फर्ज कीजिये कि आप कोई काम कर रहे हैं और उसे कोई काले शीशे के पीछे से देख रहा हो और आपको इसकी कोई भनक भी न हो, तो क्या होगा।

सूचना युग में आज हम अपने को बहुत खुशनसीब समझ सकते हैं कि हमारे पास स्मार्ट फोन है, उस पर एक क्लिक करते ही ढेरों सुविधाएँ उपलब्ध हैं। एक क्लिक करने पर रेस्टोरेण्ट के बढ़िया खाने का आर्डर देने, बस, ट्रेन, टैक्सी की बुकिंग करने, दुनिया भर की सूचना पाने, दुनिया के किसी भी पहाड़, नदी, समन्दर की फोटो देखने, प्रेमी या प्रेमिका की खोज करने और मनोरंजन से अपनी आँखें तर करने का काम कर सकते हैं। हमें इन सबकी क्या कीमत देनी पड़ती है ? यह हम नहीं सोचते। जेफ ओर्लाेवस्की द्वारा निर्देशित डॉक्युमेण्ट्री फिल्म ‘द सोशल डाइलेमा’ इसके बारे में दिखाती है।

सूचना के इतिहास को देखें तो पता चलता है कि हम मुनादी, रेडियो, टेलीविजन से होते हुए इण्टरनेट और स्मार्ट फोन तक पहुँच चुके हैं। इसने हमें एक ऐसे जाल में फँसा लिया है जो खुशी भी देता है और गम भी। स्मार्ट फोन में फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम, गूगल और इसी तरह के सैंकड़ों एप्लीकेशन्स होते हैं, जिन्हें सोशल मीडिया कहा जाता है क्योंकि यह लोगों को जोड़ने के लिए प्लेटफार्म उपलब्ध कराते हैं। इनकी खास बात यह है कि ये दुनिया की सबसे ज्यादा पैसा कमाने वाली कम्पनियाँ हैं। ज्यादातर एप्लीकेशन्स इण्टरनेट पर फ्री में उपलब्ध हैं। ये कम्पनियाँ इन्हें फ्री में उपलब्ध कराकर भी दुनिया की सबसे अमीर बन गयीं। आज तकनीक शासक वर्ग के हाथ में है, वे हर हालत में मुनाफा कमाना चाहते हैं। ये लूट ऐसे ही चलती रहे इसके लिए जनता को गुमराह किया जाता है।

‘द सोशल डाइलेमा’ फिल्म में बहुत सारे तकनीकी विशेषज्ञों के साक्षात्कार हैं, जो इन कम्पनियों में बड़े पदों पर काम कर चुके हैं। उन्हीं में से एक “ट्रिस्टन हैरिस” जो गूगल में बतौर “डिजाइन एथिसिस्ट” काम कर चुके हैं, बताते है कि इन सोशल मीडिया प्लेटफार्म के बिजनेस मॉडल की मुख्य बात होती है यूजर को स्क्रीन से बाँधे रखना। इसी के लिए वे नये–नये तरह के प्लेटफार्म बनाते हैं जैसे अगर आपने फेसबुक खोला और देखना शुरू किया तो कभी न खत्म होने वाली जानकारी आपकी आँखों के सामने आती रहेगी। वह चकाचैंध पैदा करती है और व्यक्ति उसी में खो जाता है जिसे तकनीकी विशेषज्ञ “पॉजिटिव इण्टरमिटेण्ट रिइनफोर्स्मेंट” बोलते हैं। इसके लिए विशेषज्ञों की एक टीम योजना बनाती है। योजना के लिए डाटा चुराने का काम ये कम्पनियाँ अपने यूजर की प्रोफाइल से करती हैं वह भी उनको बिना बताये। आप हर गतिविधि जैसे–– सोशल मीडिया से जुड़ने के बाद वह आपके दुख–सुख, दोस्त–दुश्मन, पसन्द–नापसन्द, प्यार–नफरत, सांस्कृतिक अभिरुचि–– गाने, फिल्मंे, खानपान आदि हर कार्रवाई की जासूसी करती हैं। आपकी इन्हीं सूचनाओं का इस्तेमाल करके वे आपके फोन पर विज्ञापन भेजते हैं और आपको ग्राहक बना लेते हैं। आपकी पसन्द–नापसन्द को बदल देते हैं। असल म ें ये कम्पनियाँ हमसे जुड़े डाटा को बेच कर मुनाफा कमाती हैं।

ट्रिस्टन हैरिस बताते हैं कि सोशल मीडिया प्लेटफार्म से आज 5 तरह का धंधा चल रहा है–– 1– डाटा माइनिंग (निगरानी करके बिना अनुमति के डाटा इकट्ठा करना), 2– एडिक्शन (इन प्लेटफार्म की आदत डालना), 3– झूठी खबरें प्रचारित करना (एक रिपोर्ट के अनुसार ट्विटर पर फैली झूटी खबर सच्ची खबर के मुकाबले 6 गुना तेजी से फैलती है।), 4– चुनाव में गडबड़ी करना, 5– प्रोपगेंडा फैलाना।

हमारे बीच गहराई से जड़ें जमा चुका सोशल मीडिया हमें मानसिक रूप से बीमार बनाता है। उन्हीं में से एक बीमारी का नाम है “स्नैपचैट डिसमॉर्फिया” जिसमें लोग अपनी फोटो को सुन्दर बनाने के लिए फिल्टर का इस्तेमाल करके चेहरे पर तरह–तरह के रंग पोत लेते हैं। वे चाहते हैं कि ज्यादा से ज्यादा लाइक मिले, कम लाइक मिलने पर निराश हो जाते हैं।

आखिर में यह फिल्म कुछ समाधान भी पेश करती है। जैसे अगर हो सके तो इन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को अपने फोन से हटा दंे। या फिर इनका कम से कम इस्तेमाल करंे।