कोरोना के बाद उत्तर प्रदेश में डेंगू, मलेरिया कहर ढा रहे हैं। गाँवों–कस्बों का ऐसा कोई मोहल्ला नहीं बचा है जहाँ बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक बुखार से पीड़ित न हो। फिरोजाबाद जिले में ही एक सप्ताह के अन्दर 150 से अधिक लोगों की जान बुखार से चली गयी जिनमें अधिकतर बच्चे हैंं। फिरोजाबाद के बाद मथुरा का इससे भी बुरा हाल हुआ।

सरकार ने इलाज का कोई पुख्ता इन्तजाम कराने के बजाय उल्टे जनता को ही दोषी ठहरा दिया। सरकार ने कूलर में भरे पानी को डेंगू की सबसे बड़ी वजह बताते हुए तुरन्त ही जुर्माना वसूलना शुरू किया और लगभग 65 लोगों के विरुद्ध आवश्यक धाराओं में कार्रवाई भी कर दी। पुराने सरकारी भवनों के आस–पास की भयानक गन्दगी, बरसात के कारण सड़कों, तालाबों, नालों आदि में भरे पानी की तरफ सरकार की नजर नहीं गयी। हो सकता है कि सरकार इन्हें बीमारी का कारण नहीं मानती हो, या सरकारी डर के चलते कीचड़ भरे पानी में मच्छर पैदा ना होते हों!

उत्तर प्रदेश सरकार ने बुखार से हो रही मौतों की एक और वजह ईजाद कर ली है, शराब और माँस की दुकानें। मथुरा के 12 वार्डो में शराब और माँस की दुकानों पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। सरकार ने इन दुकानदारों को दूध का व्यापार करने की सलाह दी। शायद सरकार के पास मच्छर मारने का यही एक तरीका बचा है। हालाँकि, देश की लगभग 70 फीसदी आबादी खाने में माँस का इस्तेमाल करती है। माँस प्रोटीन का एक सस्ता और अच्छा स्रोत है। चिकित्सकों के मुताबिक डेंगू, मलेरिया जैसी बीमारियों से लड़ने के लिए प्रोटीन बहुत जरूरी है। ऐसे में माँस की दुकानों को प्रतिबन्धित करके योगी जी ने पूँजीपतियों को यह सन्देश भी दिया है कि उनके लाभ के लिए वे जनता के मुँह का निवाला भी छीन सकते हैं।

कोविड–19 महामारी के लिए तबलीगी जमात वाले दोषी ठहरा दिये गये थे और डेंगू के लिए माँस बेचने वाले। सरकार की हर नाकामी को जनता के मत्थे मढ़ देना, उसका इस्तेमाल साम्प्रदायिकता और अन्धविश्वास बढ़ाने के लिए करना अब भारत में सरकारी परम्परा बन गयी है। नफरत का माहौल बनाकर सरकार विधानसभा चुनाव–2022 को जीतने का सपना पाल रही है। पूँजीपतियों की भी पौ–बारह है, निजी अस्पताल ठसाठस भरे हैं पैथलैब के आगे लम्बी लाइनें लगी हैं, दवा कम्पनियों का माल जमकर बिक रहा है। लोगों की बीमारी और मौत राजनेताओं और पूँजीपतियों के लिए वास्तव में बहुत लाभकारी साबित हो रही है।

डेंगू भारत के लिए कोई नयी बीमारी नहीं है। दुनिया भर में डेंगू की शिकार आबादी का आधा हिस्सा अकेले भारत में मौजूद है। यहाँ हर साल 16 मई को डेंगू दिवस मनाया जाता है जो इसी बात का संकेत है कि प्रशासन समय पर सावधान हो जाये और दवा छिड़काव, फॉगिंग जैसे बचाब के कामों में जुट जाये।

दरअसल, सरकार और पूँजीपति के लिए डेंगू या कोई और संचारी रोग खतरे की चेतावनी नहीं बल्कि लाभ की आहट होती है। जनता के बचाव का इन्तजाम करने के बजाय इनको चरम तक पहुँचने का इन्तजार किया जाता है। चरम अवस्था तक पहुँचते ही मुख्य धारा का मीडिया नेताओं और सरकार की जनहितैषी छवि गढ़ने लगता है। मंत्री, मुख्यमंत्री दौरे करते हैं, कुछ मरीजों के घर शोक–संवेदना का दिखावा करने भी चले जाते हैं, इक्का दुक्का अधिकारियों के खिलाफ दिखावटी कार्रवाई की जाती है। आनन–फानन में कुछ गरीब लोगों के अच्छे अस्पताल में इलाज के वीडियों और फोटो जारी किये जाते हैं। कुल मिलाकर बच्चों की मौत, बीमारी एक उत्सव में बदल जाती है, उत्तर प्रदेश में यही हुआ है। रेटिंग एजेंसियों के अनुसार डेंगू से बच्चों की मौत के बाद सरकार की छवि में कुछ सुधार हुआ है।

सरकारी अस्पताल जो केवल गिनती के हैं उनमें मरीज खचाखच भरे हुए हैं। इसमें से अधिकतर की हालत ऐसी नहीं है कि उनमें बुखार का भी इलाज हो सके। नतीजतन निजी अस्पतालों में मरीजों की भरमार है जो पूरी तरह उद्योग में तब्दील हो गये हैं और जनता के दुख दर्द पर फल–फूल रहे हैं। एनओएस की एक रिपोर्ट के मुताबिक निजी अस्पतालों में इलाज सरकारी अस्पतालों से सात गुना महँगा है। एक सर्वे के मुताबिक केवल स्वास्थ्य लागत बढ़ने से हर साल लगभग 6.3 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे चले जाते हैं। इसी आँकड़े पर भरोसा करके उत्तर प्रदेश सरकार पूँजीपतियों को मालामाल और जनता को कंगाल करने का अभियान चला रही है। सरकारी अस्पतालों की बदहाली बाकी पूँजीपतियों को भी फायदा पहुँचाती है। निजी डॉक्टरों, दवा कम्पनियों, लैब मालिकों को भरपूर लाभ होता है। इसके अलावा, जरा सोचिये, बच्चा बीमार होने पर गरीब आदमी सूदखोर से कर्ज भी लेगा और कम से कम दाम पर मजदूरी करने को भी मजबूर होगा, दोनों ही हालत में पूँजीपतियों का फायदा है।

हमारे देश में बहुत नाकाफी ही सही लेकिन एक सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली मौजूद थी, जो देश के लगभग 70 प्रतिशत बीमारों का इलाज करती थी, 30 प्रतिशत बीमारों का इलाज निजी अस्पतालों और डॉक्टरों के जरिये होता था। जब हमारे शासकों ने निजीकरण की नीतियों को स्वीकार कर लिया तो सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली निजी अस्पतालों, डॉक्टरों, दवा कम्पनियों के मुनाफे की राह का रोड़ा बनने लगी। सैकड़ों तरह के छल–प्रपंचों से इस प्रणाली को तबाह किया गया। आज यह मरणासन्न है। आज 70 प्रतिशत बीमार निजी अस्पतालों और चिकित्सकों से इलाज करवाने को मजबूर हैं। साल 2010 तक प्रति दस हजार व्यक्तियों पर सरकारी अस्पतालों में 9 बेड मौजूद थे आज इनकी संख्या घटकर पाँच रह गयी है।

हाल ही में उत्तर प्रदेश सरकार ने प्रदेश के लगभग 16 जिलों के मुख्य अस्पतालों को 1 रुपया सालाना के हिसाब से 33 वर्षों के लिए निजी हाथों में सौंप दिया है। जनता के खून पसीने की कमाई से खडे़ किये गये सार्वजनिक अस्पतालों को निजी पंूजीपतियों के हवाले करने की ऐसी मिसाल दुनिया में कहीं और नहीं मिलेगी। जो सरकार जनता की जान की कीमत पर पूँजीपतियों के मुनाफे की गारन्टी करती हो वह डेंगू, मलेरिया की रोकथाम के लिए कोई इन्तजाम करेगी, उससे यह उम्मीद नहीं की जा सकती।

बेहतर इलाज का इन्तजाम करने के बजाय राजनेता लगातार जनता के बीच अवैज्ञानिकता, अन्धविश्वास और कूपमण्डूकता फैलाते हैं। मुख्यधारा का मीडिया भी जनता को शासकों की मक्कारियों से रूबरू कराने के बजाय उनके कुकर्मों को छिपाने और उनकी छवि चमकाने का ठेका लिए हुए है। रॉयटर्स इंस्टीट्यूट फॉर द स्टडी ऑफ जर्नलिज्म ने अपनी न्यूज रिपोर्ट–2021 में कहा है कि भारत में मीडिया का बड़ा हिस्सा निगमों और राजनीतिक पार्टियों द्वारा नियंत्रित है और निजी संस्थाओं के पैसे से चलता है। 392 चैनल सत्तारूढ पार्टी की विचारधारा से संचालित होते हैं।

आइसीएमआर देश के चिकित्सा क्षेत्र का लेखा जोखा रखने वाली संस्था है। इसकी रिपोर्ट के मुताबिक डेंगू, मलेरिया कोई नयी समस्या नहीं है। यह बरसात के बाद हर साल आते हैं। हर तीन साल बाद इनमें उछाल आता है। इसके बारे में उत्तर प्रदेश सरकार को जानकारी थी लेकिन उसने न तो किसी भी तरह की कोई पूर्व चेतावनी जारी की और ना ही इनके रोकथाम का कोई इन्तजाम किया। डेंगू, मलेरिया को दवा छिड़काव, फॉगिंग और जल निकासी जैसे साधारण इन्तजाम करके ही काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता था लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार ने इसे खूब बढ़ने दिया। स्थिति विस्फोटक होने पर मीडिया के तूफानी प्रचार के दम पर सत्ताधारी पार्टी ने इसे अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया और निजी अस्पतालों, दवाई कम्पनियों, पैथोलॉजी लैब आदि को मुनाफा कमाने का भरपूर मौका दिया।

 दूसरी ओर सैकड़ों परिवारों में बच्चों की लाशें आयीं और पहले से ही आर्थिक संकट झेल रहे लाखों परिवार नये कर्ज में डूब गये जो उनकी मौत के बाद भी खत्म नहीं होगा। इस व्यवस्था का निर्माण ही उन्होंने इस तरह किया है कि यह अपनी अन्तिम साँस तक हमारी और हमारे बच्चों की जानें लेती रहेगी। जनता की तबाही इस व्यवस्था की अनिवार्य बुराई बन चुकी है और इस बुरी व्यवस्था का समूलनाश जनता के जीवन की अनिवार्य शर्त बन गयी है।