भूखों मरने के लिए छोड़ दिया जायेगा या वे मजदूर शहरों, औद्योगिक इलाकों की तरफ पलायन करेंगे जहाँ पहले ही बेरोजगारी और मजदूरों का शोषण अपने चरम पर है। इसकी एक झलक हमने कोरोना काल के दौरान देखी। वहीं दूसरी तरफ सरकारी मण्डी व्यवस्था तबाह हो जाने के बाद आढ़तियों, माल ढुलाई और मण्डी के रख–रखाव, साफ–सफाई इत्यादि काम करने वाले मजदूरों का रोजगार भी खत्म हो जाएगा।

तीसरा, यह खबर कई बार अखबारों और दूसरे माध्यमों से सामने आ चुकी है कि अडानी ग्रुप ने देश भर में कई जगह वेयरहाउस/साइलो (विराट अनाज गोदाम) का निर्माण कराया है जिनमें हरियाणा के कैथल में बना 2.25 लाख टन क्षमता वाला साइलो स्टारेज शामिल है। फाईन्सियल एक्सप्रेस 2008 में छपी एक रिपोर्ट में बताया गया है कि अडानी ग्रुप ने 2005 से अब तक पंजाब, हरियाणा, तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल में 5.75 लाख टन क्षमता वाले वेयरहाउस/साइलो स्टोरेज बनवाये हैं जिनकी संख्या पूरे देश में 13 से ज्यादा है। यहाँ तक कि अडानी ग्रुप की एक संस्था एएएलएल ने एफसीआई के साथ करार किया कि एफसीआई जो फसल खरीदेगा उसे इन्हीं वेयरहाउस/साइलो में रखेगा जिसका किराया एफसीआई संस्था एएएलएल को देगी। दूसरी तरफ रिलाइन्स समूह जो 2006 से ही खुदरा बाजार में अपने पैर पसारने और खुदरा बाजार पर कब्जा करके छाटे–बड़े दुकानदारों को बाजार बाहर करने का भरसक प्रयास कर रहा है। इस समूह ने अब तक पूरे देश में 621 रिलाइन्स फ्रेश/स्मार्ट स्टोर और 52 रिलाइन्स मार्केट खोले हैं जिनमें फल–सब्जी समेत रोजमर्रे की जरूरत के सभी सामान मिलते हैं। इससे साफ जाहिर होता है कि अडानी और रिलाइन्स दोनों फसल खरीद से लेकर वितरण तक की पूरी प्रक्रिया पर अपना कब्जा जमाना चाहते हैं। यही कारण है कि सरकार इन कानूनों को वापस नहीं ले रही है। इन कानूनों के लागू होने पर सिर्फ धनी किसान ही नहीं बल्कि करोड़ों छोटे किसानों, खेत मजदूरों, आढ़तियों और सरकारी मण्डियों में काम करने वाले मजदूरों तथा छोटे–बड़े दुकानदारों और खेती से जुड़े तमाम कारोबार में लगे लोगों का धन्धा चैपट हो जाएगा।

इन बातों से साफ पता चलता है कि अडानी और अम्बानी और मोन्सण्टो, कारगिल, आईटीसी जैसे मुनाफाखोर पूरे देश की कृषि प्रणाली को अपने कब्जे में करना चाहते हैं जिससे ये अकूत मुनाफा बटोर सकें। सरकार भी इस मामले में इन्हीं कम्पनियों के मालिकों के साथ खड़ी है, बल्कि इन्हीं के हाथ की कठपुतली बनी हुई है। आज यह बात सभी के समझ में आ गयी है। यहाँ तक कि पूरे गाँव और कस्बों की अर्थव्यवस्था ही खेती से चलती है, चाहे दर्जी हो, बढ़ई हो, लुहार हो, राजमिस्त्री हो, ट्रैक्टर मैकेनिक हो या बहुत सारे काम धन्धांे से अपनी रोजी रोटी चलाने वाले लोग हों। जब खेती से होने वाली आय गाँव तक नहीं पहँचेगी तो उसका असर इन सभी काम धन्धों पर पड़ेगा।

इसीलिए सिर्फ बड़े किसान, मध्यम और गरीब किसान ही नहीं बल्कि खेती से जुड़े हर पेशे के लोग छोटे व्यापारी, दुकानदार, आढ़ती, मण्डियों में काम करने वाले मजदूर और खेत मजदूर भी इस आन्दोलन का बढ़–चढ़कर समर्थन कर रहे हैं, इसमें हिस्सेदारी कर रहे हैं और इस आन्दोलन को मजबूत बना रहे हैं।