नोटबन्दी : विफलता और त्रासदी की दास्तान
राजनीतिक अर्थशास्त्र सीमा श्रीवास्तवआठ नवम्बर को नोटबन्दी की दूसरी बरसी पर अब ये भी साफ हो गया है कि रिजर्व बैंक के अधिकारियों ने मोदी सरकार को इसकी विफलता के बारे में पहले ही बता दिया था। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दो साल पहले 8 नवम्बर को रात 8 बजे बड़े–बड़े दावों के साथ जब टेलीविजन पर नोटबन्दी की घोषणा की थी तो इसके साफ–साफ दो लक्ष्य बताये थे, पहला, काले धन का खात्मा और दूसरा, नकली नोटों का सफाया। सरकार ने इसका प्रचार कालेधन के खिलाफ ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ कहकर किया। मोदी सरकार के ये दोनों दावे किस कदर भोथरे साबित हुए, यह बात तो नोटबन्दी लागू होने के कुछ ही दिनों बाद समझ आने लगी थी।
अब भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के केन्द्रीय बोर्ड की 561वीं बैठक के मिनट्स भी सामने आ गये हैं। ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित खबर के अनुसार यह बैठक नरेन्द्र मोदी के नोटबन्दी की घोषणा से करीब साढ़े तीन घण्टे पहले हुई थी। इस बैठक में बोर्ड ने सरकार के नोटबन्दी के फैसले को सहमति तो दे दी थी, लेकिन इस बात को पूरी तरह से खारिज कर दिया था कि इससे काले धन पर किसी तरह का कोई प्रहार होने वाला है। बोर्ड ने इस बात को भी नकार दिया था कि प्रचलित नकली नोटों पर भी इस नोटबन्दी का कोई असर होने वाला है। बोर्ड के निदेशक का कहना था कि अधिकांश काला धन नकदी की शक्ल में है ही नहीं। बल्कि ज्यादातर काला धन तो रियल एस्टेट, शेयर बाजार, स्वर्ण आदि के रूप में है। खुद आयकर विभाग के आँकड़ों के अनुसार भी कैश में काला धन 6 फीसदी से भी कम है। बोर्ड का कहना था कि एक अनुमान के मुताबिक परिचलन में नकली नोटों के मात्र करीब 400 करोड़ रुपये नकली नोट हैं, जो कुल प्रचलित करीब 18,03,700 करोड़ नोटों का बेहद मामूली सा हिस्सा है। अगर प्रतिशत में इसे देखा जाये तो यह मात्र 0.02 प्रतिशत ही बैठता है। बोर्ड की बैठक के मिनट्स बताते हैं कि निदेशकों ने सरकार को चेताया था कि नोटबन्दी का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) पर नकारात्मक असर पड़ेगा।
बोर्ड ने इस बात की भी चेतावनी दी थी कि 500 और 1000 के नोटों को गैरकानूनी घोषित करने का नकारात्मक असर विशेषकर दो क्षेत्रों स्वास्थ्य और पर्यटन पर पड़ेगा। निदेशकों का कहना था कि घरेलू पर्यटक आमतौर पर 500 और 1000 के नोट लेकर चलते हैं। अचानक नोटबन्दी के बाद लोग जब रेलवे स्टेशनों और हवाई अड्डों पर पहुँचेंगे तो उन्हें बेहद कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। टैक्सी ड्राइवर और कुली को देने के लिए उनके पास मौजूद रकम गैरकानूनी हो चुकी होगी। निदेशकों ने नोटबन्दी से होने वाली परेशानियों और अर्थव्यवस्था को गहरा धक्का लगने की बात 6 मुख्य बिन्दुओं में सरकार को बता दी थी। बावजूद इसके, रिजर्व बैंक की चेतावनियों को दरकिनार कर प्रधानमंत्री मोदी ने हठधर्मिता अपनाते हुए नोटबन्दी का तुगलकी फरमान जारी कर दिया। नोटबन्दी के बारे में सरकार का दावा था कि बड़े नोटों के रूप में मौजूद करीब 3 से 4 लाख करोड़ रुपये का काला धन बैंकों में वापस नहीं आयेगा। सर्वोच्च न्यायालय के सामने भी सरकार के अटार्नी जनरल ने नोटबन्दी के पक्ष में दलील देते हुए ऐसा ही कहा था। लेकिन बैंकों में 99 फीसदी से ज्यादा रुपया वापस आ गया, तो सरकार का यह दावा भी खोखला साबित हुआ। नोटबन्दी लागू होने के करीब दो साल बाद, इस वर्ष अगस्त में जारी भारतीय रिजर्व बैंक की रिपोर्ट में बताया गया है कि नोटबन्दी से पहले 15.417 लाख करोड़ की कीमत के 500 और 1000 के नोट प्रचलन में थे। नोटबन्दी के बाद 15.31 लाख करोड़ रुपये के 500 और 1000 के नोट बैंकों में वापस आ चुके हैं, जो कुल नोटों का 99.3 फीसदी है। शेष बचे नोटों के बारे में पूर्व वित्त मंत्री पी चिदम्बरन का कहना है कि यह भारतीय मुद्रा नेपाल और भूटान में इस्तेमाल की जा रही थी, जो भारतीय बैंकों तक नहीं पहुँच सकी। इसके अलावा शेष बचे रुपयों का कुछ हिस्सा या तो खो गया या नष्ट हो गया।
जब नोटबन्दी की गयी थी तो इसके असफल होने के आसार पहले दिन से ही नजर आने लगे थे। तब सरकार की ओर से तरह–तरह के अन्य हास्यास्पद दावे किये जाने लगे। जैसे 500 और 1000 के बड़े नोटों से रिश्वत देना आसान होता है, इनके बन्द होने से रिश्वत देना आसान नहीं रह जायेगा। लेकिन सरकार इसकी काट में 500 के साथ 2000 रुपये का नोट ले आयी। एक दावा यह भी था कि इससे कश्मीर में आतंकवाद की कमर टूट जायेगी। लेकिन नोटबन्दी के बाद भी कश्मीर में लगातार आतंकी गतिविधियाँ जारी हैं और फौजियों के मरने का सिलसिला जारी है। नोटबन्दी के बाद से अब तक 127 से ज्यादा फौजी और 100 के करीब आम नागरिक अपनी जान गँवा चुके हैं। नोटबन्दी की विफलता को देखते हुए सरकार का एक सबसे बड़ा दावा था कि डिजिटलीकरण करना नोटबन्दी का मुख्य उद्देश्य है। जब नोटबन्दी हुई थी तो लोगों ने मजबूरी में भुगतान के लिए जरूर डिजिटल तरीकों का सहारा लिया। लेकिन अब जब बाजार में नकदी सामान्य है तो आदान–प्रदान के लिए लोग फिर नकदी का इस्तेमाल कर रहे हैं। हालत यह है कि नोटबन्दी से पहले जो दुकानदार, ब्यूटी पार्लर संचालक या अन्य सेवाओं में डेबिट या क्रेडिट कार्ड से पेमेंट ले लेते थे, अब वह इससे इनकार करते हैं। इनका साफ कहना है कि जहाँ इन्हें इन सेवाओं के बदले बैंकों को भारी फीस चुकानी पड़ती है, वहीं जीएसटी के तौर पर लगाये गये टैक्स दुकानदार और उपभोक्ता दोनों की कमर तोड़ रहे हैं। तथ्य तो यह है कि नोटबन्दी से पहले जितनी मुद्रा परिचालन में थी, अब उससे 10 प्रतिशत ज्यादा मुद्रा चलन में है। यानी सरकार का डिजिटलीकरण का दावा भी पूरी तरह हवा–हवाई हो गया है।
अब जब लगभग सारा ही रुपया बैंकों में वापस आ गया तो सरकार ने कहना शुरू कर दिया कि यही तो हम चाहते थे। सरकार ने कहा कि जिन लोगों ने बहुत ज्यादा धन बैंकों में जमा कराया है, अब उनकी जाँच की जायेगी। जिन बैंक खातों में 5 लाख से ज्यादा रुपया जमा कराया गया है, उन्हें नोटिस भेजे गये हैं। ऐसे करीब 18 लाख नोटिस जारी किये गये हैं। इस बाबत प्रख्यात अर्थशास्त्री और ‘डिमोनेटाइजेशन एंड ब्लैक इकोनॉमी’ के लेखक अरुण कुमार ने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ समाचारपत्र में प्रकाशित अपने लेख में कहा है कि “यह एक भ्रांति है कि अगर नकदी है तो काला धन ही होगा। बिजनेस के लिए बतौर चालू पूँजी नकदी की जरूरत होती है। साथ ही लोग भी लेन–देन और वक्त पर जरूरत के लिए कुछ नकदी घर में रखते हैं।” उनका कहना है कि नोटबन्दी के 50 दिनों के दौरान, एक पेट्रोल स्टेशन प्रतिदिन अर्जित होने वाले धन के आधार पर 20 करोड़ रुपये तक जमा करा सकता था। तो यह धन, काला धन नहीं है। इसी तरह बड़ी मात्रा में धन जमा कराने वाले लोग अपनी बैलेंस शीट में यह धन दिखा सकते थे। इसलिए आयकर विभाग के लिए यह साबित करना बहुत मुश्किल होगा कि जमा किया गया धन काला है। उनका कहना है कि आयकर विभाग के जो आँकड़े हैं, वह यह दिखाते हैं कि विभाग के पास लाखों की संख्या में बैंकखातों की जाँच करने की क्षमता ही नहीं है।
सरकार के इन दावों को भी विशेषज्ञों ने खारिज कर दिया है कि टैक्स देने वालों की संख्या बढ़ी है। विशेषज्ञों का मानना है कि रिटर्न फाइल करने वालों की संख्या में इजाफा जरूर हुआ है, लेकिन जीडीपी में प्रत्यक्ष कर बमुश्किल ही बढ़ा है। अर्थशास्त्री अरुण कुमार का कहना है कि ब्लैक इकॉनोमी जीडीपी की 60 फीसदी से ज्यादा है। यदि इसका 10 प्रतिशत भी टैक्स नेट के दायरे में आता है तो अतिरिक्त कर संग्रह के कारण जीडीपी में 2 फीसदी का इजाफा होना चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसलिए सरकार का यह दावा कि टैक्स देने वालों की संख्या बढ़ी है, आँकड़ेबाजी के अलावा और कुछ नहीं है। नोटबन्दी लागू करने पर सरकार का लक्ष्य परिचलन में जारी नकली नोटों को समाप्त करना था। लेकिन सरकार का यह दावा भी पूरी तरह विफल साबित हुआ है। हकीकत यह है कि 500 और 2000 के नये नोट जारी करने के कुछ दिनों बाद ही, नकली नोट एटीएम मशीनों से भी मिलने शुरू हो गये थे। वित्त मंत्रालय के अन्तर्गत कार्यरत वित्तीय इकाई (एफआईयू) की रिपोर्ट के अनुसार नोटबन्दी के बाद देश भर के बैंकों में नकली नोट पहुँचने के मामले सबसे ज्यादा पाये गये हैं। इतनी भारी संख्या में नकली नोट बैंकों में अभी तक नहीं पहुँचे थे। एफआईयू के अनुसार वर्ष 2015–16 में 4.10 लाख नकली नोट बैंकों में पहुँचे थे। जबकि नोटबन्दी के बाद 2016–17 में बैंकों में 7.33 लाख नकली नोट बैंकों में पहुँचे। यानी नोटबन्दी के बाद बैंकों में पहुँचने वाले नकली नोटों की संख्या में 3.22 लाख का इजाफा हुआ। ये आँकड़े तो खुद सरकार की एजेंसी ने दिये हैं और ये वे मामले हैं, जो पकड़ में आये हैं। इसका मतलब नोटबन्दी के बाद परिचालन में नकली नोटों की संख्या में 79 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है।
रिजर्व बैंक की वार्षिक रिपोर्ट 2016–17 में भी नकली नोटों को लेकर यही तथ्य दोहराये गये हैं। रिपोर्ट बताती है कि “रिजर्व बैंक के करेंसी वेरिफिकेशन एंड प्रोसेसिंग सिस्टम के अनुसार 2015–16 के दौरान 500 रुपये के हर 10 लाख नोटों पर 2.4 नोट नकली थे और 1000 रुपये के हर 10 लाख नोटों पर 5.8 नोट नकली थे। नोटबन्दी के बाद यह संख्या 5.5 नोट और 12.4 नोट तक बढ़ गयी”। लेकिन इसे हद दर्जे की बेशरमी ही कहा जायेगा कि बावजूद इसके सरकार नोटबन्दी को सफल बता रही है। सरकार की इसी यूनिट ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि नोटबन्दी के बाद सन्देह के दायरे में आने वाले लेन–देन के मामलों में भी 480 प्रतिशत का उछाल आया है। बावजूद इसके मोदी सरकार भले ही इन सब तथ्यों को नकार रही हो और अपनी भारी और अभूतपूर्व विफलता को छिपाने के लिए नये कुतर्क गढ़ रही हो लेकिन नोटबन्दी की व्यापक और चहुँओर विफलता की दास्तान कहते आँकड़े हर रोज सामने आ रहे हैं।
नोटबन्दी लागू करने से लेकर अब तक सरकार का रवैया बेहद गैर जिम्मेदाराना और क्रूरतापूर्ण रहा है। हफ्तों लोग अपार कष्ट झेलते हुए अपने खून–पसीने की गाढ़ी कमाई के गैरकानूनी ठहरा दिये गये नोटों को बदलने के लिए बैंकों के आगे लगे रहे। फिर नये नोट पाने के लिए महीनों बैंकों और एटीएम के सामने लाइनों में लगे रहे। बावजूद इसके बैंकों और एटीएम मशीनों के आगे ‘नो कैश’ की तख्तियाँ लटकती रही। समूचा देश कुछ महीनों के लिए जैसे ठहर सा गया और लाइनों में लगा दिया गया। इस दौरान 100 से ज्यादा लोगों को लाइन में लगे–लगे ही अपनी जान गँवानी पड़ी। अनेक गरीब लोग अपनी छोटी–मोटी बचत को खाक में मिलता देख बर्दाश्त नहीं कर सके और उन्होंने आत्महत्या कर ली। हजारों उद्योग–धन्धे चैपट हो गये। लाखों कामगार नौकरियाँ छिन जाने के कारण अपने गाँवों को वापस लौट गये। सेंटर फॉर मॉनीटरिंग ऑफ इंडियन इकोनॉमी की हाल ही में जारी रिपोर्ट के अनुसार नोटबन्दी के कारण 35 लाख से ज्यादा नौकरियाँ समाप्त हो गयीं। करीब 1.5 करोड़ मजदूरों से उनका रोजगार छिन गया। इसका सबसे ज्यादा बुरा असर महिला श्रमिकों पर पड़ा। नोटबन्दी के बाद कुछ हफ्तों तक 15 करोड़ दैनिक वेतन भोगी श्रमिकों को अपनी आजीविका से हाथ धोना पड़ा।
भारतीय अर्थव्यवस्था पर इसका बेहद बुरा असर पड़ा और जीडीपी में 1.5 प्रतिशत का नुकसान हुआ। इसका मतलब यह है कि सिर्फ इस कारण से ही देश को एक साल में 2.22 लाख करोड़ रुपये गँवाने पड़े। जब नोटबन्दी की मार से पूरा देश कराह रहा था तो नरेन्द्र मोदी ने घड़ियाली आँसू बहाते हुए सब कुछ दुरुस्त करने के लिए देशवासियों से 50 दिन माँगें और कहा कि यदि इसके बाद ठीक नहीं हुआ तो उसे जिस चैराहे पर चाहे लटका कर फाँसी दे दें। तब से लेकर आज तक कुछ भी ठीक नहीं हुआ और नरेन्द्र मोदी ने एक बार फिर अपने वादे को लेकर मुँह में ताला लगा लिया। यह फैसला किस कदर बिना तैयारी के और अचानक लिया गया था, इसका अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि नोटबन्दी के 50 दिनों के अन्दर ही रिजर्व बैंक ने इसे लेकर 66 से ज्यादा नोटिस और घोषणाएँ जारी कीं। यानी नोटबन्दी को लेकर रिजर्व बैंक इस कदर असमंजस में था कि वह यह तय ही नहीं कर पा रहा था कि उसे करना क्या है। ये बात तो अब भी समझ से परे है कि आखिर किसको फायदा पहुँचाने के लिए नोटबन्दी की गयी। ये कोई सनक भरा फैसला था या देश और देश की जनता के साथ कोई भयानक षड़यंत्र, इसका जवाब देश को चाहिए। इस दौरान जनता ने जो अपार कष्ट झेले हैं और झेल रही है, इसकी जवाबदेही तय होनी चाहिए।
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