–– सीमा श्रीवास्तव

महाराष्ट्र में महा विकास अघाड़ी गठबन्धन की सरकार गिरा दी गयी। भाजपा शासित राज्यों गुजरात, असम और गोवा में लगभग 10 दिनों तक विधायकों की बाड़ेबन्दी कर, भाजपा ने जो खेल खेला, वह सबने देखा। सरकार बदलने की कवायद तभी से की जा रही थी, जब ढाई साल पहले गठबन्धन सरकार का गठन हुआ था।

2019 में विधानसभा चुनाव के बाद, भाजपा की वादाखिलाफी से खिन्न शिवसेना ने जब नेशनलिस्ट कांगे्रस पार्टी (एनसीपी) और कांगे्रस पार्टी के साथ मिलकर सरकार बनाने का फैसला लिया, तब भी भाजपा ने एनसीपी नेता अजित पवार को अपने खेमे में मिलाकर भाजपा से इतर सरकार बनाने की कोशिशों को जबर्दस्त झटका दिया था। बीजेपी ने अपनी सरकार बना भी ली थी, लेकिन अजित पवार के वापस एनसीपी में चले जाने से बीजेपी की यह तिकड़म असफल हो गयी और अघाड़ी सरकार अस्तित्व में आ गयी। अब असन्तुष्ट नेता एकनाथ शिन्दे को मोहरा बनाकर बीजेपी, उस सरकार को गिराने के अपने मंसूबों में कामयाब हो गयी।

महाराष्ट्र में सरकार गिराने की भाजपा की तरकीबें, उसी पैटर्न का हिस्सा है, जिसके तहत उसने कर्नाटक में जनता की चुनी हुई सरकार को गिराया, मध्यप्रदेश में गठबन्धन सरकार को सत्ता से बेदखल किया और राजस्थान में कांग्रेस सरकार को गिराने की कोशिश की। पुडुचेरी में चुनाव से ठीक पहले विधायकों की खरीद फरोख्त कर कांग्रेस की सरकार गिरायी गयी। झारखण्ड और गोवा में चुनावों में जीत हासिल करने वाली सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस थी, लेकिन सरकार भाजपा की बनी। 2015 मेेें अरुणाचल प्रदेश और 2017 मेंे उत्तराखण्ड में भी कांग्रेस की सरकारों को गिराने की कोशिशें हुर्इं।

दरअसल, फासीवादी विचारधारा पर आधारित संगठन और पार्टी की कार्य प्रणाली लोकतांत्रिक हो ही नहीं सकती। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की कोख से निकली भारतीय जनता पार्टी का मूल चरित्र ही गैर लोकतांत्रिक है। अपनी स्थापना के समय अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बीजेपी नरम हिन्दुत्व का मुखौटा ओढ़े रही। लेकिन जैसे–जैसे भाजपा मजबूत होती चली गयी, उसी के साथ–साथ उसके मुखौटे भी बदलते रहे। अब, जब भारी बहुमत के साथ भाजपा लगातार दूसरी बार केन्द्र की सत्ता पर काबिज है, तो वह अपने असली चरित्र के साथ पूरी तरह सामने आ गयी है। फासीवादी विचारधारा का मूलमंत्र है–– अपने समकक्ष किसी अन्य विचार या संगठन को बर्दाश्त न करना और उसे नेस्तनाबूद करना। इसकी शुरुआत भाजपा ने 2014 के लोकसभा चुनावों से पहले ही कर दी थी। तब प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने चुनाव प्रचार में ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का नारा दिया था। कांग्रेस सरकार की नीतियों और भ्रष्टाचार से आजिज आ चुकी जनता ने बीजेपी को भरपूर वोट दिये और भारी बहुमत के साथ भगवा पार्टी केन्द्र की सत्ता में आ गयी। हालाँकि लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस को राजस्थान, कर्नाटक, छत्तीसगढ़, पंजाब, उत्तराखण्ड, गोवा, पुडुचेरी के विधानसभा चुनावों में जीत हासिल हुई। खुद प्रधानमंत्री के गढ़ गुजरात में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन बेहतरीन रहा और भाजपा बमुश्किल ही बहुमत हासिल कर सकी।

राज्योें में कांग्रेस की वापसी से भाजपा का ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का सपना टूटता नजर आया। किसी भी कीमत पर सत्ता हासिल करने के लिए, भाजपा अब हर तरह के अलोकतांत्रिक और अनैतिक हथकण्डे अपना रही है और उसका ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का नारा ‘विपक्ष मुक्त भारत’ में बदल गया है। इसकी शुरुआत 2008 में हुई थी, जब पहली बार दक्षिण के राज्य कर्नाटक में भाजपा को चुनाव में सभी पाटियों से अधिक सीटें हासिल हुर्इं थीं। 224 सीटों वाली इस विधानसभा में भाजपा को 110 सीटें मिलीं, जबकि सरकार बनाने को 112 सीटें होना जरूरी था। बावजूद इसके येदियुरप्पा के नेतृत्व में भाजपा सरकार का गठन किया गया और विधायकों की कमी को खरीद–फरोख्त के जरिये पूरा किया गया। गैर कानूनी खनन से कमाये अकूत धन से बेल्लारी के रेड्डी बन्धुओं ने छह निर्दलीय विधायकों को भारी धन का लालच देकर भाजपा में शामिल कर लिया। इनमें से पाँच को मंत्री पद भी दिये गये। सत्ता हासिल करने के लिए भाजपा के इस अनैतिक गोरखधन्धे को ‘ऑपरेशन कमल’ का नाम दिया गया और अब इसकी प्रतिध्वनि, कई गुना अधिक भ्रष्टता और अनैतिकता के साथ भाजपा के ‘सरकारें गिराओ अभियान’ में सुनाई पड़ती है।

कर्नाटक में 2018 में हुए विधानसभा चुनावों में किसी भी पार्टी को बहुमत हासिल नहीं हुआ। बीजेपी को 105, कांग्रेस को 78 और जनता दल (सेक्यूलर) को 37 सीटें हासिल हुर्इं। नतीजतन 115 सीटों के बहुमत के साथ कांग्रेस और जनता दल (एस) की गठबन्धन सरकार बनी। हालाँकि इस गठबन्धन सरकार में अन्दरूनी कलह शुरू हो गयी थी, लेकिन इस दौरान भाजपा का ‘आपरेशन कमल’ भी जारी रहा। गठबन्धन सरकार के 14 महीने के कार्यकाल के दौरान भाजपा पर सत्ता में वापसी के लिए विधायकों को भारी धन और मंत्री पद का लालच देने के तमाम आरोप लगे। येदियुरप्पा और गठबन्धन सरकार के विधायकों के बीच इस लेन–देेन को लेकर हुई बातचीत के ऑडियो रिकॉर्ड भी जारी हुए, जो चैनलों में चले। आखिर बीजेपी, विधायकों के इस ‘होलसेल ट्रेड’ में कामयाब रही और गठबन्धन सरकार के 17 विधायक, जुलाई 2019 में विधायकी से इस्तीफा देकर भाजपा शासित राज्य की राजधानी मुम्बई भाग गये। इनमें से 14 विधायक कांग्रेस और 3 विधायक जनता दल (एस) के थे।

मुख्यमंत्री एचडी कुमारास्वामी ने असेम्बली में विश्वासमत प्रक्रिया का सामना किया। 19 जुलाई से 23 जुलाई तक चली बहस में कुमारस्वामी 6 वोटों से विश्वासमत हार गये। बहस के दौरान जनता दल (एस) के एक विधायक ने बयान दिया कि उसे पाला बदलने के लिए 30 करोड़ रुपये का ऑफर दिया गया था। एक अन्य विधायक ने आरोप लगाया कि इस्तीफा देने वाले विधायक ए एच विश्वंथ को भाजपा नेताओं ने उसके 28 करोड़ रुपये का कर्ज चुकाने का भरोसा दिलाया था। भाजपा के सत्ता में काबिज होने के बाद इन 17 विधायकों में से 12 विधायकों को वायदे के अनुसार मंत्री पद दिये गये। जाहिर है कि इसमें ब्लैक मनी का जमकर इस्तेमाल किया गया और जानकारों के अनुसार हवाला के जरिये भी विधायकों तक पैसा पहुँचाया गया।

आठ महीने बाद मध्य प्रदेश में भी नाटकीय रूप से कांग्रेस सरकार गिरा दी गयी। यहाँ भाजपा के हथियार थे, कांग्रेस नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया। 10 मार्च 2021 को ज्योतिरादित्य सिंधिया ने सोशल मीडिया पर कांग्रेस पार्टी छोड़ने की घोषणा की। सिंधिया के 22 समर्थक विधायकों ने भी यही रुख अपनाया और राज्य की कांग्रेस सरकार अल्पमत में आ गयी। इन विधायकों ने भाजपा शासित राज्य कर्नाटक के बेंगलुरू का रूख किया। इसी बीच जब कांग्रेस अपनी सरकार बचाये रखने का प्रयास कर रही थी, बीजेपी ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर जल्द फ्लोर टेस्ट कराने की माँग की। सुप्रीम कोर्ट ने 20 मार्च को फ्लोर टेस्ट कराने का आदेश दिया। फ्लोर टेस्ट से एक घण्टा पहले ही मुख्यमंत्री कमलनाथ ने अपना इस्तीफा गवर्नर को सौंप दिया और भाजपा ने बैकडोर से मध्यप्रदेश की सत्ता पर कब्जा कर लिया। याद रहे कि इस समय तक देश में कोरोना दस्तक दे चुका था और दुनिया के कई हिस्सों में यह महामारी फैल चुकी थी।

उत्तराखण्ड में 2016 को यही पैटर्न दोहराया गया। कांग्रेस के 9 विधायकों ने खेमा बदलते हुए भाजपा का दामन थाम लिया। स्पीकर ने इन विधायकों को ‘दलबदल कानून’ के हिसाब से अयोग्य करार दिया। इसी बीच राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया, हालाँकि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद हरीश रावत के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया। 2015 में अरुणाचल प्रदेश में भी कांग्रेस की चुनी हुई सरकार को सत्ता से बेदखल करने के षड्यंत्र भाजपा ने रचे और तमाम तरह के प्रलोभन देकर कांग्रेस के 21 विधायकों को अपनी ही पार्टी के खिलाफ खड़ा कर दिया। यहाँ भी राष्ट्रपति शासन लगाया गया, हालाँकि सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई। बावजूद इसके भाजपा ने हार नहीं मानी और 16 सितम्बर 2016 को कांग्रेस के 44 विधायकों मेें से 43 ने पीपुल्स पार्टी ऑफ अरुणाचल (पीपीए) का दामन थाम लिया। पीपीए उसी नॉर्थ ईस्ट डेमोेक्रेटिक अलाएंस का हिस्सा है, जिसे भाजपा समर्थन देती है। जनवरी 2017 में आखिर अरुणाचल में भाजपा की सरकार बन गयी, जिसमें 33 विधायक कांग्रेस के थे।

राजस्थान में भी कांग्रेस नेता और उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट के असन्तोष को भाजपा ने हवा दी और 12 जुलाई 2020 को सचिन पायलट अपने 18 समर्थक विधायकों के साथ दिल्ली जाकर बैठ गये। उनका कहना था कि उनके साथ 30 विधायक हैं और वह मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की सरकार को गिरा सकते हैं। इसके बाद सचिन पायलट हरियाणा चले गये और भाजपा सरकार की मेजबानी में कांगे्रस सरकार को गिराने के षड्यंत्र में शामिल रहे। सचिन पायलट के मन बदल लेने से भाजपा का ‘आपरेशन कमल’ सफल नहीं रहा। 22 फरवरी 2021 को चुनावों से ठीक पहले पुडुचेरी की कांग्रेस सरकार अल्पमत में आ गयी, क्योंकि इसके पाँच विधायकों ने इस्तीफा दे दिया। पुडुचेरी में कांग्रेस सरकार गिर गयी और यहाँ राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। चुनाव के बाद यहाँ भाजपा की सरकार बनी।

गोवा में भी लोकतांत्रिक परम्पराओं को दरकिनार कर 2017 विधानसभा चुनाव से पहले ही कांग्रेस के 5 और 1 अन्य विधायक भाजपा में शामिल कर लिये गये। चुनाव में 40 सीटों वाली विधानसभा में कांग्रेस ने 17 सीटें जीती, जबकि भाजपा को 13 ही मिलीं। सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद कांग्रेस को सरकार बनाने का न्यौता नहीं दिया गया और येन केन प्रकारेण बीजेपी ने सरकार बना ली। इसके बाद भी विधायकों की तोड़फोड़ का खेल जारी रहा। इस समय गोवा में कांग्रेस के मात्र 5 विधायक ही पार्टी में बचे हैं। दिल्ली मेें आप सरकार भारी बहुमत के साथ दो बार सरकार बना चुकी है। भाजपा को फिलहाल यहाँ अपनी सरकार बनने के आसार नजर नहीं आ रहे हैं तो उसने बैकडोर से सत्ता हथियाने की कोशिश की है। मोदी सरकार ‘द गवर्नमेण्ट ऑफ नेशनल कैपिटल टेरिटरी ऑफ दिल्ली (एमेण्डमेेट) एक्ट लेकर आयी है, जिसका मकसद विधानसभा की विशेष शक्तियाँ लेफ्टिनेण्ट गवर्नर को सौंपना है, ताकि इसके जरिये केन्द्र सरकार दिल्ली की सत्ता पर कब्जा रख सके। भाजपा का ‘सरकार गिराओ’ अभियान अन्य राज्यों में भी जारी है, जहाँ किसी भी वक्त किसी भी पार्टी की सरकार खतरे में पड़ सकती है। मतलब साफ है कि अब इस देश में चुनावों का शायद ही कोई मतलब बचे। जनता जिसे भी चुने, सरकार अन्तत: भाजपा ही बनाएगी। विधायकों के लालच, उनकी खरीद–फरोख्त, ईडी का दबाव, धमकी और अन्य तमाम तरीकों से भाजपा दूसरी पार्टियों के विधायकों को अपने पाले में करने में महारत हासिल कर चुकी है।

मतलब साफ है कि भारत के लोकतंत्रीय संघीय ढाँचे को जर्जर किया जा रहा है। संघीय ढाँचा, जिसके तहत केन्द्र और विभिन्न राज्यों की सरकारें आती हैं और राज्य सरकारें, केन्द्र से स्वतंत्र होकर अपना शासन चलाती हैं। विभिन्न विचारधाराओं की पार्टियाँ अपने–अपने हिसाब से नीतियाँ बनाती हैं और लागू करती हैं। भाजपा ने संघीय ढाँचे की इस मूल आत्मा को कुचलते हुए गैर भाजपा राज्य सरकारों के कामकाज में अनेक तरीकों से हस्तक्षेप करना शुरु कर दिया है। जहाँ भाजपा सरकार गिराने या बनाने में सफल नहीं हुई (जैसे पश्चिम बंगाल, दिल्ली सहित कई अन्य राज्य) वहाँ भाजपा, गवर्नर के जरिये, ईडी या अन्य सरकारी एजेंसियों के जरिये हस्तक्षेप कर रही है और उनके कामकाज में बाधा डाल रही है। साफ दिख रहा है कि भाजपा का यह खेल आगे भी तमाम तरीकों से वीभत्स रूप लेगा, इससे संघीय ढाँचे के टूटकर बिखर जाने का खतरा पैदा हो गया है।

यह संघीय ढाँचा भारत के लोकतंत्र का मूल आधार है। इस ढाँचे के टूटने का मतलब है कि देश में चुनने के अधिकार को खत्म कर देना यानी विपक्ष को नेस्तनाबूद करना और विरोध की हर तरह की आवाजों को कुचल देना। राज्यों की सरकारी मशीनरी पर कब्जा कर अपने एजेण्डे के हिसाब से शासन चलाना। भाजपा का मूल एजेण्डा है साम्प्रदायिकता फैलाकर हिन्दू राष्ट्र बनाना। इन सभी बातों को हम फलीभूत होते देख रहे हैं। अभी कुछ दिन पहले ही मोदी सरकार ने एक आदेश जारी कर संसद परिसर में, सांसदों द्वारा किसी भी तरह के विरोध और प्रदर्शनों पर रोक लगा दी है। स्पष्ट है कि देश तानाशाही और फासीवाद की ओर तेजी से बढ़ रहा है। देश की संवैधानिक संस्थाएँ भी इसकी गिरफ्त में आ चुकी हैं और लोकतांत्रिक परम्पराओं को विभिन्न तरीकों से चोट पहुँचायी जा रही है। इस बात की आशंका बहुत ज्यादा बढ़ती जा रही है कि चुनाव मात्र एक औपचारिकता बनकर रह जाये और जनता को हासिल, प्रतिनिधि चुनाने का अधिकार एक मजाक बनकर रह जाये।