––मंगलेश डबराल

‘इन्हीं सड़कों से चल कर आते हैं आततायी/ इन्हीं सड़कों से चल कर आयेंगे अपने भी जन।’ वीरेन डंगवाल ‘अपने जन’ के, इस महादेश के साधारण मनुष्य के कवि हैं। वे उन दूसरे प्राणियों और जड़–जंगम वस्तुओं के कवि भी हैं जो हमें रोजमर्रा के जीवन में अक्सर दिखायी देती हैं, लेकिन हमारे दिमाग में दर्ज नहीं होतीं। कविता के ये ‘अपने जन’ सिपाही रामसिंह और इलाहाबाद के मल्लाहों, लकड़हारों, रेलवे स्टेशन के फेरीवालों, डाकियों, अपने दोस्तों की बेटियों समता और भाषा, निराला, शमशेर, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदार, पीटी उषा, तारंता बाबू, किन्हीं माथुर साहब और श्रोत्री जी तक फैले हुए हैं। मनुष्येतर जीवधारियों और वस्तुओं के स्तर पर यह संसार भाप के इंजन, हाथी, ऊँट, गाय, भैंस, कुत्ते, भालू, सियार, सूअर, मक्खी, मकड़ी, पपीते, इमली, समोसे, नींबू, जलेबी, पुदीने, भात और पिद्दी का शोरबा आदि तक हलचल करता है। इन जीवित–अजीवित चीजों से वीरेन का व्यवहार कितना आत्मीय और ऐंद्रीय है, इसके साक्ष्य उनकी बहुत सी रचनाओं में हैं। मसलन, ‘फरमाइशें’ में वे कहते हैं–– ‘कुत्ते मुझे थोड़ा–सा स्नेह दे/गाय ममता/भालू मुझे दे यार/शहद के लिए थोड़ा/अपना मर्दाना प्यार/भैंस दे थोड़ा बैरागीपन/बन्दर फुर्ती/अपनी अक्ल से मुझे बख्शे रहना सियार’। इस कविता में कुत्ते, गाय, भालू, भैंस, बन्दर और सियार की अपनी–अपनी स्वभावगत और मासूम विशेषताओं का वर्णन है, लेकिन असल चीज शायद वह प्रेम और आत्मीयता है जो इन प्राणियों के प्रति कवि के भीतर से उमड़ती है। कवि सियार से भी यह कहता है कि मुझे तुम्हारी अक्ल यानी चालाकी की जरूरत नहीं है।

भाप इंजन को याद करती, नींबुओं को सलाम करती, पोस्टकार्डों की महिमा गाती, अधेड़ नैनीताल की उधेड़बुन में उलझती, फूलों से भरी हुई फरवरी का ‘घुटनों चलती बेटी’ की तरह स्वागत करती, जीव–जंतुओं और खाद्य पदार्थों की विलक्षण सत्ता का गुणगान करती इन कविताओं का उद्देश्य उनका एक ‘लार्जर दैन लाइफ’ रूपान्तरण करना नहीं, बल्कि उनके अपने अस्तित्व को, एक खास और संक्षिप्त अर्थवत्ता और उस छोटे से प्रकाश को दिखलाना है जिसे हम प्राय: अनदेखा किये रहते हैं। साधारण चीजों की एक असाधारण दुनिया दिखाने का काम हिन्दी कविता में कुछ हद तक हुआ है, लेकिन वीरेन की कविता जैसे एक जिद के साथ कहती है कि मामूली लोग और मामूली चीजें दरअसल उसी तरह हैं जिस तरह वे हैं और इसी मामूलीपन में उनकी सार्थकता है, जिसे पहचानना उनके जीवन का सम्मान करना है और हम जितना अधिक ऐसे जीवन को जानेंगे, उतने अधिक मानवीय हो सकेंगे।

वीरेन के अड़सठ वर्षीय जीवन–काल (जन्म–– 5 अगस्त 1947य निधन–– 28 सितम्बर 2015) में तीन कविता संग्रह, कुछ छिटपुट लेख और ‘पहल पुस्तिका’ के रूप में तुर्की के क्रान्तिकारी महाकवि नाजिम हिकमत की कविताओं के अनुवाद प्रकाशित हुए। यह सफर 1991 में ‘इसी दुनिया में’ से शुरू हुआ हालाँकि तब तक ‘रामसिंह’, ‘पीटी उषा’, ‘मेरा बच्चा’, ‘गाय’, ‘भूगोल–रहित’, ‘दुख’, ‘समय’ और ‘इतने भले नहीं बन जाना साथी’ जैसी कविताओं ने वीरेन को मार्क्सवाद की ज्ञानात्मक संवेदना से अनुप्रेरित ऐसे प्रतिबद्ध और जन–पक्षधर कवि की पहचान दे दी थी, जिसकी आवाज अपने समकालीनों से कुछ अलहदा और अनोखी थी और अपने पूर्ववर्ती कवियों से गहरा संवाद करती थी। उसमें खास तौर पर निराला और शमशेर बहादुर सिंह के काव्य–विवेक की रोशनी थी। ‘इसी दुनिया में’ की कुछ कविताएँ कवि की मूल प्रस्थापनाओं का घोषणा–पत्र जैसी मानी जा सकती हैं––

 मैं ग्रीष्म की तेजस्विता हूँ

 और गुठली जैसा

 छिपा शरद का ऊष्म ताप

 मैं हूँ वसन्त का सुखद अकेलापन

 जेब में गहरी पड़ी मूँगफली को छाँट कर

 चबाता फुरसत से

 मैं चेकदार कपड़े की कमीज हूँ

 उमड़ते हुए बादल जब रगड़ खाते हैं

 मैं उनका मुखर गुस्सा हूँ।

आत्मकथ्य सरीखी इन पंक्तियों में वीरेन की काव्य संवेदना के प्रमुख सरोकार साफ हो जाते हैं। उसमें अनुभव की उदात्तता है तो रोजमर्रा की मामूली चीजों के प्रति गहरा लगाव भी। ग्रीष्म की तेजस्विता और शरद की ऊष्मा और वसन्त के सुखद अकेलेपन के साथ जेब में पड़ी मूँगफली और चेकदार कमीज की उपस्थिति एक नया यथार्थ और नया सौंदर्यशास्त्र निर्मित करती है। यहाँ उदात्त अनुभवों और साधारण दुनियावी चीजों में कोई बुनियादी विभेद नहीं है, अमूर्तनों और भौतिक उपस्थितियों के बीच कोई दूरी नहीं है, बल्कि वे एक दूसरे के साथ और उनके भीतर भी अस्तित्वमान और पूरक हैं।

मामूलीपन और नगण्यता के जिस गुणगान के लिए वीरेन की कविता पहचानी गयी, उसकी शुरुआत इस तरह की बहुत सी और खासकर ‘पीटी उषा’ जैसी कविताओं से हुई थी जिसमें वीरेन क्रिकेट की संभ्रान्तता के बरक्स एक दुबली–पतली धावक पीटी उषा के खेल की अपेक्षाकृत निम्नवर्गीयता, उसके सामान्य चेहरे और साँवलेपन को उभारते हुए उसे ‘मेरे गरीब देश की बेटी’ कहकर सम्बोधित करते हैं–– ‘उसकी आँखों की चमक में जीवित है अभी/भूख को पहचानने वाली विनम्रता/ इसीलिए चहरे पर नहीं है/ सुनील गावस्कर की छटा।’ वे उसे सलाह देते हैं कि अगर खाना खाते समय तुम्हारे मुँह से चपचप की आवाज होती है तो यह अच्छा है क्योंकि जो लोग ‘बेआवाज जबड़े को सभ्यता मानते हैं/ वे दुनिया के सबसे खाऊ और इसलिए खतरनाक लोग हैं।’

ये कविताएँ जिस दौर में लिखी गयीं, वह नेहरू युगोत्तर मोहभंग की सामाजिक–बौद्धिक–राजनीतिक उथल–पुथल, नक्सलबाड़ी की ‘वसन्त गर्जना’ और उसके क्रूर दमन, विश्व स्तर पर वियतनाम युद्ध के विरोध, अमरीका की विद्रोही बीट पीढ़ी की अराजकता और काली या अश्वेत चेतना से उबलता हुआ था। वीरेन की संवेदना पर भी इस वैश्विक उभार की गहरी छाप पड़ी। उन्हीं दिनों आलोकधन्वा की ‘जनता का आदमी’ और ‘गोली दागो पोस्टर’, लीलाधर जगूड़ी की ‘बलदेव खटिक’ और वीरेन की ‘रामसिंह’ नक्सलबाड़ी संघर्ष की प्रमुख कविताओं के रूप में चर्चित हुर्इं और नाटकों की शक्ल में भी मंचित की गयीं। इन कविताओं का मुख्य सरोकार मनुष्य का शोषण–दमन करने वाली शासक शक्तियों का प्रतिरोध करना, क्रान्ति का स्वप्न जगाना और मानवीय अच्छाई और समानता के संघर्ष की अनिवार्यता को रेखांकित करना था। ‘रामसिंह’ एक गरीब पहाड़ी परिवार के बेटे और फौजी सिपाही को सालाना छुट्टी पर घर जाते हुए देखती है और उसे आत्म–साक्षात्कार के बिन्दु तक ले जाती है––

तुम किसकी चैकसी करते हो रामसिंह?

तुम बन्दूक के घोड़े पर रखी किसकी उँगली हो?

किसका उठा हुआ हाथ?

किसके हाथों में पहना हुआ काले चमड़े का नफीस दस्ताना?

जिन्दा चीज में उतरती हुई किसके चाकू की धार?

कौन हैं वे, कौन

जो हर समय आदमी का एक नया इलाज ढूँढ़ते रहते हैं?

जो रोज रक्तपात करते हैं और मृतकों के लिए शोकगीत गाते हैं

जो कपड़ों से प्यार करते हैं और आदमी से डरते हैं

वे माहिर लोग हैं रामसिंह

वे हत्या को भी कला में बदल देते हैं

यह कविता अपने क्रान्तिकारी वक्तव्य के अलावा रामसिंह के फौजी जीवन के ब्यौरों के साथ पहाड़ के स्मृति–बिम्बों को एक विरोधाभासी कथ्य–संयोजन में रखने की वजह से भी याद की गयी। ऐसे बिम्ब तब तक हिन्दी कविता में बहुत नहीं आये थे–– ‘पानी की तरह साफ खुशी’, ‘घड़े में गड़ी हुई दौलत की तरह रक्खा गुड़’, ‘हवा में मशक्कत करते पसीजते चीड़ के पेड़’, ‘नींद में सुबकते घरों पर गिरती हुर्इं चट्टानें’, ‘घरों में भीतर तक घुस आता बाघ’ ऐसे ही सघन दृश्य हैं। हाथी, ऊँट, गाय, पपीता, इमली, समोसे वगैरह पर लिखी कविताओं की संरचना विवरणात्मक और निबंध सरीखी है। ‘गाय’ कविता की प्रारम्भिक पंक्तियाँ—‘वह एक गाय है/धुँधला सफेद है उसका रंग/ वह घास चर रही है/ वहाँ जहाँ बरसात ने मैदान बना दिया है/ जब वह चरती है तो चर्र–चर्र करती है’—तीसरी–चैथी कक्षा के किसी बच्चे के वाक्यों की याद दिलाती है जिसे परीक्षा में गाय पर निबंध लिखने के लिए कहा गया हो। यह संघ परिवार की करतूतों और साम्प्रदायिक धर्मतंत्र द्वारा एक आक्रामक धार्मिक प्रतीक में बदल दी गयी गाय नहीं, बल्कि भारतीय गाँवों और किसान जीवन के ‘सेकुलर स्पेस’ की प्राणी है।

मुक्तिबोध ने जब ‘कविता की स्थानान्तरगामी प्रवृत्ति’ की जरूरत का जिक्र किया था तो उनका आशय ऐसे ही विस्तारों से रहा होगा। ‘तोप’ शीर्षक कविता इसकी एक सुन्दर मिसाल है जो कवि की प्रतिबद्धता, अन्याय के साधनों और जन–संघर्षों से जुड़ी ऐतिहासिक प्रक्रियाओं को बतलाती है। सन् 1857 की जन–क्रान्ति का दमन करने के काम आयी एक औपनिवेशिक तोप का मौजूदा हाल यह है कि उस पर बच्चे घुड़सवारी करते हैं और चिड़ियाँ कभी उसके ऊपर और कभी भीतर बैठकर गपशप करती हैं। अन्त में कवि कहता है–– ‘कितनी भी बड़ी हो तोप/ एक दिन तो होना ही है उसका मुँह बन्द।’ दरअसल वीरेन आरम्भ से ही एक अलग किस्म के कवि के रूप में सामने आये और ‘इसी दुनिया में’ आठवें दशक की कविता का एक प्रमुख दस्तावेज बन गया।

ग्यारह साल बाद सन 2002 में वीरेन का दूसरा संग्रह ‘दुश्चक्र में स्रष्टा’ प्रकाशित हुआ, जिस पर उन्हें साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला। कुछ समय तक यह तुलना भी होती रही कि दोनों संग्रहों में से कौन–सा बेहतर है। निश्चय ही, ‘दुश्चक्र में स्रष्टा’ पहले संग्रह से आगे का कदम था–– शिल्प–सजगता और भाषा के स्तर पर कहीं अधिक परिपक्व, लेकिन संवेदना की आधार–भूमि पहले जैसी थी। यह स्वाभाविक भी था क्योंकि अच्छे कवियों की मूल भूमि बदलती नहीं है, उनका वास्तविक निवास वही रहता है, सिर्फ उनका जलागम–क्षेत्र कैचमेंट एरिया—विस्तृत होता रहता है और संवेदना ग्रहण करने के स्रोत बढ़ते जाते हैं। खास बात यह है कि वीरेन की ज्यादातर वे कविताएँ बेहतर मानी गयीं जिनमें कहीं–न–कहीं ‘इसी दुनिया में’ की ऊष्मा और विकलता का विस्तार था।

‘दुश्चक्र में स्रष्टा’ वीरेन की बेहतरीन कविताओं में शामिल है। यह किसी अज्ञात ईश्वर, किसी ‘करुणानिधान’ से किये गये शिकवे की तरह है, जिसमें प्रकृति के विशाल कारोबार को, नदी, पर्वत, हाथी की सूँड़, कुत्ते की जीभ और दुम, मछली, छिपकली और आदमी की आँतों के जाल को ‘भगवान का कारनामा’ करार देते हुए समकालीन यथार्थ का भयावह परिदृश्य है और मौजूदा अमानुषिकताओं–विरूपणों के बारे में विचलित करने वाले सवाल पूछे गये हैं––

नहीं निकली कोई नदी पिछले चार–पाँच सौ सालों से

जहाँ तक मैं जानता हूँ

न बना कोई पहाड़ या समुद्र

एकाध ज्वालामुखी जरूर फूटते दिखाई दे जाते हैं कभी–कभार।

बाढ़ें तो आयीं खैर भरपूर, काफी भूकम्प,

तूफान खून से लबालब हत्याकांड अलबत्ता हुए खूब

खूब अकाल, युद्ध एक से एक तकनीकी चमत्कार

रह गयी सिर्फ एक सी भूख, लगभग एक सी फौजी

वर्दियाँ जैसे

मनुष्य मात्र की एकता प्रमाणित करने के लिए

एक जैसी हुंकार, हाहाकार!

प्रार्थनागृह जरूर उठाये गये एक से एक आलीशान!

मगर भीतर चिने हुए रक्त के गारे से

वे खोखले आत्माहीन शिखर–गुम्बद–मीनार

ऊँगली से छूते ही जिन्हें रिस आता है खून!

आखिर यह किनके हाथों सौंप दिया है ईश्वर

तुमने अपना इतना बड़ा कारोबार?

 ‘दुश्चक्र में स्रष्टा’ हमारे समाज, लोकतंत्र और मनुष्य की आत्मिक संरचना में आये क्षरण और गिरावट को दर्ज करती है। ‘हड्डी खोपड़ी खतरा निशान’ में जब वीरेन कहते हैं कि ‘अब दरअसल सारे खतरे खत्म हो चुके हैं/ प्यार की तरह’ तो वे एक आत्म–केन्द्रित, खुदगर्ज और संवेदना–रहित होते जाते समाज पर गहरा व्यंग्य करते हैं। ऐसी रचनाओं में खास तौर से लोकतंत्र पर बढ़ने वाले संकटों और साम्प्रदायिक ताकतों के उन्माद की तीखी प्रश्नाकुल चीरफाड़ मिलती है–– ‘पर हमने कैसा समाज रच डाला है/ इसमें जो दमक रहा, शर्तिया काला है/ वह कत्ल हो रहा सरेआम सड़कों पर/ निर्दाेष और सज्जन, जो भोला–भाला है/ किसने ऐसा समाज रच डाला है/ जिसमें बस वही दमकता है जो काला है?’ अयोध्या में बाबरी मस्जिद के साजिशी विध्वंस की त्रासदी पर लिखते हए वीरेन दो कविताओं में निराला को याद करते हैं और राम और निराला, दोनों को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की साम्प्रदायिक–फासिस्ट ताकतों के प्रतिरोध का औजार बना देते हैं। ‘अयोध्या–फैजाबाद’ भी निराला की एक कविता–पंक्ति को उद्धृत करते हुए कहती है––

वह एक और मन रहा राम का

जो न थका

इसीलिए रौंदी जा कर भी

मरी नहीं हमारी अयोध्या

इसीलिए हे महाकवि, टोहता फिरता हूँ मैं

 इस

अँधेरे में

तेरे पगचिन्ह।

एक छन्दबद्ध कविता ‘उजले दिन जरूर’ में भी देश और समाज के हालात बतलाने के लिए निराला की ‘राम की शक्ति पूजा’ का सन्दर्भ है–– ‘आकाश उगलता अंधकार फिर एक बार/ संशय विदीर्ण आत्मा राम की अकुलाती/–––होगा वह समर, अभी होगा कुछ और बार/ तब कहीं मेघ ये छिन्न–भिन्न हो पायेंगे/ आयेंगे उजले दिन जरूर आयेंगे।’  ‘रात–गाड़ी’ भी संग्रह की एक अहम कविता है हालाँकि उसकी चर्चा ज्यादा नहीं हुई। वह ‘दीन और देश’ यानी नैतिकता और समाज के विकृत–अमानवीय परिदृश्य की पड़ताल करती है जहाँ एक तरफ ‘बेरोजगारों के बीमार कारखानों जैसे विश्वविद्यालय’ हैं, ‘राजधानियाँ गुंडों के मेले हैं’, ‘कलावा बाँधे गदगद खल विदूषक’ हैं जो ‘सोने के मुकुट पहनकर फोटो उतरवा रहे’ हैं, और दूसरी तरफ ‘बेघर बेदाना बिना काम के मेरे लोग/ चिंदियों की तरह उड़े चले जा रहे हैं/ हर ठौर देश की हवा में।’ दो विसंगतियों को एक साथ रखने की इस प्रविधि में हमें पूरा देश दिखायी दे जाता है जिसकी आखिरी पंक्तियों में कवि कहता है–– ‘खुसरो की बातों में संशय है/ खुसरो की बातों में डर है/ इसी रात में अपना भी घर है’। ‘माथुर साहब को नमस्कार’ भी ऐसी ही कम चर्चित कविता है, जो दो व्यक्तियों के माध्यम से मनुष्यता की निरन्तरता और उसमें कवि की अटूट आस्था को मर्म छूने वाले ढंग से रेखांकित कर जाती है। इस प्रसंग में कवि को कहीं अचानक अपने गणित के दिवंगत अध्यापक माथुर साहब दिखायी दे जाते हैं, लेकिन फिर पता चलता है कि वे कोई श्रोत्री जी हैं जिन्हें कवि ने माथुर सर समझ कर नमस्कार किया है। माथुर साहब की अनुपस्थिति में श्रोत्री जी की उपस्थिति समूची मनुष्य जाति से प्रेम का एक मार्मिक वक्तव्य निर्मित करती है–– ‘लोगों में ही दीख जाते हैं लोग भी/ लोगों में ही वे बच रहते हैं/ किसी चमकदार सुघड़ मजबूत विचार की तरह/ दीख जाते हैं कौंधकर जब लग रहा होता है ‘सब कुछ खत्म हुआ’/शुक्रिया श्रोत्रीजी माथुर सर शुक्रिया/याद रखूँगा मैं अपना सीखा गणित का एकमात्र सूत्र/ ‘शून्य ही है सबसे ताकतवर संख्या/ हालाँकि सबसे नगण्य भी।’

एक और कविता ‘सूअर का बच्चा’ वीरेन की बारीक निरीक्षण क्षमता, ब्यौरों की पकड़, छन्द–प्रयोग और ठेठ देसी किस्म के सौंदर्यशास्त्र का सुन्दर उदाहरण है। पहली बारिश में ‘धुल–पुँछकर अंग्रेज’ बना हुआ सूअर का बच्चा अपनी आंखों से सड़क के जो दृश्य देखता है, उनका इतना राग–भरा वर्णन एक दुर्लभ अनुभव है जो वीरेन के अलावा शायद नागार्जुन या त्रिलोचन या नगरीय प्रसंगों में रघुवीर सहाय के यहाँ ही मिल सकता है। वे एक कस्बे की सड़क के दृश्य हैं जिनमें आम तौर पर कोई आकर्षण नहीं होता, लेकिन वीरेन सूअर के बच्चे की आँखों से देखे गये दृश्यों को इतना कोमल और उदात्त बना देते हैं कि वह एक क्लासिकी अनुभव में बदलने लगता है–– ‘पहले–पहल दृश्य दीखते हैं इतने अलबेले/ आँखों ने पहले–पहले अपनी उजास देखी है/ ठंडक पहुँची सीझ हृदय में अद्भुद मोद भरा है/ इससे इतनी अकड़ भरा है सूअर का बच्चा।’ पहले इस कविता का उपशीर्षक ‘सूअर के बच्चे का प्रथम वर्षा दर्शन’ था। सूअर का बच्चा वीरेन की निगाह में किसी भी दूसरे मानवीय या मानवेतर शिशु जैसी ही, बल्कि शायद उससे भी अधिक कोमल–निश्छल उपस्थिति है। दरअसल मनुष्यों, पशु–पक्षियों, वनस्पतियों और खाद्य सामग्री का भी एक निम्न वर्ग, एक ‘सबॉल्टर्न’ होता है, जिससे वीरेन को मानव जाति जैसा ही लगाव है। ‘समोसे’ इस सन्दर्भ में एक प्रतिनिधि उदाहरण है। इसमें एक आम निम्नवर्गीय दुकान का जिक्र है जहाँ ‘कढ़ाई में सनसनाते समोसे’ बन रहे हैं–– ‘बड़े झरने से लचक के साथ/ समोसे समेटता कारीगर था/दो बार निथारे उसने झन्नफन्न/ यह दरअसल उसकी कलाकार/ इतराहट थी/ तमतमाये समोसों के सौंदर्य पर/ दाद पाने की इच्छा से पैदा’, और फिर—‘कौन अभागा होगा इस क्षण/ जिसके मन में नहीं आयेगी एक बार भी/ समोसा खाने की इच्छा।’ जब कवि समोसे खाने के लिए लपकता है, तब तक समोसे बनाता कलाकार और समोसे की कलात्मकता इतने स्वायत्त हो उठते हैं कि अपना सौंदर्यशास्त्र निर्मित कर लेते हैं और उनके सामने समोसे के लिए ललचाता व्यक्ति कुछ अप्रासंगिक हो उठता है। वीरेन का हुनर यह है कि वे मनुष्य के उपभोग में आने वाली चीजों को मनुष्य से अलग करके स्वतंत्र और स्वायत्त बना देते हैं।

वीरेन की संवेदना के एक सिरे पर नागार्जुन जैसे जनकवि का देसीपन और यथार्थवाद है तो दूसरे सिरे पर शमशेर जैसे ‘सौंदर्य के कवि’ हैं और दोनों के बीच कही निराला की उपस्थिति है। तीनों मिलकर उनके काव्य– विवेक की त्रिमूर्ति निर्मित करते हैं और अपने वक्त के अँधेरे से लड़ने की राह दिखाते हैं–– ‘कवि हूँ मैं पाया है प्रकाश।’ ‘शमशेर’ शीर्षक कविता एक बड़े कवि के विकल जीवन को बहुत कम शब्दों में दर्ज करती है–– ‘अकेलापन शाम का तारा था/ इकलौता/ उसे मैंने गटका/ नींद की गोली की तरह/ मगर मैं सोया नहीं।’ 

वीरेन का तीसरा संग्रह ‘स्याही ताल’ सन 2010 में प्रकाशित हुआ, जिसमें उनकी बेचैनी और बेफिक्री, समकालीन हताशा और बुनियादी उम्मीद के भरपूर साक्ष्य मिलते हैं। ‘कटरी की रुकुमिनी और उसकी माता की खंडित कथा’ जैसी कुछ लम्बी कविता में वीरेन अपने भयावह समय को एक खंडित गद्यात्मक कथा में पढ़ते हैं। यह एक चिंतित मनुष्य की कविता है जो समाज के ‘सड़ते हुए जल’ में देखता है कि किस तरह एक कस्बाई जीवन में ग्राम प्रधान, दारोगा और स्मैक तस्कर वकील का भ्रष्ट त्रिकोण घुसपैठ कर चुका है। वह एक गरीब विधवा की चैदह वर्ष की बेटी को अपना शिकार बनाना चाहता है। यह एक दुर्वह–दुस्सह अनुभव के ब्यौरों की कविता है जिसके और भी बर्बर और डरावने रूप आज हमारे समाज में बढ़ रहे बलात्कारों, बेरहमियों और हिंसा में दिखाई दे रहे हैं।

‘स्याही ताल’ वीरेन डंगवाल के जीवन की दो त्रासद घटनाओं का दस्तावेज भी है–– पिता की मृत्यु और खुद की बीमारी, जो सारी उम्मीदों के खिलाफ असाध्य और अन्तत: प्राणघातक बनती गयी। ‘रॉकलैंड डायरी’ बीमारी के दौरान अस्पताल में देखे–सोचे गये दृश्यों की डरावनी फैंटेसी है और अनायास मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कविता ‘अँधेरे में’ की याद दिलाती है–– ‘विभ्रम/ दु:स्वप्न /कई धारावाहिक कूट कथाओं की रीलें/ अलग–बगल एक साथ चलतीं/ जनता, हाँ जनता को रौंद देने के लिए उतरीं/ फौजी गाड़ियों की तरह/ हृदय में घृणा और जोश भरे/ साधु–सन्त–मठाधीश–पत्रकार दौलत के लिज–गिल–गिल/ पिछलग्गू / ललकारते जाति को एक नये विप्लव के लिए।’  चार कवितांश पिता की बीमारी, मृत्यु, अन्तिम संस्कार और फिर स्मृति से सम्बन्धित हैं और अन्त में पिता स्मृति में इस तरह बच रहते हैं–– ‘एक शून्य की परछार्इं के भीतर/ घूमता है एक और शून्य पहिये की तरह/ मगर कहीं न जाता हुआ/ फिरकी के भीतर घूमती एक और फिरकी/ शैशव के किसी मेले की।’ लेकिन गौरतलब है कि तमाम हताशाओं के बावजूद वीरेन उस उम्मीद को कभी ओझल नहीं होने देते जो यह मानती है कि ‘आदमी कमबख्त का सानी नहीं है/फोड़कर दीवार कारागार की इंसाफ की खातिर/तलहटी तक ढूँढता है स्वयं अपनी राह।’ अपने जहाजी बेटे के लिए लिखी गयी इस कविता ‘उठा लंगर खोल इंजन’ में वीरेन कहते हैं–– ‘हवाएँ रास्ता बतलायेंगी/ पता देगा अडिग रुख/ चम–चम–चमचमाता/ प्रेम अपना/ दिशा देगा/ नहीं होंगे जबकि हम तब भी हमेशा दिशा देगा/लिहाजा/ उठा लंगर खोल इंजन छोड़ बन्दरगाह।’

गम्भीर बीमारी और सर्जरी के बावजूद वीरेन ने लिखना जारी रखा और उनकी जो भी अब तक असंकलित कविताएँ हैं, वे दो बदलावों का संकेत करती हैं–– वे संवेदना और अनुभव के उन स्रोतों की ओर मुड़ रहे थे जिनमें या तो स्थानीयता और कुछ ‘पहाड़ीपन’ था या जिनसे ‘रामसिंह’ जैसी जुझारू कविता सम्भव हुई थी और शिल्प के स्तर पर भी वे उस रास्ते को अपना रहे थे जिसका जिक्र उन्होंने पिछले संग्रह में किया था–– ‘इसीलिए एक अलग रस्ता पकड़ा मैंने/ फितूर सरीखा एक पक्का यकीन।’ एक लम्बी नाटकीय रचना ‘परिकल्पित कथालोकान्तर काव्य–नाटिका नौरात शिवदास और सिरीभोग वगैरह’ खास तौर से ध्यान खींचती है जो लोक–कथा की शक्ल में एक प्रतिभाशाली दलित ढोल–कलाकार और एक रानी के प्रेम सम्बन्धों और राजा द्वारा उसकी हत्या के षडयंत्र के इर्दगिर्द बुनी गयी है, लेकिन खास बात यह है कि सोने की तलवार से मारे जाने से पहले ही ढोलवादक राजा को पीटकर फरार हो जाता है। इस घटना के वर्षों बाद उस वादक का पोता शिवदास कथा के प्रसंग में एक नया गीत जोड़ता हुआ एक बड़े संघर्ष का आह्वान करता है––

राज्जों, वजीरों का, शास्त्रों–पुराणों का नाश हो

जिन्होंने हमें गुलाम बनाया

इन तैंतीस करोड़ देवताओं का नाश हो

जो अपनी आत्मा जमाये बैठे हैं

हिमालय की बर्फीली चोटियों में

किसने सताया तुम्हें–हमें

इन पोथियों–पोथियारों, ताकतवालों ने

इनका नाश हो

इस रास्ते पर आगे बढ़ते हुए वीरेन कविता के नये पड़ावों की ओर जा रहे थे, लेकिन असामयिक और दुखद मृत्यु ने उनके सफर को रोक दिया। उनकी आखिरी कविताओं में यह एहसास विकल रूप में दिखता है हालाँकि उसके साथ उम्मीद का दामन भी नहीं छूटता–– ‘ये दिल मेरा ये कमबख्त दिल/ डॉक्टर कहते हैं ये फिलहाल सिर्फ पैंतीस फीसद काम कर रहा है/ मगर ये कूदता है शामी कबाब और आइसक्रीम खाता है/ भागता है/ शामिल होता है जुलूसों में धरनों पर बैठता है/ इन्कलाब जिन्दाबाद कहते हुए/ या कोई उम्दा कविता पढ़ते हुए अब भी भर लाता है/ इन दुर्बल आँखों में आँसू/ दोस्तो–साथियो मुझे छोड़ना मत कभी/ कुछ नहीं तो मैं तुम लोगों को देखा करूँगा प्यार से/ दरी पर सबसे पीछे दीवार से सटकर बैठा।’

इसी नाउम्मीद सी उम्मीद के भीतर वीरेन मौजूदा देश–समाज का जायजा लेने से नहीं चूकते–– ‘हमलावर बढ़े चले आ रहे हैं हर कोने से/ पंजर दबता जाता है उनके बोझे से/ मन आशंकित होता है तुम्हारे भविष्य के लिए/ ओ मेरी मातृभूमि ओ मेरी प्रिया/ कभी बतला भी न पाया कि कितना प्यार करता हूँ तुमसे मैं।’ यह गौरतलब है कि वैचारिक प्रतिबद्धता और जनता के संघर्षों पर विश्वास वीरेन डंगवाल की कविता और व्यक्तित्व में अन्त तक बने रहे और उनकी आरम्भिक प्रस्थापना की ताईद करते रहे–– ‘एक कवि और कर भी क्या सकता है/ सही बने रहने के अलावा।’ यह आकस्मिक नहीं है कि रघुवीर सहाय की प्रसिद्ध कविता का ‘रामदास’ वीरेन के आखिरी दौर में अस्पताल में असाध्य बीमार पड़े हुए ‘रामदास–2’ के रूप में लौट आता है।

हर कवि की एक मूल संवेदना होती है जिसके इर्द–गिर्द उसके तमाम अनुभव सक्रिय रहते हैं। इस तरह देखें तो वीरेन के काव्य–व्यक्तित्व की बुनियादी भावना प्रेम है। ऐसा प्रेम किसी भी अमानुषिकता और अन्याय का प्रतिरोध करता है और उन्मुक्ति के संघर्षों की ओर ले जाता है। ऐसे निर्मम समय में जब समाज में लोग ज्यादातर घृणा कर रहे हों और प्रेम करना भूल रहे हों, मनुष्य के प्रति प्रेम की पुनर्प्रतिष्ठा ही सच्चे कवि का सरोकार हो सकता है। शायद इसीलिए वीरेन की कविता में वर्गशत्रु या अंधेरे की ताकतों से नफरत उतनी नहीं है, बल्कि बर्बर ताकतों का तिरस्कार ज्यादा है। यह कविता इसीलिए एक अजन्मे बच्चे को माँ की कोख में फुदकते, रंगीन गुब्बारे की तरह फूलते–पचकते, कोई शरारत–भरा करतब सोचते हुए महसूस करती है या दोस्तों की बेटियों को एक बड़े भविष्य का दिलासा देती है। एक पेड़ के पीले–हरे उकसे हुए, चमकदार पत्तों को देखकर वह कहती है–– ‘पेड़ों के पास यही तरीका है/ यह बताने का कि वे भी दुनिया को प्यार करते हैं।’ शायद इसीलिए वीरेन ‘कत्थई गुलाब वाले’ शमशेर के बहुत निकट हैं, उन्हें बार–बार याद करते हैं और शमशेर के जीवन का निचोड़ और खुद हमारे समाज का निर्मम हाल बतलाते हैं–– ‘मैंने प्रेम किया/ इसी से भोगने पड़े/ मुझे इतने प्रतिशोध।’

यह देखकर आश्चर्य हो सकता है कि ‘पूरे संसार को ढोनेवाली/ नगण्यता की विनम्र गर्वीली ताकत’ की पहचान और प्रतिष्ठा करती हुई वीरेन डंगवाल की कविता अपने कलेवर में इतने अधिक प्राणियों और वस्तुओं को, उनके विशाल धड़कते हुए अस्तित्व को समेटती चलती रही। हिन्दी कविता में यह एक दुर्लभ घटना है जब कोई कवि अपने से इतना अधिक बाहर रहकर, इतना अधिक बाह्यान्तर से जुड़कर सार्थक सृजन कर पाया है। कविता से बाहर भी वीरेन के दोस्तों और प्रशंसकों की दुनिया इतनी बड़ी थी जितनी शायद किसी दूसरे समकालीन कवि की नहीं रही होगी। उनके निधन पर असद जैदी ने मीर तकी ‘मीर’ की एक रुबाई का हवाला दिया था जिसमें किसी ऐसे व्यक्ति से मिलने की ख्वाहिश जाहिर की गयी है जो सचमुच मनुष्य हो, जिसे अपने हुनर पर अहंकार न हो, जो अगर कुछ बोले तो एक दुनिया सुनने के लिए एकत्र हो जाये और जब वह खामोश हो तो लगे कि एक दुनिया खामोश हो गयी है। वीरेन की शिख्सयत ऐसी ही थी, जिसके खामोश हो जाने से लोगों और कविताओं की विस्तृत दुनिया में जो उदास खामोशी व्याप्त हुई थी, वह अब तक महसूस होती रहती है।