एक बार कलकत्ता में एक नाटक देखते हुए मोहन राकेश और गिरीश कार्नाड खूब हँसते रहे। नाटक खत्म होने पर राकेश ने कार्नाड से कहा, “जानते हैं, हम क्यों इतना हंस रहे थे?  इसलिए कि हमें पता चल गया था कि भारतीय नाटक का भविष्य हम पर ही निर्भर है।” यह बात सच थी। ‘आषाढ़ का एक दिन’, ‘एवं इन्द्रजित’ ‘तुगलक’, और ‘शांतता, कोर्ट चालू आहे’–– पिछली सदी के सातवें दशक में इन चार नाटकों ने भारतीय रंगमच के चेहरे को बदलने का काम किया और उनके लेखक थे हिन्दी के मोहन राकेश, बांग्ला के बादल सरकार, कन्नड़ के गिरीश कार्नाड और मराठी के विजय तेंदुलकर। चारों नाटक अपने कथ्य, शिल्प और संरचना में एक दूसरे से बहुत अलग थे, लेकिन उनका मुख्य सरोकार लगभग एक समान था और वह था अपने समय की चीरफाड़ करने, उसकी व्याख्या के रूपकों की रचना। आगे चल कर चारों लेखकों के दूसरे नाटक भी लम्बे समय तक रंगकर्म को जीवंत, प्रासंगिक और सामयिक बनाये रखने में योगदान करते रहे। लगभग तीस वर्ष तक भारतीय भाषाओं का रंगमंच अगर  एक शानदार जगह बनाये रहा तो इसकी एक बड़ी वजह यह थी की उस पर खेले गये नाटक उतने ही दमदार थे। गिरीश  कार्नाड (19 मई 1938–10 जून 2019) पिछली सदी के उस रंगमच की आखिरी रोशनी थे।

  अपने समय की बाहरी–भीतरी परतों को उधेड़ने के लिए गिरीश कार्नाड इतिहास और लोक–मिथकों की ओर गये। सिर्फ 26 वर्ष की उम्र में जब उन्होंने ‘तुगलक’ की रचना की थी तो वह नेहरू–युग के महास्वप्न से मोहभंग का दौर था। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में इब्राहीम अल्काजी ने पहली बार उसका मंचन किया (उसमें तुगलक की भूमिका मनोहर सिंह ने की थी) और चैदहवीं सदी के एक आदर्शवादी और स्वप्नजीवी सुल्तान मोहम्मद बिन तुगलक का चरित्र नेहरू युग का रूपक बन गया। इस नाटक का उद्देश्य सिर्फ यह बतलाना नहीं था कि तुगलक के उदात्त विचार किस तरह यथार्थ की जमीन पर नाकारा साबित हुए, बल्कि एक ऐतिहासिक प्रसंग के जरिये अपने वक्त की आलोचना पेश करना था। इस तरह ‘तुगलक’ एक राजनीतिक नाटक के तौर पर प्रतिष्ठित हुआ जिसके हजारों प्रदर्शन अब तक हो चुके होंगे। कार्नाड का दूसरा नाटक ‘हयवदन’ कथासरित्सागर के एक प्रसंग से प्रेरित था जिस पर जर्मन लेखक टॉमास मान की एक कहानी भी चर्चित हुई। वह बुद्धि और शारीरिक शक्ति के द्वंद्व और मनुष्य के अस्तित्व में पूर्णता को खोजने की व्यर्थता को रेखांकित करता था। रंगकर्मी बव कारंत के निर्देशन में कन्नड़ और हिन्दी में उसका मंचन ऐतिहासिक प्रस्तुतियों में गिना जाता है। वह नाटक एक अद्भुत दृश्य–कविता की तरह था। कार्नाड के कई दूसरे नाटक भी बहुत चर्चित रहे जिनमें ‘ययाति’, ‘नागमंडल’, ‘रक्त–कल्याण’ ‘अंजु मल्लिगे’, ‘अग्नि और बरखा’, ‘टीपू सुलतान के ख्वाब’ और ‘बाली’ बहुत सफल हुए। सन 2018 में उन्होंने विजय नगर में चालुक्य साम्राज्य के उदय और पतन पर लिखे गये नाटक ‘राक्षस तांगड़ी’ में प्रचलित इतिहास से अलग यह रेखांकित किया कि इस पतन की वजह दो धर्मों की लड़ाई नहीं, बल्कि राज–परिवार के भीतरी षड्यंत्र और यह सचाई थी कि राजा रामराय पूरी तरह चालुक्य नहीं वंश के, निचली जाति के थे।

   नाटकों के अलावा फिल्म–निर्देशन, अभिनय और पटकथा लेखन से भी कार्नाड का गहरा लगाव था। उर अनंतमूर्ति के प्रसिद्ध उपन्यास ‘संस्कार’ में उन्होंने प्रमुख पात्र प्रानेशाचार्य की भूमिका निभाई। उनके द्वारा निर्देशित कई कन्नड़ फिल्मों—‘काडु’, ‘वंशवृक्ष’ और ‘ओंदानोंदु कालदल्ली’ के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ निर्देशन के राष्ट्रीय पुरस्कार और ‘आनन्द  भैरवी’’ के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनय के पुरस्कार मिले। देश और प्रदेश के स्तर पर ऐसे लगभग चैबीस पुरस्कार उन्हें प्राप्त हुए। कन्नड़, तमिल, तेलुगु, मराठी के अलावा बहुत सी हिन्दी फिल्मों में काम करने के कारण वे उत्तर भारतीय दर्शकों के बीच भी जाने–पहचाने थे। ‘मंथन’ और ‘निशांत ‘जैसी कलात्मक फिल्मों के बाद उन्होंने व्यावसायिक बम्बईया सिनेमा (‘एक था टाइगर’ और ‘टाइगर जिन्दा है’, आदि) में भी काम करने से कोई परहेज नहीं किया। और यह एक विडंबना ही है कि आम हिन्दीभाषी के बीच उनकी छवि पंद्रह महत्त्वपूर्ण नाटकों के लेखक की बजाय फिल्मी अभिनेता की ज्यादा रही।

गिरीश कार्नाड इतिहास की घटनाओं की अपने समय के लिए पुनर्व्याख्या करना जरूरी मानते थे, लेखन उनके लिए एक  राजनीतिक कर्म था और वे उसे किताबां से बाहर भी ले जाते थे। वे जीवन भर धार्मिक कट्टरता, घृणा और साम्प्रदायिकता का प्रतिरोध करते रहे। बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद वे ऐसी ताकतों के खिलाफ और भी मुखर हो गये थे। जब कट्टर हिन्दूवादियों ने कन्नड़ वचन साहित्य के विद्वान एमएम कलबुर्गी और पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या की तो वे इसके विरोध में सडक पर उतरे। भारत सरकार अपने शहरी आलोचकों और मानव अधिकारों के लिए संघर्ष करने वालों को ‘शहरी नक्सल’ कह कर बदनाम करने लगी तो उन्होंने ‘आय एम अर्बन नक्सल’ और बढ़ती हुई हिंसा–असहिष्णुता के विरोध में ‘नॉट इन माय नेम’ की तख्ती लटका कर प्रदर्शनकारियों का साथ दिया। मुंबई में एक साहित्य उत्सव में जब वीएस नायपाल को ‘लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड’ दिया गया तो गिरीश कार्नाड ने उनके सामने ही उन पर ‘मुस्लिम–विरोधी’ होने और ‘भारत के बारे में कोई समझ न रखने वाला बाहरी व्यक्ति’ कह कर तूफान खड़ा कर दिया। यह चर्चा भी रही कि कट्टर हिन्दूवादी सनातन संस्था की ‘हिट लिस्ट’ में पहला नंबर कलबुर्गी और गौरी लंकेश की बजाय कार्नाड का ही था।

   एक इंटरव्यू  में गिरीश कार्नाड ने कहा था कि वे एक आकस्मिक संतान हैं। उनके माता–पिता उनसे छुटकारा पाना चाहते थे, लेकिन जिस दिन उनकी माँ गर्भपात के लिए अस्पताल गयीं, उस दिन डॉक्टर नहीं आयीं। नतीजा यह रहा कि वे बच गये। ‘जब माँ ने मुझे यह बताया तो मुझे बड़ा धक्का लगा। अरे, यह दुनिया मेरे बगैर ही चलती रहती? यह अवांछित बच्चा बहुत मेधावी निकला और गणित में प्रथम श्रेणी लाने के बाद रोड स्कॉलर बनकर ऑक्सफोर्ड गया और वहाँ से नाटककार बन कर लौटा। कार्नाड को साहित्य और सिनेमा के सभी प्रमुख सम्मान प्राप्त हुए जिनमें भारतीय ज्ञानपीठ, साहित्य अकादेमी, संगीत नाटक अकादेमी, कालिदास सम्मान, पद्मभूषण आदि शामिल हैं। उन्हें अन्तरराष्ट्रीय ख्याति मिली, लेकिन अन्याय के खिलाफ संघर्ष में वे लोगों के कन्धे से कन्धा मिलाकर चलते रहे। जैसा बांग्ला लेखिका महाश्वेता देवी करती थीं, जैसा हमारी तीसरी दुनिया के बहुत से लेखक करते रहे हैं।